- हाल ही में आए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के तहत कई राज्यों के आंकड़े जारी किये गए जिससे पता चलता है कि पिछले पांच सालों में साफ ईंधन के इस्तेमाल में महज 15-20 फीसदी का ही इजाफा हुआ है।
- पिछले पांच सालों से वर्तमान सरकार घरों में साफ ईंधन को बढ़ावा देने के लिए पूरे जोर शोर से प्रधानमंत्री उज्जवला योजना चला रही थी। इस योजना के बूते सरकार का दावा है कि देश के 98 फीसदी घरों को एलपीजी कनेक्शन दिया जा चुका है।
- विशेषज्ञ सचेत करते रहे हैं कि सरकार जिस ऊर्जा से एलपीजी कनेक्शन उपलब्ध करा रही है लोग उस ऊर्जा से इसका इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। लेकिन सरकार इन बातों पर विचार करने की बजाय कई आंकड़ों से इस योजना को सफल साबित करने की कोशिश करती रही है।
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कुछ बड़ी उपलब्धियों में ‘प्रधानमंत्री उज्जवला योजना’ की गिनती होती है। सरकार दावा करती है कि इस कार्यक्रम की मदद से देश के 98 फीसदी घरों में एलपीजी सिलेंडर उपलब्ध कराया जा चुका है। इस योजना को स्त्री सशक्तिकरण के मद्देनजर चलाए जा रहे सामाजिक आंदोलन के तौर पर भी प्रचारित किया जाता रहा है। सरकारी दावे के अनुसार इस योजना की वजह से महिलाओं को धुआं-रहित जीवन नसीब हुआ है और वे स्वस्थ जीवन-शैली अपनाने में सक्षम हुईं हैं। इससे महिलाओं का समय बचता है और वे उस समय को अन्य कामों में लगा अपनी आमदनी में इजाफा कर पा रही हैं।
लेकिन हाल में आए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के नए आंकड़े कुछ और ही बयान करते हैं। इन आंकड़ों के अनुसार इस तमाम जद्दोजहद के बावजूद भी प्रत्येक राज्य में स्वच्छ ईंधन के इस्तेमाल में मात्र 20 फीसदी के बढ़ोत्तरी हुई है। इस सर्वेक्षण के प्रथम चरण में सरकार ने 22 राज्यों के आंकड़े जारी किये हैं जिससे पता चलता है कि रसोई में स्वच्छ ईंधन के इस्तेमाल में मामूली इजाफा हुआ है।
उदाहरणस्वरूप बिहार को ही ले लीजिए। सरकार के तमाम दावों के बावजूद इस राज्य में अभी भी महज 37.8 फीसदी घरों में ही भोजन पकाने के लिए साफ ईंधन का इस्तेमाल किया जाता है। इसके पूर्व के एनएफएचएस (IV) सर्वेक्षण के अनुसार 2015-16 में इस राज्य में 17 फीसदी के करीब घरों में साफ ईंधन का इस्तेमाल होता था। अन्य राज्यों की भी स्थिति कुछ ऐसी ही है और अधिकतर राज्यों में पंद्रह से बीस फीसदी का ही इजाफा हुआ है।
स्वच्छ या साफ ईंधन से तात्पर्य उस ईंधन से है जिससे घरों में धुआं नहीं फैलता।
स्वच्छ ईंधन के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने के लिए प्रधानमंत्री उज्जवला योजना की शुरुआत उत्तर प्रदेश के बलिया जिले से 2016 में की गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद कुछ महिलाओं को एलपीजी कनेक्शन उपलब्ध कराकर इस योजना की शुरुआत की। शुरुआती दिनों में इस योजना का उद्देश्य गरीबी रेखा से नीचे आने वाले पांच करोड़ परिवारों को एलपीजी कनेक्शन देना था। योजना की सफलता देखकर सरकार ने इस लक्ष्य को बढ़ाकर आठ करोड़ कर दिया जिसे हासिल करने के लिए दिसंबर 2020 का लक्ष्य रखा गया। लेकिन सरकार ने इसे सितंबर 2019 में ही हासिल कर लिया।
सरकारी आंकड़े ही खोल रहे हैं उज्जवला योजना की पोल
इस योजना की शुरुआत से ही लोग सरकार को सचेत करते रहे हैं कि जितनी ताकत से एलपीजी सिलेंडर को वितरित करने की कोशिश की जा रही है, जरूरी नहीं कि लोग उसी उत्साह में इसका इस्तेमाल भी कर रहे हों। पर सरकार ने कभी भी इस बात को स्वीकार नहीं किया और लेकिन विपरीत दावा करती रही है कि लोग इस सिलेंडर का बहुत फायदा उठा रहे हैं।
जैसे केन्द्रीय पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने 14 सितंबर को लोकसभा में दिए लिखित जवाब में बताया कि इस योजना का हरेक लाभार्थी औसतन 3.1 सिलेंडर भराया है। यह आंकड़ा 2020 के परिप्रेक्ष्य में दिया गया था। लोकसभा के एक और सांसद एम के राघवन के यह पूछने पर कि क्या इस योजना के अंतर्गत दिए गए सिलेंडर का लोग कम इस्तेमाल करते हैं, के जवाब में केन्द्रीय मंत्री ने ये आंकड़े प्रस्तुत किये।
मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए मद्रास स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर के एस कवि कुमार कहते हैं कि ये आंकड़े आपूर्तिकर्ताओं की तरफ से आते हैं। देश में कई कंपनियां एलपीजी के व्यवसाय में हैं। जैसे इंडेन, भारत गैस इत्यादि और इन्हीं कंपनियों को इस योजना को लागू करने की जिम्मेदारी दी गयी थी। कवि कुमार कहते हैं कि सरकार जो आंकड़े दे रही है वे ग्राहकों के तरफ से या उपभोगकर्ता की तरफ से नहीं आए हैं। इसलिए पूरे परिदृश्य को समझने के लिहाज से ये प्रासंगिक नहीं हैं।
कुमार कहते हैं कि वैसे तो स्वास्थ्य सर्वेक्षण के सैम्पल अन्य आंकड़ों से अलग होते हैं लेकिन मौजूदा आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि घर में सिलेंडर उपलब्ध कराना एक बात होती है और लोगों के द्वारा इसे इस्तेमाल करना दूसरी बात। बहुत संभावना है कि लोगों ने सरकारी योजना के तहत सिलेंडर ले लिया हो पर वे इसका उपयोग नहीं कर पा रहे।
ऊर्जा क्षेत्र में काम करने वाली पूणे स्थित संस्था प्रयास से जुड़े विशेषज्ञ अशोक श्रीनिवास कहते हैं कि इस ताजा आंकड़े से भी यही साबित हो रहा है कि लोगों को एलपीजी सिलेंडर दिए तो गए पर लोग इसका इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। यह बात पहले भी कही जाती रही है पर सरकार का दावा कुछ अलग ही रहा है। अब सरकारी आंकड़े खुद इसे स्पष्ट कर रहे हैं।
एनएफएचएस के पहले भी एक रिपोर्ट में इसका खुलासा हो चुका है। नवंबर 2019 में आए राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (एनएसओ) के 76वें सर्वेक्षण में भी इसका खुलासा हुआ। इस सर्वेक्षण के मुताबिक महज 61 फीसदी घरों में ही भोजन पकाने के लिए एलपीजी का प्रयोग होता है। इसके मुताबिक देश के ग्रामीण क्षेत्र के पचास फीसदी घरों में अभी भी जलावन के तौर पर लकड़ी, ऊपले, खर-पतवार इत्यादि का इस्तेमाल किया जाता है।
कुछ विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि कई घरों में लोग एलपीजी सिलेंडर का इस्तेमाल तो करते हैं पर यह उनके भोजन पकाने का मुख्य ईंधन नहीं है। ऐसे घरों के रसोईघर में दोनों तरह के चूल्हे मौजूद रहते हैं। एलपीजी से जुड़ा चूल्हा और लकड़ी के जलावन का चूल्हा।
एलपीजी सिलेंडर के इस्तेमाल की मुश्किलें
देश में ऐसे घर बड़ी संख्या में हैं जहां बड़ी आसानी से जलावन मिल जाता है। लगभग मुफ़्त में। लोग परंपरागत तौर पर आस-पास की चुनी हुई लकड़ी या गोबर से बने ऊपले का इस्तेमाल करते रहे हैं और इसके लिए उन्हें बहुत कीमत भी नहीं चुकानी पड़ती।
दूसरा, वर्तमान सरकार ने सब्सिडी देकर सस्ते दरों पर सिलेंडर देना भी बंद कर दिया। अब लोग पहले सिलेंडर खरीदते हैं और सरकार बाद में लोगों के खाते में सब्सिडी का पैसा उपलब्ध कराती है। गरीब परिवारों के लिए पूरे दाम पर सिलेंडर भरवाना बड़ी चुनौती है, कहते हैं कवि कुमार।
एलपीजी सिलेंडर के प्रयोग को प्रोत्साहन कैसे दिया जाए इस पर अर्थशास्त्री कुमार कहते हैं कि गरीबों के लिए पहले पैसा देना और बाद में सरकार से राहत मिलने का कोई खास महत्व नहीं है। अन्य तरीकों पर विचार करना होगा। सरकार आखिरकार सब्सिडी का आर्थिक बोझ तो उठा ही रही है। बेहतर हो कि इसे पहले ही खर्च किया जाए ताकि गरीब लोगों पर स्वच्छ ईंधन का आर्थिक बोझ कम पड़े।
जहां तक मुफ़्त ईंधन मिल जाने का सवाल है तो सरकार को लोगों को समझाना होगा कि यह उनके स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। स्वच्छ ईंधन के फायदे को बताने के लिए सरकार को बड़े स्तर पर अभियान चलाने की जरूरत है, कुमार कहते हैं।
क्या है वास्तविक उद्देश्य और इसे पाने का बेहतर तरीका?
सरकार चाहती है कि लोग अधिक से अधिक स्वच्छ ईंधन का इस्तेमाल करें ताकि धुएं से होनी वाली बीमारियां कम हों। इस उद्देश्य को पाने के लिए पिछली सरकारों ने कई योजनाएं बनाईं। जैसे स्वच्छ चूल्हे को प्रोत्साहित करना, बायोगैस को बढ़ावा देना इत्यादि। लेकिन 2016 के बाद से वर्तमान सरकार का पूरा जोर सभी घरों में एलपीजी सिलेंडर उपलब्ध करा देने का रहा है। एलपीजी के अतिरिक्त अन्य स्वच्छ ईंधन के स्रोतों को ठंढे बस्ते में डाल दिया गया।
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कवि कुमार कहते हैं, “मैं सिर्फ एलपीजी ईंधन को बढ़ावा देने के पक्ष में नहीं हूं। सारे विकल्प को मिलाकर समस्या का समाधान ढूंढना होगा। याद रहे कि मुख्य उद्देश्य घरों में होने वाले प्रदूषण को कम करना है। इसके लिए एलपीजी के साथ अन्य विकल्पों को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए।”
सनद रहे कि ग्रामीण क्षेत्र में रसोईघर बहुत अलग तरीके से बना होता है। अधिकतर घरों में रसोई और बैठने-सोने के कमरे आपस में जुड़े होते हैं। कमरों से हवा निकलने की पर्याप्त सुविधा नहीं होती। इन सब को ध्यान में रखकर योजना बनानी होगी।
“इस योजना के पक्ष में बोलने वाले कई विशेषज्ञ बताते हैं कि इसके तहत घरों में होने वाले प्रदूषण को अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, लेकिन सुलझाने की कोशिश की जा रही है। पर मेरा मानना है कि अगर हम सीधे तौर पर वास्तविक चुनौती का सामना करें तो बड़ी सफलता हासिल कर सकते हैं। इसलिए घरों में होने वाले प्रदूषण पर सीधा हमला बोलने की जरूरत है,” कवि कुमार समझाते हैं।
बैनर तस्वीर- यह तस्वीर पन्ना जिले के आदिवासी गांव मानस सागर की है। आंकड़ों के अनुसार प्रत्येक राज्य में स्वच्छ ईंधन के इस्तेमाल में मात्र 15-20 फीसदी की ही बढ़ोत्तरी हुई है। यानी एक बड़ी आबादी साफ ईंधन का इस्तेमाल नहीं कर रही है। फोटो- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे-हिन्दी