- वैसे तो भारत के कई हिस्सों में यह भौंकने वाला हिरण पाया जाता है पर इसके बारे में बहुत कम जानकारी मौजूद है। इसकी गिनती विश्व में पाए जाने वाले कुछेक आदिम जानवरों में होती है।
- हिरण की इस प्रजाति को अंग्रेजी में इंडियन मुंत्जेक कहा जाता है और स्थानीय भाषा में काकड़। एक खास तरह से भौंकने की वजह से इसे भौंकने वाला हिरण भी कहते हैं।
- वैज्ञानिक काकड़ की शारीरिक संरचना से हैरान हैं। क्योंकि इनके गुणसुत्र की संख्या काफी कम है। मादा काकड़ में छह और नर में मात्र सात गुणसूत्र पाए जाते हैं। गुणसूत्र का संबंध शरीर की आनुवंशिक संरचना या डीएनए से है।
- कुछ समय पहले तक यह माना जाता था कि काकड़ की एक ही प्रजाति पूरे एशिया में मिलती है। हालांकि, अब मलेशिया और सुंदा द्वीप पर मिले काकड़ में गुणसूत्रों की संख्या को देखने से पता चलता है कि इनकी कई प्रजातियां मौजूद हैं।
घने जंगलों की ओर से कभी तेज और लगातार कई घंटों तक भौंकने की आवाज आए तो जरूरी नहीं कि वह आवाज किसी कुत्ते की ही हो। हो सकता है कि कोई हिरण लगातार भौंक रहा हो।
जी हां, यह सही है! भारत के जंगलों में हिरण की एक ऐसी प्रजाति पाई जाती है जो कुत्ते की तरह लगातार भौंक सकती है।
भारत में कई प्रजाति के हिरण पाए जाते हैं। इनमें इंडियन मुंत्जेक या भौंकने वाले हिरण भी शामिल है। यह काफी अनोखा होता है। इसे भारत के लगभग हर जंगल में देखा जा सकता है। इनका भौंकना कुत्ते से मिलता-जुलता है। शांतिप्रिय और एकांत पसंद करने वाले ये हिरण जब भौंकते हैं तो आवाज दूर-दूर तक पहुंचती है। स्थानीय भाषा में इसे काकड़ भी कहते हैं।
जंगली कुत्ते, बाघ, तेंदुए जैसे मांसाहारी जानवरों का यह पसंदीदा शिकार है। इसको लेकर वैज्ञानिक शोध कम ही हुए हैं इसलिए इसके शारीरिक बनावट, आदतों से जुड़ी कम ही जानकारी सामने आ पायी है। अब तक तो यह भी पता नहीं चला है कि भारत में अलग-अलग जंगलों में रहने वाले काकड़ एक ही तरह के होते हैं या उनमें भी कोई अंतर होता है।
हाल के वर्षों में इस जीव पर कुछ शोध हुए हैं जिससे कुछ जानकारियां सामने आई है। इन अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि काकड़ शर्मीले स्वभाव के होते हैं और खतरे को भांपकर भौंकने लगते हैं।
इंटरनेशनल यूनियन ऑफ कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने काकड़ की 13 प्रजातियों की सूची बनाई है। इसके अनुसार भारत में पाए जाने वाले लाल रंग के काकड़ (Muntiacus muntjac) यहां के अलावा पाकिस्तान, बंगलादेश, दक्षिणी चीन, वियतनाम, लाओस, थाईलैंड, मलेशिया, बोर्नियो और सुमात्रा जैसे द्वीप पर भी देखे जाते हैं।
विद्वानों की राय है कि भारत में तीन तरह के काकड़ पाए जाते हैं।
शोधकर्ता मानते हैं कि दुनिया भर में पाए जाने वाले लाल काकड़ की आंतरिक बनावट आपस में मेल नहीं खाती।
स्थान के हिसाब से खुद को ढालते गए काकड़
काकड़ के बारे में शोधकर्ताओं का मत है कि उनकी प्रजाति में अंतर वहां के परिवेश से आया होगा। जैसे पहाड़ी इलाके में रहने वाले काकड़ की बनावट वहां के माहौल के मुताबिक बदलती गई होगी। इसी तरह सर्द इलाके के काकड़ अलग हो गए। हजारों वर्षों में यह बदलाव इतना अधिक हो गया कि अब एक काकड़ की प्रजाति दूसरे काकड़ से भिन्न हो गई। हालांकि, एक ही प्रजाति के काकड़ भिन्न-भिन्न चुनौतियों से लैस इलाकों में रहने में सक्षम हैं। जैसे लाल काकड़ वर्षावन से लेकर सूखे जंगलों में भी रहने में सक्षम है।
मुश्किल है दो प्रजातियों के बीच का भेद जानना
काकड़ की दो अलग-अलग प्रजातियां दिखने में एक जैसी हो सकती हैं, लेकिन जब इनके शरीर की भीतरी बनावट देखी जाती है तो पता चलता है कि यह एक दूसरे से भिन्न हैं। यह अंतर होता है गुणसूत्र की संख्या का। जीव का शरीर कोशिकाओं से बना होता है और इन कोशिकाओं में गुणसूत्र या क्रोमोज़ोम्स होते हैं।
काकड़ की भिन्न-भिन्न प्रजातियों के गुणसूत्र में काफी अंतर होता है। जैसे चीन के काकड़ में 46 गुणसूत्र होते हैं, वहीं काले काकड़ में महज 13 गुणसूत्र। भारत में रहने वाले मादा काकड़ में मात्र छह गुणसूत्र और नर में सात गुणसूत्र होते हैं। यह संख्या किसी स्तनपायी जीव में पाए जाने वाले गुणसूत्रों की संख्या में सबसे कम है।
मनुष्य में इनकी संख्या 46, मेढक में 26, मक्खी में 12, कुत्तों में 78, बिल्ली में 38, हाइड्रा में 32, ड्रोसोफिला मक्खी में आठ होती है।
काकड़ पर और अधिक शोध की जरूरत
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि भारत में काकड़ की तीन या कम से कम दो प्रजाति पायी जाती है। यह अंतर उनके आकार और रंग में भी देखा जा सकता है। एक अध्ययन के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) ने 2014 में लाल काकड़ की दो प्रजातियों को अलग-अलग नाम दिए। इसकी एक प्रजाति उत्तरी लाल काकड़ दक्षिणी एशिया, म्यांमार, वियतनाम, चीन और लाओस में पायी जाती है। लाल काकड़ की दूसरी प्रजाति दक्षिणी पूर्वी एशिया में पायी जाती है जिसमें मलेशिया और सुन्दा द्वीप जैसे क्षेत्र शामिल हैं।
वैज्ञानिक इन प्रजातियों के ऊपर संकट को देखते हुए और अधिक शोध करने की सलाह देते हैं।
एक शोध में वैज्ञानिकों ने पाया है कि मध्य भारत के काकड़ (Muntiacus aureus), पश्चिमी घाट और श्रीलंका में पाए जाने वाले काकड़ (Muntiacus malabaricus) से भिन्न हैं। उन्होंने शोध में पाया कि इनकी त्वचा की रंगत भी अलग-अलग होती है।
भारत के पूर्वी हिस्से में रहने वाले काकड़ (Muntiacus vaginalis) का रंग गहरा लाल होता है। उनके पैर गहरे भूरे रंग के होते हैं जो कि 12 सेंटीमीटर तक लंबे हो सकते हैं। वहीं, पश्चिमी घाट के जंगलों में पाए जाने वाले काकड़ (M. malabaricus) का पैर नौ से 12 सेंटीमीटर बड़ा हो सकता है। ये अपेक्षाकृत अधिक पीले रंग के होते हैं और 9.5 सेमी से छोटे होते हैं। मध्य भारत के काकड़ के पैर 10 सेंटीमीटर से छोटे और रंग में सभी काकड़ से अधिक पीलापन लिए होते हैं।
इस शोध से जुड़े वैज्ञानिक इस बात पर एकमत हैं कि भारत के अलग-अलग जंगलों में पाए जाने वाले काकड़ की प्रजाति भिन्न-भिन्न है।
क्या कहता है काकड़ के डीएनए का विश्लेषण
मार्टिन नामक जीवविज्ञानी ने एशिया और यूरोप के कई देशों की खाक छानकर काकड़ के विभिन्न प्रजातियों के डीएनए हासिल किए। एशिया के अजायबघरों में रखे काकड़ के मस्तक और शरीर के दूसरे अंगों से उन्होंने डीएनए संबंधी आंकड़ा जुटाया। इसके अलावा उन्हें कई डीएनए सैंपल वियतनाम के शिकारियों से भी मिले। इस शोध के लिए दक्षिण एशिया से नौ सैंपल लिए गए। सैम्पल लिए जाने की जगहों में हिमाचल प्रदेश, श्रीलंका और नेपाल शामिल है।
इस शोध का परिणाम कहता है कि काकड़ की सबसे पुरानी प्रजाति श्रीलंका और पश्चिमी घाट में पायी जाती है। इस शोध से पता चलता है कि दिखने में भले ही वह एक जैसे हों लेकिन इस जीव के इन प्रजातियों में काफी भिन्नता है।
भारत को लेकर यह शोध इस नतीजे पर पहुंचता है कि पश्चिमी घाट के वर्षावनों में पाए जाने वाले काकड़ सिर्फ वहां और पूर्वोत्तर के वर्षावनों में मिलते हैं।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि किसी समय भारत के सभी वनों में इनकी उपस्थिति रही होगी, लेकिन अधिक सर्दी की वजह से मध्य भारत के वन सूखे हो गए और काकड़ सिर्फ पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत के वर्षा वनों तक ही सिमटकर रह गए।
मार्टिन का मानना है कि मौसम में परिवर्तनों को झेलते हुए कुछ काकड़ सूखे वनों में भी रहने लगे और यह समय इतना लंबा चला कि उनके भीतर अनुवांशिक रूप से भी परिवर्तन आया।
भारत में काकड़ की प्रजातियों में भिन्नता को लेकर मार्टिन मानती हैं कि इस नतीजे पर पहुंचने के लिए भारत के अलग-अलग वनों से काकड़ के डीएनए सैंपल की जरूरत होती।
मार्टिन के सुझाव पर सहमति जताते हुए नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंस (एनसीबीएस), बैंगलुरु के उमा रामाकृष्णन कहती हैं कि उपरोक्त शोध में देश के दूसरे जंगलों के सैंपल भी होते तो नतीजे और प्रभावी हो सकते थे।
मार्टिन उम्मीद जताती हैं कि आने वाले समय में इस तरह के शोध भी होंगे जिससे काकड़ को लेकर और जानकारियां सामने आ सकेंगी।
रामाकृष्णन सैंपल इकट्ठा करने का एक आसान तरीका सुझाती हैं। उनके मुताबिक देश के अलग-अलग हिस्से में 141 चिड़ियाघर हैं जिनमें से 63 में काकड़ पाए जाते हैं। यहां से सैंपल आसानी से मिल सकता है, जिससे देशभर में मौजूद कांकड़ की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है।
बैनर तस्वीरः हिमाचल में काकड़। वैज्ञानिक मानते हैं कि भारत के अलग-अलग जंगलों में पाए जाने वाले काकड़ की प्रजाति भिन्न-भिन्न है। तस्वीर– ताहिर हसनी/फ्लिकर