- उत्तराखंड के हिमालयी इलाके के शिवालिक रेंज में रहने वाले पारंपरिक वनवासी समुदाय ने 10,000 हेक्टेयर में दशकों से जंगल लगाने के साथ-साथ उनकी रक्षा भी की है।
- पर वन अधिकार अधिनियम, 2006 के ठीक तरीके से लागू न होने की वजह से ये समुदाय अपने अधिकारों से वंचित हो रहे हैं।
- कुछ जानकार मानते हैं कि जंगल से आदिवासियों और वनवासियों को निकाला गया तो वन्यजीव और इंसानों के बीच टकराव बढ़ सकता है।
अप्रैल की अलसाई दोपहरी में उत्तराखंड के हरिद्वार के हरिपुर टोंगिया गांव की महिला पाल्लो देवी (52) बैठी जूट की रस्सियां बुन रही थीं। बदन पर गुलाबी सलवार-कुर्ती और चेहरे पर मौजूद झुर्रियों से उनके जीवन का संघर्ष और उनका अनुभव खुद-ब-खुद दर्ज हो रहा था।
“हम टोंगिया कास्तकार हैं,” पाल्लो देवी की आवाज से माहौल उदास हो जा रहा था। “हमने ही शिवालिक जंगल को गुलजार किया था और आज हमें हमारे ही घर में अतिक्रमणकारी की तरह देखा जा रहा है,” उन्होंने अपना दुख बयान किया।
उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश में टोंगिया को वनवासी समुदाय के तौर पर जाना जाता है। शिवालिक पहाड़ी के बाहरी इलाके में जंगल लगाने का श्रेय भी इसी समुदाय को जाता है। एक अनुमान के मुताबिक शिवालिक में अंग्रेजों के समय इन्होंने 10 हजार हेक्टेयर जमीन पर जंगल लगाया और उसे बचाकर रखा।
इस समुदाय ने कृषि-वानिकी या एग्रोफॉरेस्ट्री को वन संरक्षण कानून,1980 के आने से पहले ही अपना लिया था। यह कानून समुदायों को जंगल के प्रबंधन से रोकता है।
“अब जंगल से बाहर का रास्ता दिखाने और घरों को तोड़ देने जैसी धमकियां हमारे लिए आम हो चली है। हमें मूलभूत सुविधाएं और सरकार के कल्याणकारी योजनाओं का लाभ लेने में कई मुश्किलें आती है,” पाल्लो देवी की बेटी संगीता का कहना है। संगीता की एक और मुश्किल है- अपनी बेटी का आधार कार्ड बनवाने की जद्दोजहद। बेटी की अकेली अभिभावक होने की वजह से इस काम में और दिक्कतें आ रहीं हैं।
टोंगिया के अलावा हिमालय क्षेत्र में रहने वाले वन गुर्जर समुदाय के लोग इन्हीं मुश्किलों से दो-चार हो रहे हैं। अपने मवेशियों के साथ इस समुदाय के लोग हिमालय के ऊपरी हिस्से से शिवालिक के बीच आते-जाते रहते हैं।
समुदाय के पास कोई स्थायी ठिकाना नहीं है और ये अस्थायी मिट्टी के घरों में रहते हैं। एक बस्ती में चार से पांच मिट्टी के घर होते हैं।
“हमारी रोजी-रोटी मवेशियों पर निर्भर है। दुर्भाग्य से उन्हें अब चराने के लिए जंगल नहीं ले जा सकते,” सद्दाम कहते हैं। वन गुर्जर समुदाय के युवा सदस्य सद्दाम के पास 15 से 16 भैंसे हैं जिनको वह बुग्गावाला गांव के बाहर चराने ले जाते हैं।
इन दोनों समुदाय की समस्या की जड़ में है अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारम्परिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006, जिसे बोलचाल की भाषा में वन अधिकार अधिनियम भी कहते हैं। इस कानून ने जंगल के प्रबंधन में समाज और ग्राम सभा के योगदान और जंगल से मिलने वाली उपज पर स्थानीय लोगों के अधिकार को मान्यता देती है। हालांकि, लागू होने के 14 साल बाद भी इस कानून का प्रभाव जमीन पर नहीं दिखता है। वनवासियों के वन अधिकार के दावों को बिना उचित कारण के निरस्त कर दिया जाता है।
इन समुदाय ने वन अधिकार अधिनियम के तहत वन पर मिलने वाले अधिकार के लिए जरूरी दस्तावेजों को संभालकर रखना शुरू किया है। इन दस्तावेजों को सुरक्षित रखना कायदे से वन विभाग की जिम्मेदारी थी।
भारी कागजी कार्रवाई और शक्ति के संघर्ष की वजह से इस कानून को प्रभावी ठंग से लागू नहीं किया जा सका।
“वन अधिकार अधिनियम ने ग्राम सभा को दावों के सत्यापन के अधिकार दिए हैं। किसी व्यक्ति के मौखिक और शारीरिक साक्ष्य देखकर दावों का सत्यापन किया जा सकता है। इस तरह के अधिकार के साथ आम लोगों की शक्ति बढ़ती है, जो कि वन विभाग को नागवार गुजर रहा है। लोगों की शक्ति बढ़ने का मतलब वन विभाग की शक्ति में कमी। शायद यही वजह है कि वन विभाग इस कानून क लागू होने से खुश नहीं है,” मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में ऑल इंडिया फॉरेस्ट वर्किंग पीपल (एआईयुएफडब्ल्यूपी) के महासचिव अशोक चौधरी ने ये बातें कहीं।
टोंगिया को विरासत में मिली है जंगल बचाने की सूझबूझ
समुदाय से जुड़े लोगों का कहना है कि एक तरफ सरकार जंगल लगाने को बढ़ावा दे रही है तो दूसरी तरफ जंगल लगाने और संवर्धन करने के अनुभवी टोंगिया समुदाय की अनदेखी कर रही है। पारंपरिक तरीकों से जंगल की रक्षा करने में इस समुदाय को महारत हासिल है।
“हमारे समुदाय में वन्यजीव को ध्यान में रखकर जंगल लगाया जाता है। हम बांस के पेड़ लगाते हैं ताकि जंगली हाथियों को खाना मिल सके, लेकिन सरकार के कैंपा जैसे जंगल लगाने वाले कार्यक्रम के तहत आर्थिक रूप से अधिक लाभ देने वाले पेड़ लगाने का चलन है। ऐसे पेड़ कुदरत के लिए फायदेमंद नहीं होते,” हरिपुर गांव के निवासी और टोंगिया समाज से जुड़े कार्यकर्ता मुन्नीलाल का कहना है।
हालांकि, वन विभाग जंगल में आदिवासियों के पास मूलभूत सुविधाएं न होने के सवाल का जवाब वन्यजीव संरक्षण अधिनियिम 1972 का हवाला देकर देता है, जिसमें लिखा है कि संरक्षित जंगल में इंसानी गतिविधियां नहीं हो सकती हैं। हालांकि, वन अधिकार अधिनियम भी जंगल में पारंपरिक रूप से रहते आए समुदाय का जंगल के पारिस्थितिकी तंत्र के महत्व को मानता है।
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“वनों में निवास करने वाले अनुसुचित जनजाति और दूसरे वनवासी जंगल का अभिन्न हिस्सा हैं और वनों के अस्तित्व के लिए जरूरी हैं,” अधिनियम की प्रस्तावना कहती है।
अगर इन समुदाय को वन से बाहर किया गया तो वन्यजीव और इंसानों के बीच टकराव बढ़ेगा। “चारे की कमी की वजह से जंगली जीव जंगल से बाहर निकल आते हैं और फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। इस नुकसान की भारपाई के लिए किसानों को काफी कम या न के बराबर मुआवजा मिलता है,” बुग्गावाला गांव के निवासी किसान प्रदीप सैनी कहते हैं।
वन गुर्जर का वनों के साथ सहजीवन और वनाधिकार
वर्ष 1994 में इंडियन पीपल ट्रिब्यूनल ने राजाजी नेशनल पार्क में वन गुज्जरों को वहां से हटाए जाने के जवाब में एक जांच की थी।
ट्रिब्यूनल के जूरी सदस्य जस्टिस पीएस पोती ने अपने रिपोर्ट में दर्ज किया कि वन में रहने वाले लोग जंगल की पारिस्थितिकी को उतना ही नुकसान पहुंचा सकते हैं जितना कि कोई जंगली जीव। पेड़-पौधे और इंसान एक दूसरे के ऊपर निर्भर हैं।
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की वजह से राजाजी राष्ट्रीय उद्यान की नदियां गर्मियों में सूख जाती हैं जिससे जंगली जीवों के लिए पानी की कमी हो जाती है। “यहां हमारी मौजूदगी जंगली जीव के लिए पानी सुनिश्चित करती है। हमारे पास पारंपरिक जल संरक्षण की तकनीक है जिसे उग्गल या गोजरी कहते हैं। इसमें इकट्ठा पानी हमारे घरेलू उपयोग के साथ जंगली जीवों के काम भी आता है,” वन गुर्जर ट्राइबल युवा संगठन के अध्यक्ष आमीर हमजा (26) कहते हैं।
“हमारे आने जाने की वजह से जंगल में रास्ता बन जाता है, जिसकी वजह से जंगल की आग एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक नहीं पहुंचती है। गर्मियों में आग से बचने के लिए हमारे लोग जंगल पर नजर भी बनाए रखते हैं,” हमजा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
कथनी और करनी में फर्क
उत्तराखंड में केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना चार धाम सड़क परियोजना के लिए वन विभाग ने 56,000 पेड़ काटने की अमुनति दी है। यह पेड़ उत्तराखंड के पारिस्थितिक रूप से बेहद संवेदनशील स्थानों पर काटे जाएंगे। लेकिन दूसरी तरफ पाल्लो को वन विभाग ने एक ऐसे पेड़ काटने के इल्जाम में जंगल से निकल जाने को कहा जो कभी भी उसकी झोपड़ी पर गिर सकता था। “जंगल के बाहर रहने वाले लोगों का जंगल पर हमसे अधिक अधिकार है,” पाल्लो कहती हैं।
इस बात पर उत्तराखंड वन विभाग के मुख्य संरक्षक, वन मनोज चंद्रन असहमति जताते हुए कहते हैं, “हम समुदाय के अधिकार और उनके वन्यजीव संरक्षण में योगदान को मानते हैं।”
मनोज चन्द्रन आगे कहते हैं, “कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने वन अधिकार का दावा किया लेकिन वे रोजगार के लिए जंगल पर निर्भर नहीं है। हमेशा भूमाफिया या बाहरी तत्वों का जंगल पर कब्जा जमाने का खतरा रहता है। सत्यापन के बाद वास्तविक दावों को मान्यता मिली है, हमने कोर एरिया में आने वाले गांवों के पुनर्वास को भी प्राथमिकता दिया है।”
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एआईयुएफडब्ल्यूपी से जुड़े चौधरी का मानना है कि वन विभाग के जमीनी कर्मचारी इन समुदाय के लोगों पर निर्भर हैं। लेकिन उनके साथ राजनीति के चक्कर में फंसकर अच्छे रिश्ते नहीं निभा पाते। “जंगल में कोई बाजार नहीं है, यहां तक की पीने का पानी तक नहीं। वन विभाग के जमीनी कर्मचारी अपनी जरूरतों के लिए इन्हीं समुदाय पर निर्भर हैं,” उन्होंने कहा।
अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए शिवालिक पहाड़ियों के वनवासी कानूनी तौर पर सक्षम नहीं हैं।
“हम अपने ठिकाने को बचाने के लिए संघर्ष करते रहेंगे, और यह तबतक चलेगा जबतक हमें अपने घर में ही अतिक्रमणकारी की तरह देखना बंद न हो,” मुन्नीलाल कहते हैं।
बैनर तस्वीरः रोजी-रोटी के लिए वन गुर्जर मवेशियों पर निर्भर है। वन विभाग की सख्ती की वजह से वे मवेशी चराने के लिए जंगल नहीं जा सकते। तस्वीर- निशांत सैनी