- उदयपुर को पर्यटन के केंद्र के तौर पर जाना जाता है। इस पर्यटन उद्योग में इस शहर के हजारों लोगों को रोजगार मिला हुआ है।
- अरावली पर्वत श्रृंखला से लगे इस शहर को झीलों की नगरी भी कहते हैं। अब शहर के झील अंधाधुंध विकास और वनों की कटाई से बुरी हालत में हैं।
- उदयपुर शहर के पर्यटन उद्योग में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है। पर्यटकों को लुभाने के लिए शहर के राजसी विरासत के बजाए इकोटूरिज्म को प्रोत्साहित करने से यहां की आबो-हवा को दुरुस्त किया जा सकता है।
राजस्थान का उदयपुर शहर सदियों से आकर्षण का केंद्र रहा है। अंग्रेज अधिकारियों से लेकर हॉलीवुड के सितारों तक को यह शहर अपनी तरफ आकर्षित करता रहा है। हालांकि, पिछले एक दशक में इस शहर में पर्यटकों के आगमन में काफी इजाफा हुआ है। जानकार मानते हैं कि प्री वेडिंग शूट, डेस्टिनेशन वेडिंग और ऑनलाइन बुकिंग और रहने की किफायती व्यवस्था की वजह से पर्यटक इधर काफी आकर्षित होने लगे हैं।
“उदयपुर शहर का हॉस्पिटेलिटी बाजार हजारों करोड़ रुपये का है। इस सेक्टर में कम से कम 10,000 लोगों को रोजगार मिला हुआ है। कारोबार होटल से लेकर रिसोर्ट, गेस्ट हाउस और होमस्टे तक फैला हुआ है,” होटल संस्थान दक्षिणी राजस्थान संस्था के सचिव राकेश चौधरी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
प्रथम दृष्ट्या तो यह एक बेहतरीन है। पर इसका एक पक्ष यह भी है कि बढ़ते पर्यटन से शहर के तालाब और आबो-हवा प्रभावित हो रही है।
वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह आसानी से कहा जा सकता है कि अगर शहर की अर्थव्यवस्था को सुचारु रूप से बनाये रखने के लिए पर्यटन उद्योग ही एक मात्र रास्ता है तो इसमें पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं को भी शामिल करना होगा।
इस शहर में सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में बने कई झील हैं जो एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इस वजह से उदयपुर को झीलों की नगरी का खिताब भी मिला है। ये झील न सिर्फ शहर की सुंदरता में चार चांद लगाते हैं बल्कि यहां के लोगों की प्यास भी बुझाते हैं।
इन झीलों के साथ-साथ शहर के आसपास की भौगोलिक स्थिति भी पर्यटकों के आकर्षण की वजह है। शहर तश्तरी के आकार के समतल भूमि पर बसा है और अरावली रेंज के पहाड़ों से घिरा हुआ है। यह पर्वत इसे थार रेगिस्तान से अलग करते हैं। इसीलिए, राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र के रेतीले, शुष्क परिदृश्य के विपरीत यह शहर हरी-भरी पहाड़ियों, घने जंगलों और हरे भरे मैदान से भरा हुआ है। झीलों, पहाड़ियों और ऐतिहासिक महलों और वास्तुकला के इस दुर्लभ संयोजन, उदयपुर को एक खास शहर बनाता है।
शहर की जनसंख्या 5.8 लाख है लेकिन इसके मुकाबले यहां आबादी से दोगुना से भी अधिक पर्यटक आते हैं। राजस्थान टूरिज्म बोर्ट के आधिकारिक आंकड़ों के मुकाबिक कोविड-19 से पहले यहां 2019 में 11,85,606 लोग आए थे। यहां भारतीय और वैश्विक होटलों की श्रृंखलाएं मौजूद हैं और कोविड महामारी के बावजूद कई नए होटल यहां खुल रहे हैं।
विकास की कीमतः खत्म होते तालाब और गायब हो रहे अरावली के पहाड़
अपने आर्थिक विकास के मॉडल की वजह से उदयपुर शहर बड़ी कीमत भी चुका रहा है। अब शहर की पुरानी सूरत खोती जा रही है। “लोग उदयपुर यहां की खूबसूरती देखने आते हैं, इसमें मानव निर्मित विरासत के अलावा यहां के तालाब, पहाड़, बगीचे और पक्षी अभयारण्य जैसी प्राकृतिक खूबसूरती भी उनके आकर्षण की वजह है। पिछले 10 वर्ष में अवैध कब्जों की वजह से यहां के तालाब 30 से 40 फीसदी तक कम हो गए हैं। पिछोला झील कभी 6.5 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ था जो अब 4.5 वर्ग किलोमीटर में सिमट कर रह गया है। फतेह सागर पहले 4.5 वर्ग किलोमीटर में फैला था जो अब महज 2.7 वर्ग किलोमीटर में बचा है। झीलों का कम होता आकार इसमें मौजूद पारिस्थितिकी के लिए हानिकारक है। ये झील प्रवासी पक्षियों और दुर्लभ जलीय जीवों का ठिकाना हैं,” झील संरक्षण समिति के सह सचिव अनिल मेहता कहते हैं। इनकी संस्था झीलों के कायाकल्प को लेकर काम करती है। अनिल मेहता विद्या भवन पॉलिटेक्निक के प्रिंसिपल हैं और इन्होंने उदयपुर के झीलों को संवारने और पानी की गुणवत्ता सुधारने के उद्देश्य से कई मुहीम का नेतृत्व किया है।
“झील में हर तरह का कचरा फेका जाता है जिसमें घरेलू कचरा, पॉलीथिन बैग, मेडिकल कचरा, पूजा सामग्री, ईद के बाद भारी मात्रा में बचा हुआ मांस और औद्योगिक कचरा शामिल है। इस तरह झील प्रदूषित होते जा रहे हैं और इनका स्तर गिरता जा रहा है,” अभिवन स्कूल के प्रिंसिपल और शहर के एक सम्माननीय नागरिक के बतौर कौशल रावल अपनी शिकायत दर्ज करते हैं।
झील का प्रदूषण न सिर्फ पानी की गुणवत्ता खराब कर रहा है बल्कि लोगों की सेहत पर भी असर डाल रहा है। प्रदूषण की वजह से झील की कई मछलियां विलुप्त हो गईं। कभी इस झील में महासीर मछलियां मिलती थी जो कि प्रदूषण मुक्त पानी में ही पाई जाती हैं। पर्यटन की वजह से पानी में अब डीजल का धुआं मिला हुआ होता है।
झीलों के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए पर्यटन गतिविधियां एक अभिशाप बन गई हैं। “अब शहर के हर झील पर मोटरबोट और वाटर स्कूटर चलते हैं। इस वजह से झीलों की पारिस्थितिकी बिगड़ चुकी है। पहले उदयपुर के झीलों में क्षेत्रीय और प्रवासी पक्षी आते थे। अब नहीं आते। क्योंकि उन्हें शांत वातावरण चाहिए जो अब यहां मौजूद नहीं है। कम पक्षियों का मतलब कम जलीय जीवन होता है क्योंकि वे पोषक तत्वों और भोजन के लिए एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं, ” राजस्थान के उदयपुर क्षेत्र के क्षेत्रीय वन संरक्षण आर.के. जैन कहते हैं।
पर्यटन उद्योग की मार सिर्फ झील ही नहीं बल्कि अरावली के पर्वत भी झेल रहे हैं। अरावली पर्वत श्रृंखला राजस्थान के बड़े भाग को मरुस्थल बनने से रोकती है, लेकिन विकास के नाम पर इसे भी समतल किया जा रहा है। यहां होटल और इमारतें बनाई जा रही हैं।
दिल्ली से चार साल पहले उदयपुर रहने आईं पेशे से मॉडल कल्पना शर्मा यहां के अनुभव के बारे में बताती हैं। “मैं पहली बार 2012 में उदयपुर आई थी। तब के मुकाबले अब यह काफी अलग दिखने लगा है। पहले यहां हरियाली थी और कम बाजारीकरण दिखता था। अब पहाड़ों की जगह होटल और इमारतों ने ले लिया है,” वह कहती हैं।
उदयपुर शहर की त्रासदी, वनों की कटाई और पहाड़ों के समतल होने तक ही नहीं सीमित है। शर्मा ने बताया कि कभी उदयपुर से 40 किलोमीटर दूर स्थित रायता हिल्स इंसानी गतिविधियों से बचा हुआ था। दस वर्ष पहले यहां कोई बड़ी इमारत नहीं दिखती थी, बल्कि स्थानीय ग्रामीणों के घर हुआ करते थे। आज यहां कई होटल और गेस्ट हाउस बन गए हैं।
भौगोलिक और जलवायु परिवर्तन का बढ़ता प्रभाव
अरावली के नष्ट होने और झीलों के खत्म होने का असर यहां की जैव-विविधता और जलवायु पर हो रहा है। अरावली रेंज कभी सैकड़ों वन्यजीव, हजारों पेड़ों, झाड़ी और लताओं की प्रजातियों का केंद्र था। पहाड़ के पहाड़ बांस से पटे हुए थे। आज बांस के जंगल सिर्फ मंदिरों या वन विभाग की भूमि पर ही सिमटकर रह गए हैं।
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मानसून में अरावली रेंज बादलों को आमंत्रित करते हैं और सर्दी में सर्द हवाओं से बचाते हैं। पर्वत पानी रोककर इलाके को रेगिस्तान में बदलने से भी रोकते हैं। यहां से कई नदियां निकलती हैं जिससे मैदानी इलाकों को पानी मिलता है। अरावली की वजह से ही उदयपुर में साल भर खुशनुमा मौसम रहता है। लेकिन अब समय बदल रहा है।
उदयपुर के पर्यावरणविद् भुवनेश स्थानीय आदिवासी गांवों में जंगल लगाने संबंधित गतिविधियां चलाते हैं। कहते हैं, “भील आदिवासी पानी की कमी की वजह से खेती छोड़ रहे हैं। वे साल में एक ही फसल मक्का लेते थे। जलावायु बदलने से खेती का काम मुश्किल हो चला है और लोग मजदूरी का काम करने लगे हैं,” भुवनेश ने मोंगाबे हिन्दी को बताया।
उदयपुर की बड़ी झील। सज्जनगढ़ बायोलॉजिकल पार्क, बड़ी झील, पुरोहितों का तालाब जैसे स्थानों को नए पर्यटन स्थलों में शामिल किया जा सकता है। तस्वीर- अर्चना सिंह
क्या पर्यटन का तरीका बदल सकता है!
जानकार मानते हैं कि पर्यटन से यहां के पर्यावरण को भी बचाया जा सकता है। झील संरक्षण समिति के मेहता कहते हैं कि पर्यटन के तरीके बदलने से यह संभव हो सकेगा। मानव निर्मित ऐतिहासिक विरासत के अलावा पर्यटन को इको टूरिज्म के स्थल के तौर पर भी विकसित किया जाना चाहिए। उदयपुर में जैव-विविधता, वन्यजीव, घाट और मारवाड़ी खाने के जरिए पर्यटकों को लुभाया जा सकता है।
सरकार को स्थानीय लोगों के साथ मिलकर झील और अरावली पर्वत को बचाना चाहिए। मेहता ने मौजूदा समय में संरक्षण के कामों के बारे में बताते हुए कहा कि यहां पिछोला और फतेह सागर तालाब को नेशनल लेक कंजर्वेशन प्रोजेक्ट के तहत दुरुस्त किया गया है। वह कहते हैं कि प्रशासन का अधिक ध्यान तालाब के सौंदर्यीकरण पर है, बजाए कि इसकी जैवविविधता को संरक्षित करने के।
उदयपुर के चिरवा में वन भूमि को फूलों की घाटी के तौर पर विकसित किया गया है। तस्वीर- अर्चना सिंह
शहर में नागरिकों का समूह भी तालाब संरक्षण के काम में हाथ बंटा रहा है। यह समूह तालाब की सफाई करता है। इसमें डीजल बोट के बजाए बिजली चलित बोट का प्रयोग किया जा रहा है। राजस्थान पर्यटन विभाग भी नई टूरिज्म पॉलिसी 2020 के तहत ऐतिहासिक विरासत के साथ-साथ शहर को साहसिक खेल और मानसून में घूमने के ठिकाने के तौर पर प्रसिद्धि दिलाने की कोशिश कर रहा है।
वन और वन्यजीव संरक्षण के जानकार राहुल भटनागर कहते हैं कि बंसवारा, राजसमंद झील और कई कम प्रसिद्ध स्थानों को इको टूरिज्म स्थल के तौर पर विकसित किया जा सकता है। सज्जनगढ़ बायोलॉजिकल पार्क, बड़ी झील, पुरोहितों का तालाब जैसे स्थानों को नए पर्यटन स्थलों में शामिल किया जा सकता है।
जैन ने अपना अनुभव साझा करते हुए उदयपुर के चिरवा में वन भूमि को फूलों की घाटी के तौर पर विकसित करने का किस्सा सुनाया। “2017 से पहले तक 3.4 किलोमीटर का इलाका बंजर भूमि था। उदयपुर से नजदीक होने के बावजूद यहां लोग आने से डरते थे। 2017 में नगर वन उद्यान के तहत इसे इकोटूरिज्म सर्किट के तौर पर विकसित किया गया। यहां पेड़ लगाए गए और पार्क में पैदल मार्ग, जिपलाइन, बेंच जैसी सुविधाएं विकसित की गईं। स्थानीय लोगों का साथ लेकर यह काम किया गया। अब यह स्थान पर्यटकों का पसंदीदा स्थल है और जंगल भी बच रहा है,” वह कहते हैं।
भटनागर कहते हैं कि बगदाराह, दुधलेश्वर, बाघरी, भील बेरी, गोरम घाट, बस्सी अभयारण्य, सीता माता अभयारण्य, आरामपुरा और फुलवारी की नाल जैसे स्थानों को भी इकोटूरिज्म प्रोजेक्ट के तहत विकसित किया जा सकता है। मजबूत इरादे के साथ उदयपुर की तस्वीर बदली जा सकती है। इससे पर्यटन के साथ-साथ शहर की खूबसूरती और पर्यावरण भी बचा रहेगा।
बैनर तस्वीरः उदयपुर को झीलों का शहर कहा जाता है, लेकिन यहां के झील दिन-ब-दिन खत्म होते जा रहे हैं। तस्वीर- अर्चना सिंह