- मध्यप्रदेश, राजस्थान और गुजरात में खरमोर हर वर्ष प्रजनन के लिए आते हैं।
- खेती के बदले तरीकों और सोयाबीन के बढ़ते रकबे की वजह से पिछले कई वर्षों से इनकी संख्या में काफी कमी देखी गई है।
- तीनों राज्यों में खरमोर के संरक्षण के लिए वन विभाग की तरफ से कई प्रयास किए जा रहे हैं।
मालवी में भाट कुकड़ा, हिंदी में खरमोर और अंग्रेजी में लैसर फ्लोरिकन। अलग-अलग बोली-भाषाओं में इस पक्षी के अनेक नाम हैं, लेकिन हर स्थान पर इस पक्षी से जुड़ी एक सामान्य बात है, इनका तेजी से विलुप्त होते जाना।
सोन चिरैया परिवार की सुराहीदार गर्दन और लंबे पैरों वाली इस पक्षी का चटख रंग देखकर दूर से ही इसे पहचाना जा सकता है। सिर पर खूबसूरत कलंगी लिए मेढ़क जैसी आवाज निकालते, लगातार सैकड़ों बार 2 से 3 मीटर तक उछल सकते हैं। इनकी आवाज 300 से 500 मीटर दूर तक सुनी जा सकती है।
सोन चिरैया परिवार में खरमोर के अलावा बंगाल फ्लोरिकन और ग्रेट इंडियन बस्टर्ड भी शामिल हैं। खरमोर इन सबमें सबसे छोटा पक्षी है।
मध्यप्रदेश के धार, झाबुआ, रतलाम, नीमच जिलों के घास के मैदान, इस पक्षी का आशियाना हैं। राजस्थान का शोकलिया-केकरी क्षेत्र और महाराष्ट्र का अकोला-वाशिम क्षेत्र उन प्राकृतिक बसाहटों में शुमार हैं, जहां खरमोर को सबसे ज्यादा खतरा है। खरमोर प्रजनन के लिए मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात में हर साल जुलाई में पहुंचते हैं और तीन-चार महीनों के लिए डेरा डालते हैं।
खेती के बदलते तौर तरीकों की वजह से मध्यप्रदेश में यह पक्षी अब विलुप्त होने की कगार पर है। साल दर साल इन मेहमानों की संख्या में कमी देखी जा रही है। ताजा आंकड़ा 2019 का है, तब मध्यप्रदेश में इनकी संख्या 11 दर्ज की गई थी।
एक शोध के मुताबिक देश में नर खरमोर की संख्या केवल 340 है। विश्व में मात्र 1,500 खरमोर बचे हैं। इकोलॉजी एंड मैनेजमेंट ऑफ ग्रासलैंड इन इंडिया की बुलेटिन कहती है कि यह पक्षी देशभर के घास के मैदानों में पाए जाते थे, लेकिन हरित क्रांति (1960) के बाद से खेती में आए बदलाव की वजह से इनका रहवास सिमटता जा रहा है। सिमट रहे घास के मैदान भी खरमोर की आबादी को कम करने की वजह माने जा रहे हैं।
मध्यप्रदेश के किसान सोयाबीन की खेती की तरफ आकर्षित हैं और इसका रकबा लगातार बढ़ रहा है। खेती में आया यह बदलाव इस पक्षी का भोजन छीन रहा है।
“मूंग और उड़द की फसल के फूलों में लगने वाले कीड़े खरमोर का भोजन हैं। खेती में कीटनाशकों के छिड़काव से ये कीड़े खत्म हो जाते हैं,” पक्षियों के जानकार दिलशेर खान कहते हैं। दिलशेर ने कुछ वर्ष पहले धार के घास के मैदान में खरमोर की संख्या कम होने की वजह तलाशी थी। उन्होंने इसकी एक रिपोर्ट वन विभाग को दी है। “मानसून में अच्छी बारिश न होना और घास के मैदानों में सड़क बनाने जैसे विकास कार्यों से खरमोर का रहवास प्रभावित हुआ है,” दिलशेर कहते हैं।
हालांकि, राजस्थान के शोकलिया में पारंपरिक खेती की वजह से खरमोर को खाना मिल रहा है। लेकिन ऐसे किसानों की संख्या काफी कम है।
खरमोर संरक्षण की सरकारी कोशिशें
मोंगाबे-हिंदी से बात करते हुए मध्यप्रदेश के वन विभाग के वन्यजीव मुख्यालय के अपर प्रधान मुख्य वनसंरक्षक जेएस चौहान कहते हैं कि खरमोर की संख्या मध्यप्रदेश में लगातार कम हुई है। “हमने पिछले साल 11 खरमोर देखे थे। वर्ष 2015 में यह संख्या 48 थी। वर्ष 2016, 2017 और 2018 में क्रमशः 39, 19 और 27 खरमोर देखे गए थे,” उन्होंने बताया।
मध्यप्रदेश में वन विभाग की ओर से खरमोर संरक्षण के लिए दो अभयारण्य बनाए गए हैं। इसके बावजूद पक्षी की संख्या घटती जा रही है। इसकी वजह ग्रामीणों के साथ तालमेल न होना है। धार में खरमोर संरक्षण के लिए सरदारपुर खरमोर सेंचुरी का निर्माण किया गया है। यह 348.12 वर्ग किमी में फैला है जिसमें 200 वर्ग किमी भूमि निजी है।
“हम वन विभाग की जमीन पर खरमोर का संरक्षण काफी सुनियोजित तरीके से कर रहे हैं, लेकिन निजी संपत्ति पर हमारा उतना दखल नहीं रह जाता। इंदौर से सटा जिला होने की वजह से यहां तेजी से विकास हो रहा है और ग्रामीण अपनी जमीन बेचना चाहते हैं। संरक्षित क्षेत्र होने की वजह से वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं,” चौहान कहते हैं।
पिछले साल सरदारपुर इलाके के 14 गांवों के किसानों ने जमीन बेचे जाने की अनुमति मांगी और न मिलने पर आंदोलन की चेतावनी दी।
“संरक्षण कार्य के लिए हम ग्रामीणों के साथ मिलकर चलते हैं। जब इलाके से खरमोर चले जाते हैं तब हम किसानों को मैदान में से घास काटने के लिए आमंत्रित करते हैं। इससे उनका लाभ ही होता है,” सरदारपुर वन मंडल के उप मंडल अधिकारी संतोष कुमार रंशोरे कहते हैं।
संरक्षण में स्थानीय लोगों के सहयोग को लेकर पक्षी विशेषज्ञ मोहम्मद खालिक की अलग राय है। खालिक ने पिछले कुछ वर्षों में भोपाल स्थित भोज वेटलैंड में स्थानीय किसानों के साथ मिलकर सारस क्रेन का संरक्षण किया है। वह कहते हैं, “मैंने अपने अनुभव से देखा है कि जबतक ग्रामीणों को संरक्षण से सीधा लाभ न मिले, वह रूचि नहीं लेते हैं। संरक्षण के काम को अगर जीविका से जोड़ा जाए तो नतीजे अच्छे निकलते हैं। नई पीढ़ी को भी पक्षियों के प्रति जागरूक करना होगा और उन्हें आने वाले समय में पर्यटन से होने वाले फायदे के बारे में बताना होगा।”
मध्यप्रदेश में खरमोर की संरक्षित प्रजनन की तैयारी
लगातार कम होती संख्या को देखकर मध्यप्रदेश वन विभाग ने संरक्षित प्रजनन की योजना बनाई है। “विभाग ने एक योजना बनाकर स्टेट वाइल्डलाइफ बोर्ड को सहमति के लिए भेजा है। इस योजना के तहत संरक्षित प्रजनन या कंजर्वेशन ब्रीडिंड की व्यवस्था की जाएगी। चार करोड़ रुपये खर्च कर अगले पांच साल के लिए इसपर काम हो सकता है,” चौहान ने बताया।
विभाग ने इस योजना के लिए सलीम अली पक्षी विज्ञान एवं प्राकृतिक विज्ञान केंद्र (एसएसीओएन) का सहयोग लिया है।
राजस्थान में उम्मीद की किरण
राजस्थान के शोकलिया में स्थानीय लोग संरक्षण के लिए आगे आ रहे हैं। यहां कुछ किसानों ने पारंपरिक मिश्रित खेती को अपनाया है। शोकलिया का यह पक्षियों वाला इलाका अजमेर के आसपास है जो कि गुजरात के वेलावदार नेशनल पार्क से सटा हुआ है। यहां खरमोर अच्छी-खासी संख्या में हैं। “भारत में 30 से 40 फीसदी खरमोर की आबादी संरक्षित क्षेत्र से बाहर है, जो कि काफी ज्यादा है,” वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के सुतिर्थ दत्त बताते हैं।
शोकलिया में कुछ किसान ज्वार, उड़द, मूंग, तिल और मक्के की खेती करते हैं और इस तरह अनजाने में वह खरमोर की मदद कर रहे हैं। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी (बीएनएचएस) की 2020 की रिपोर्ट कहती है कि 3,700 वर्ग किमी फैले इलाके में शोधकर्ताओं को 35 मादा और 9 नर खरमोर मिले।
स्थानीय लोगों के संरक्षण में योगदान की वजह से अजमेर में भी खरमोर काफी संख्या में पहुंच रहे हैं। “खरमोर के लिए अजमेर पसंदीदा इलाका है क्योंकि मूंग, ज्वार और उड़द की फसल 50 से 100 सेंटीमीटर तक होती है जहां पक्षी आराम से रह सकते हैं। इन खेतों में नर पक्षी को उछलते हुए मादा पक्षी आसानी से देख पाती हैं,” बीएनएचएस के शोधकर्ता सुजीत नरवड़े कहते हैं।
संरक्षण के लिए और शोध की जरूरत
हाल ही में खरमोर की आवाजाही पर टेलीमेट्री प्रोजेक्ट के जरिए निगरानी रखी गई है। इसके लिए पक्षी के शरीर पर एक यंत्र लगाते हैं जिससे उनकी आवाजाही की निगरानी हो पाती है। इस से पता चला है कि फसल काटने के बाद पक्षी दूसरे इलाके की तरफ रुख करते हैं। “ये पक्षी पहले अजमेर आते हैं फिर वहां से मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र जाते हैं। इस पक्षी के बारे में बस इतना जानना काफी नहीं। संरक्षण के लिए अधिक लंबे शोध की जरूरत है,” दत्त कहते हैं।
दत्त मानते हैं कि अभी संरक्षण के लिए और भी प्रयास करने होंगे। शोकलिया के किसान जब जानबूझकर खरमोर के संरक्षण के लिए फसल लगाएंगे तब जाकर हालात बदलेंगे।
बैनर तस्वीर- मादा खरमोर राजस्थान के आसमान में उड़ान भरती हुई। राजस्थान के शोकलिया-केकरी क्षेत्र में खरमोर प्रजनन के लिए आते हैं। फोटो– अंगद अछाप्पा/विकिमीडिया कॉमन्स