- गंगासागर से गंगोत्री तक पैदल यात्रा कर सिद्धार्थ अग्रवाल ने गंगा नदी को बेहतर समझने की कोशिश की। उनकी इस यात्रा पर बनी डॉक्यूमेंट्री ‘मूविंग अप्स्ट्रीम: गंगा’ इन दिनों चर्चा में है। इंटरनेशनल डॉक्यूमेंट्री एण्ड शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल ऑफ केरल, 2021 में इसका अफिशल सेलेक्शन हुआ है।
- इस डॉक्यूमेंट्री में यह स्पष्ट होता है कि आस-पास रहने वाले लोगों के लिए इस नदी का क्या महत्व है। नदी की खराब होती स्थिति के साथ कैसे लोगों का जीवन भी प्रभावित हो रहा है।
- अग्रवाल की इस यात्रा में नदी से होने वाला कटाव, राष्ट्रीय जलमार्ग, मछली की कमी और विस्थापन के मुद्दे को गहरे से समझने की कोशिश की गई है।
‘मिलना था इत्तिफ़ाक़ बिछड़ना नसीब था/ वो उतनी दूर हो गया जितना क़रीब था।’ अंजुम रहबर के इस शेर की मदद से उत्तराखंड का एक युवक यूं तो अपने कुनबे के विस्थापन और उससे जुड़ी त्रासदी को समझाना चाहता है पर सौ मिनट के इस डॉक्यूमेंट्री ‘मूविंग अप्स्ट्रीम: गंगा’ से गुजरने पर यह एहसास होता है कि गंगासागर से गंगोत्री तक की कहानी इन दो पंक्तियों में समाहित है।
आगे बढ़ने से पहले इस युवक की कहानी को समझते चलें। टिहरी बांध की वजह से इस शख्स का पूरा कुनबा विस्थापित हो गया है। जीने की जद्दोजहद में सारे रिश्तेदार-नातेदार देश के विभिन्न हिस्सों में चले गए। कोई संपर्क में है कोई नहीं है। वह युवक कहता है कि वह एक सुंदर सी दुनिया थी जिसको पूर्वजों ने धीरे-धीरे बनाया था। जो सबके दुख-सुख में काम आता है। करोड़ों रुपये से भी इस नुकसान की भरपाई नहीं हो सकती।
ऐसे ढेरों किस्से को दिखाती, गंगा को समझने की कोशिश पर बनी यह डॉक्यूमेंट्री ‘मूविंग अप्स्ट्रीम: गंगा’ 25 से 30 सितंबर के बीच आईडीएसएफएफके, केरल में दिखाई जानी थी। पर कोविड के बढ़ते मामले की वजह से फिलहाल के लिए स्थगित कर दिया गया है।
इसे सिद्धार्थ अग्रवाल के गंगासागर से गंगोत्री तक के पैदल यात्रा के अनुभव पर बनाया गया है। इस पुरी कोशिश को अग्रवाल, गंगा की एक ‘विजुअल इंक्वायरी’ करार देते हैं।
पेशे से इंजीनियर, सिद्धार्थ ने 6 जून 2016 को गंगासागर से अपनी पैदल यात्रा शुरू की। पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश होते हुए और उत्तराखंड पहुंचे और 3 अप्रैल 2017 को गंगोत्री में अपनी यात्रा पूरी की। दस महीने के कुल यात्रा में छः महीने का पैदल चलकर सिद्धार्थ ने कुल 3,000 किलोमीटर की तय की।
पैदल चलने के पीछे उनका उद्देश्य था कि गति धीमी कर नदी के किनारे बसे लोगों के साथ अधिक से अधिक समय गुजारें। और नदी को बेहतर तरीके से समझें। वैसे तो सिद्धार्थ का यह कहना है कि पूरी यात्रा और अनुभव को कुछेक शब्दों में बयान करना मुश्किल है पर डॉक्यूमेंट्री में यह बात स्पष्ट की गई है कि नदी को लेकर मुख्यधाधारा में जो बातचीत होती है वह मूलतः राजनीति है। उसी ‘राजनीति’ के आधार पर यह तय होता है कि नदी के साथ या नदी के लिए क्या किया जाए। लोगों से मिलकर लगा कि नदी एक परिभाषा में सीमित नहीं है, सिद्धार्थ अग्रवाल कहते हैं ।
इस डॉक्यूमेंट्री के निर्देशक श्रीधर सुधीर कहते हैं कि यह कोई एक नदी की कहानी नहीं है। देश की सारी नदियों के साथ कमोबेश यही हो रहा है। सारी नदियों में बांध बनाये जा रहे हैं। सारी नदियों के आस-पास के लोग भी कमोबेश ऐसी ही चुनौती का सामना कर रहे हैं। श्रीधर भी सिद्धार्थ के साथ उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में गंगा के किनारे करीब 500 किलोमीटर की यात्रा कर चुके हैं।
आंकड़ों से आगे की दास्तान
बांध बनाये जाते हैं। नदी अपना रास्ता बदलती है। कटाव में गांव के गांव गायब हो जाते हैं। इन सारे रूखे वाक्यों में अनगिनत त्रासदी छिपी है। कभी-कभी यह त्रासदी व्यंग जैसी प्रतीत होती है। ऐसा ही एक वाकया इस डॉक्यूमेंट्री में दर्ज है। एक रात अचानक से एक गांव में पानी में आ गया। कटाव की वजह से। इस अचानक आयी त्रासदी से बचने के लिए ग्रामीण भागे। साढ़े तीन से चार किलोमीटर दूर जाकर एक बस्ती बनाई और उसका नाम रखा- अचानकपुर। क्योंकि बाढ़ अचानक आयी थी और गांव अचानक बसा था।
त्रासदी यहां खत्म नहीं हुई। नदी से होने वाला कटाव जारी रहा। चार किलोमीटर से कम होते-होते अब गांव और नदी के बीच महज 400 मीटर की दूरी रह गई है। फिर से विस्थापन का डर सता रहा है। यद्यपि ग्रामीणों की लिए यह त्रासदी है पर डॉक्यूमेंट्री देखते हुए, अनायास यह सवाल जेहन में आता है कि अबकी बार विस्थापन होगा तो ये लोग अपने नए गांव का क्या नाम रखेंगे!
सिद्धार्थ अग्रवाल की इस यात्रा में पश्चिम बंगाल में बड़ी संख्या में हो रहे कटाव और गांव के गांव का विस्थापन का विस्तृत बयान दर्ज है। स्पष्ट होता है कि फरक्का बराज बनने के बाद से स्थित और बिगड़ी है।
नेशनल वाटरवे: माई वे या हाईवे की तर्ज का विकास
गंगा को देश का पहला नेशनल वाटरवे का तमगा हासिल है। सरकार इन वाटरवे पर पोत और बड़ी-बड़ी जहाजें चलाना चाहती है। यह सुनना किसी भी भारतीय नागरिक को अच्छा लगेगा। लेकिन ‘विकास’ का यह मॉडल कैसे तैयार किया जा रहा है और आमलोगों को यह कैसे प्रभावित कर रहा है- यह भी डॉक्यूमेंट्री में उभर कर सामने आता है।
वाराणसी से नीचे के हिस्से में भी एक दो जहाज चलें हैं पर पश्चिम बंगाल में यह ज्यादा आम है। सिद्धार्थ ने कई लोगों से इस मुद्दे पर बात की है। यहां पता चला कि इस यातायात में कोई एड्वान्स वार्निंग सिस्टम नहीं है। इसका खामियाजा मछुवारे और नाविक भुगत रहे हैं। बिना वार्निंग के पोत या जहाज के आ जाने से कई बार नाव फंस जाती है। कई बार नाविकों को अपनी नाव छोड़कर जान बचानी होती है।
ग्रामीणों का कहना है कि बड़ी जहाजों की वजह से नदी से होने वाला कटाव भी तेजी से होने लगा है। “जब बड़ी जहाज आती है तो ज्वारभाटा जैसा दबाव बनता है। बिना वार्निंग के आने पर सवारी के साथ एक जगह से दूसरी जगह जा रहे छोटे नावों के पलटने का डर होता है,” एक नाविक ने अपनी चिंता जाहिर की है।
सबका सार यह है कि इस ‘विकास’ की रूपरेखा तैयार करने के दरम्यान इससे प्रभावित होने वाले लोगों को इस योग्य भी नहीं समझा गया कि उन्हें इसकी सूचना दे दें।
सिद्धार्थ अग्रवाल कहते हैं कि डॉल्फिन एक राष्ट्रीय महत्व का जीव है। यह विलुप्त होने की कगार पर है। नहीं मालूम सरकार ने इसपर भी विचार किया कि नहीं कि अगर बड़ी जहाज और पोत उनके सेंचुरी से गुजरेंगे तो इस जीव पर इसका क्या असर होगा।
बिन मछली मछुवारे
सिद्धार्थ की इस यात्रा में पश्चिम बंगाल से लेकर उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों तक मछुवारे यह शिकायत करते दिखते हैं कि अब नदी में मछली मिलना कम हो गया है। हिलसा मछली का जिक्र करते हुए लोग बताते हैं कि कभी-कभी यह मछली उत्तर प्रदेश तक पाई जाती थी। अब नहीं दिखती!
मछली मारने के लिए इस्तेमाल होनी वाली जाल से लेकर अधिकारियों की बदमाशी- सब के शामिलात प्रयास से यह दुखद मुकाम हासिल हुआ है। जैसे बिहार में एक मछुआरा यह कहता है कि डॉल्फिन सेंचुरी बनने से अधिकारियों को हमें प्रताड़ित करने का अधिकार मिल गया। जब-तब मछली मारने की भी सजा दी जाती है।
‘प्रगति के पथ पर’ चलने की कीमत अदा करते लोग
जब सिद्धार्थ अग्रवाल उत्तराखंड पहुंचते हैं तो एक जगह उनको एक बोर्ड दिखता है जिसपर लिखा है ‘प्रगति के पथ पर’। शायद इसी प्रगति की तस्वीर दिखाने के लिए इस डाक्यूमेंट्री में चार धाम प्रोजेक्ट पर काफी समय दिया गया है। सड़क बनाने के लिए पहाड़ तोड़े जा रहे हैं। इसके लिए बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा पड़ोसी मुल्क नेपाल से मजदूर लाए गए हैं। उन्हें महीने का 8,500 रुपया दिया जाना तय है। दो जून का भोजन देने के लिए ठेकेदार इसमें से 1,500 रुपये काट लेता है। रहने की ऐसी व्यवस्था की गई है जैसे इंसानों का घर नहीं, जानवरों का बाड़ा हो।
इस ‘प्रगति’ नाम की चिड़ियां के अन्य पहलू भी यहां दिखते हैं। जैसे बांध बनने के किस्से। बांध बनने के पहले और बाद भी सामान्य जन मछली मारा करते थे। खाने के लिए। फिर ठेकेदार बीच में आ गए। जो मछली मुफ़्त या सस्ते दरों पर मिल जाती थी उसी मछली के लिए ग्रामीणों को तीन-चार गुणी कीमत चुकानी होती है।
हाइड्रो पावर और सिंचाई के नाम पर गंगा नदी पर कई बांध बने हैं। पहाड़ वाले इलाके में मनेरी बांध, भाली डैम या जोशियारा बराज, कोटेश्वर बांध, पशूलोक बराज और भीमगौड़ा बराज। इसी तरह समतल क्षेत्र में बिजनौर बराज, नरोरा बराज, कानपुर और फरक्का बराज बने हैं।
इन बराज से स्थानीय लोगों को क्या फायदा हुआ इसपर उत्तरखंड में एक स्थानीय सज्जन कहते हैं- कुछ नहीं। पहले कम से कम खेती करते थे। अब तो वह भी नहीं। टेहरी बांध की वजह अब तक 135 गांव विस्थापित हो चुके हैं, ऐसा इस डॉक्यूमेंट्री में बताया गया है।
विनोद रावत नाम के एक शख्स का कहना है कि जब हमारी जमीं डूबी तो ऐसा लगा जैसे हमें ही डूबा दिया गया है। इन्हें 12 साल के संघर्ष के बाद एक छोटा स जमीन का टुकड़ा मिला। कहते हैं कि इनके गांव में अभी भी ऐसे ढेरों लोग है जिनका पुनर्वास नहीं हुआ है। वे लोग इतनी लंबी कानूनी लड़ाई नहीं लड़ सकते। उनका भी पुनर्वास होना चाहिए।
यहीं पर वह बोर्ड दिखता है जिसपर लिखा है ‘प्रगति के पथ पर।‘
अविरल या निर्मल धारा जैसे बड़े शब्द नहीं नेक नियत चाहिए
जब नदी के संरक्षण की बात आती है तो बड़े-बड़े अल्फ़ाज़ और बड़ी-बड़ी योजनाओं का नाम आता है। लेकिन नदी के बहाव में जो निरन्तरता होनी चाहिए, उसपर कभी बात नहीं होती। सिद्धार्थ कहते हैं कि यह शायद राजनीतिक वजहों से है।
और पढ़ेंः [फ़ोटो] पश्चिम बंगाल में गंगा नदी की हर साल बढ़ती कटाई से बेहाल हैं लोग
इस पदयात्रा के लिए कई लोग सिद्धार्थ का धन्यवाद करते दिखे। सिद्धार्थ कहते हैं कि यद्यपि यह यात्रा एक वैज्ञानिक उद्देश्य के लिए शुरू हुई पर इस दौरान पता चला कि तीर्थ में पैदल चलते रहने का विचार शायद इसीलिए है क्योंकि आप अपनी इस धीमी यात्रा के दौरान इसके बारे में सोचें।
चार-धाम प्रोजेक्ट का हवाला देते हुए सिद्धार्थ कहते हैं कि अब लोग तीर्थ को भी एक ‘माइल स्टोन’ की तरह देखते हैं। बस इसे पाना है। इसकी प्रक्रिया इत्यादि में लोगों को कोई दिलचस्पी नहीं है।
हालांकि इस डॉक्यूमेंट्री में दो तीन चीजों का न होना थोड़ा अखरता है। जैसे गंगा में बहाई जाने वाली गंदगी। लोगों के आस्था और उससे जुड़ी कहानी! इसका जवाब देते हुए सिद्धार्थ कहते हैं कि इन मुद्दों पर काफी बात होती रहती है और इसलिए हमने जानबूझकर इससे दूरी बनायी।
बैनर तस्वीरः बिहार के सुलतानगंज में नाव से गंगा पार करते श्रद्धालु। फिल्मकार सिद्धार्थ अग्रवाल ने गंगासागर से गंगोत्री तक की पैदल यात्रा कर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई है। तस्वीर- सिद्धार्थ अग्रवाल