- जनसंख्या और त्वरित विकास की वजह से प्लास्टिक कचरे में भी बेतहाशा वृद्धि हो रही है। इस कचरे को सामान्यतः लैंडफिल पर फेंक दिया जाता है।
- वैसे तो लैंडफिल पर इन कचरों को निष्पादन सबसे सस्ता तरीका है पर टिकाऊ नहीं है। लेकिन इससे निकलने वाले जहरीले पदार्थ आस-पास की आबोहवा को काफी नुकसान पहुंचाते हैं।
- भारत में अधिकतर राज्यों के पास उत्पन्न होते प्लास्टिक कचरे और उसके रीसाइक्लिंग से संबंधित आंकड़े मौजूद नहीं हैं। ऐसे में इस विकराल होती समस्या से निपटना मुश्किल होता जा रहा है।
वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में कचरा भी बहुत तेजी से बढ़ रहा है। 2012 में दुनिया में प्रति वर्ष 1.3 अरब टन नगरीय ठोस कचरा पैदा हुआ था। फिर 2018 में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट आई जिससे पता चला कि 2050 में 3.4 अरब टन कचरा निकलेगा। कचरा में इस बेतहाशा वृद्धि को ध्यान में रखते हुए विश्व भर में कचरा प्रबंधन बाजार भी तेजी से बढ़ रहा है। 2030 तक यह बाजार 700-2,483 अरब डॉलर का हो जाएगा। इस बाजार के विकास की गति का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि 2020-2021 में यह महज 400-1600 अरब डॉलर के आस-पास रहने वाला है।
भारत में बढ़ती जनसंख्या और त्वरित विकास के दौर में कचरा प्रबंधन उद्योग लगभग 1.3 अरब डॉलर (9,656 करोड़ रुपये) का है। अनुमान है कि जनवरी 2020 तक देश में करीब 1,50,000 टन ठोस कचरे का निपटान किया गया। 2019 में पैदा हुए 54,00,000 टन ठोस कचरे में से 33,00,000 टन प्लास्टिक था।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्लास्टिक कचरा प्रबंधन दिशानिर्देशों के अनुसार प्लास्टिक के कचरे को छांट कर अलग किया जाना चाहिए। इसके अनुसार जो कचरा रिसाइकिल हो सकता है यानी उसका पुनः इस्तेमाल हो सकता है तो इस्तेमाल में लाया जाए। जो प्लास्टिक कचरा पुनः इस्तेमाल के लायक न हो उसे सड़क बनाने, कचरे से ऊर्जा पैदा करने के लिए इस्तेमाल किया जाए। इसके बाद जो कचरा बचे उसे उसे ही लैंडफिल पर फेंका जाए।
पर शायद ही कभी ऐसा होता है। 2019-2020 में भारत में सिर्फ 60 प्रतिशत प्लास्टिक कचरे का निपटान ही इन दिशानिर्देशों के अनुसार हुआ। बाकी कचरे को या तो जला दिया गया या मिश्रित कचरे के तौर पर खुले में लैंडफिल पर फेंक दिया गया। ये लैंडफिल या कचरे के ढेर आमतौर पर बहुत बड़े इलाके में फैले होते हैं। इनकी ठीक से देखभाल नहीं होती और इनसे आस-पास की आबोहवा विकृत होती रहती है।
प्लास्टिक कचरे को गड्ढ़ों अथवा खुले मैदानों में फेंकने की लागत क्या है?
भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में लैंडफिल का मतलब जमीन के ऊपर खुले में फैले कचरे के ढेर हैं। भारत में आमतौर पर करीब 6 प्रतिशत प्लास्टिक वाले ठोस कचरे के निपटान के सबसे सस्ते और अल्पकालिक विकल्प यही लैंडफिल हैं। आज कुल एकत्र कचरे में से केवल 20 प्रतिशत को ही छांटकर प्रौसेस किया जाता है, जबकि 80 प्रतिशत कचरा भारत भर में मौजूद 1684 कचरे के ढेरों (लैंडफिल) पर मिश्रित कचरे के रूप में फेंक दिया जाता है। अधिकतर नगर निगम या नगर पालिका कचरे को जमा करने, ढोने, उपचारित करने और लैंडफिल पर फेंकने के लिए शुल्क देते हैं। यह औसतन 500-1500 रुपये प्रति टन होता है।
2021 में आईआईटी बॉम्बे ने मुंबई में प्रतिदिन पैदा होने वाले 9,000 टन ठोस कचरे के निपटान के लिए विभिन्न विकल्पों का आकलन किया। इस अध्ययन में पुष्टि हुई कि लैंडफिल, खर्च की दृष्टि से सबसे किफायती विकल्प है। इसके लिए तुलनात्मक अध्ययन किया गया। एक तरफ रिसाइकिल योग्य और रिसाइकिल अयोग्य कचरे को छांटने का केन्द्र चलाने के लिए आवश्यक पूंजी, संचालन एवं रखरखाव पर आने वाली लागत थी तो दूसरी तरफ कचरा जलाने, कम्पोस्ट तैयार करने पर आने वाले खर्च थे। सनद रहे कि कम्पोस्ट और कचरा जलाकर बिजली बनाने तथा बायोगैस से होने वाली आमदनी से कचरा प्रबंधन का कुछ खर्च निकल आता है। अध्ययन के परिणामों से पता चला कि रिसाइकिल योग्य कचरे को अलग करना और उसे लैंडफिल पर फेंकना, अगले 20 वर्ष तक के निपटान का सबसे सस्ता तरीका रहने वाला है। इस व्यवस्था पर प्रति टन 1400 रुपये की लागत आने का अनुमान है। वहीं कचरा जलाने की लागत करीब दोगुनी (2800 रुपये प्रति टन) रहने वाली है।
सस्ता होने के बावजूद भी यह स्थायी समाधान नहीं हो सकता है। कचरे के ढेर हमेशा नहीं रह सकते। इनसे कई तरह के नुकसानदायक चीजें निकलती रहती हैं। मीथेन की वजह से लंबे समय तक आग लगने के मामले होते हैं वहीं इससे रिसने वाला द्रव पदार्थ, पानी इत्यादि को प्रदूषित करते हैं। भारत में अधिकतर लैंडफिल अपनी क्षमता से कहीं अधिक कचरे का बोझ उठाए हुए हैं। शहरी/अर्द्ध शहरी क्षेत्रों में जमीन की आसमान छूती कीमतों और स्थानीय जनसंख्या के कड़े विरोध को देखते हुए नए लैंडफिल बनाना मुश्किल हो गया है। मुंबई का सबसे नया कचरा प्रबंधन स्थल, कांजूरमर्ग की खस्ता हालत, इस व्यवस्था की विफलता की एक मिसाल है। ऐसा तब है जब इस स्थान पर कचरा छंटाई और बायो रिएक्टर लैंडफिल की व्यवस्था मौजूद है।
उधर मिश्रित कचरे को लैंडफिल पर फेंकना भी महंगा साबित होने लगा है। ऐसे कचरे से उत्पन्न होने वाले मीथेन गैस से बड़े पैमाने पर आग लगने की घटनाएं सामने आती रहती हैं। इतना ही नहीं। कचरा पानी में सड़ता रहता है और धीरे-धीरे स्थानीय जल स्रोत को भी विषैला करता जाता है। अनुपचारित कचरे के ढेर में पानी रिसने से उत्पन्न जहरीले रसायन एवं माइक्रोप्लास्टिक्स, आस-पास रहने वाले लोगों और जीवों को नुकसान पहुंचाते हैं। राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (एनईईआरआई), केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली ने 2018 में एक अध्ययन किया था। इसकी मानें तो दिल्ली में ओखला, भलस्वा और गाजीपुर के तीनों लैंडफिल मिलकर पर्यावरण को 450 करोड़ रुपये की क्षति पहुंचा रहे हैं।
प्लास्टिक कचरे को खुले में फेंकने की कीमत दीर्घावधि में, विशेषकर पर्यावरण या स्वास्थ्य के लिहाज से बहुत तेजी से बढ़ने वाली है। तो क्या प्लास्टिक कचरे को बिजली बनाने के लिए जलाना बेहतर होगा?
प्लास्टिक कचरे को जलाने की क्या कीमत होगी?
दुनिया के अनेक देश प्लास्टिक कचरे के निपटान के लिए उसे जला रहे हैं। जापान और सिंगापुर क्रमश: 2017 और 2015 से अपने नगरीय ठोस कचरे का 37 प्रतिशत और 78 प्रतिशत जला रहे हैं। चीन में कचरे से बिजली बनाने के लिए प्लास्टिक जलाने का बाजार 2017 से बहुत अधिक फैल गया है और वहां 2025 तक ऐसे 600 संयंत्र और लगाने की योजना है। स्वीडन ने कचरे से बिजली बनाने वाले संयंत्रों में ईंधन के लिए 2016 में अन्य यूरोपीय देशों से कचरे का आयात शुरू किया। किन्तु भारत में कचरे से बिजली बनाने के पिछले अनुभव बहुत खराब रहे हैं और भविष्य में भी इस पर विवाद बने रहने की आशंका है।
भारत में कचरे से बिजली बनाने का पहला संयंत्र 1987 में दिल्ली के तिमारपुर में लगाया गया। इसमें प्रतिदिन 300 टन कचरा जलाकर 3.75 मेगावाट बिजली पैदा की जानी थी। संयंत्र के लिए जरूरी गुणवत्ता वाला कचरा नहीं मिला। इसके लिए 1462 किलो कैलोरी/किलोग्राम से अधिक कैलोरी क्षमता का कचरा चाहिए था पर जो मिल वह 600-700 किलो कैलोरी/किलोग्राम कैलोरी क्षमता वाला कचरा था। इस वजह से वह संयंत्र 21 दिन बाद ही बंद हो गया। तब से भारत में 130 मेगावाट क्षमता के कचरे से बिजली बनाने वाले 14 और संयंत्र लगाए गए जिनमें से आधे बंद हो चुके हैं। जो चल रहे हैं उन पर भी पर्यावरण सुरक्षा मानकों के उल्लंघन की जांच चल रही है। फरवरी 2017 में नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) ने पर्यावरण सुरक्षा मानकों का उल्लंघन करने के लिए ओखला स्थित कचरे से बिजली बनाने के संयंत्र पर 25,00,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया है।
भारत में कचरे से बिजली बनाने के संयंत्रों के असफल होने के कई कारण हैं। सबसे पहला कारण तो यही है कि इनमें से अधिकतर संयंत्र नगरीय ठोस कचरे पर निर्भर हैं जिसकी भारत में कैलोरी क्षमता बहुत कम होती है। दूसरे, कचरे से बिजली बनाने वाले संयंत्र महंगे पड़ते हैं। तमाम वित्तीय सब्सडी और प्रोत्साहन मिलने के बावजूद इन संयंत्रों में तैयार बिजली की लागत सात रुपए प्रति यूनिट आती है जबकि कोयला/सौर ऊर्जा संयंत्रों में तैयार बिजली की लागत 3-4 से रुपये प्रति यूनिट आती है। एक और कारण यह है कि इन संयंत्रों में अक्सर मिश्रित कचरा जलाया जाता है जो जलाने के लिए उपयुक्त नहीं होता। इनमें गैस उत्सर्जन और राख को उड़ने से रोकने की व्यवस्था इतनी खराब होती है कि बहुत अधिक प्रदूषण फैलता है।
इसके बावजूद 2017 में राष्ट्रीय ताप बिजली निगम ने देश में ऐसे और संयंत्र लगाने के लिए डेवलपर्स और निवेशकों को आमंत्रित किया। नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय पूरे भारत में 0.5 गीगावॉट बिजली का उत्पादन इन संयंत्रों से करना चाहता है और उसने अपना 40 प्रतिशत लक्ष्य हासिल कर लिया है।
कचरे और सर्कुलर अर्थव्यवस्था की एक स्वतंत्र विशेषज्ञ स्वाति साम्ब्याल का कहना है, ”अतीत में कचरे से ऊर्जा बनाने वाले संयंत्र असफल रहने के बावजूद यह टैक्नोलॉजी अब भी काम आ सकती है। शहरों में कचरे का स्वरूप बदल रहा है। प्लास्टिक कचरे का अनुपात बढ़ रहा है। पर दिक्कत यह है कि अधिकांश शहरों में कचरे की कोई सूची नहीं रखी जाती। इसके बिना कचरे से बिजली बनाने की सारी कोशिश दूर की कौड़ी साबित होगी।” स्वाति साम्ब्याल का कहना है कि कचरे के निपटान के लिए आंकड़े इकट्ठा किये जाने चाहिए और उसके आधार पर टैक्नोलॉजी को अपनाया जाना चाहिए। न कि मौजूद टैक्नोलॉजी के आधार पर फैसला लिया जाना चाहिये। अभी यही हो रहा है।
कचरे से बिजली बनाने के संयंत्रों के अलावा प्लास्टिक कचरे को सीमेंट भठ्ठियों में वैकल्पिक ईंधन के रूप में इस्तेमाल करना प्लास्टिक को लाभकारी ढंग से जलाने का एक और तरीका है। आमतौर पर सीमेंट संयंत्रों को नगरपालिकाओं से छंटा हुआ सूखा कचरा मिलता है जिसमें से ज्वलनशील सामग्री को निकालकर वे ईंधन तैयार करते हैं।
टैरी संस्था से जुड़े ठोस कचरा प्रबंधन विशेषज्ञ कौशिक चन्द्रशेखर का कहना है, ”आमतौर पर नगरीय कचरे की गुणवत्ता और मात्रा कचरे से ईंधन बनाने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसलिए सीमेंट कारखानों को कचरा उपयोग लायक बनाने के लिए पैसा खर्च करना पड़ता है। फिर ढुलाई की लागत का भी सवाल है। कचरे को शहरों से सीमेंट कारखानों तक पहुंचाने का खर्च कौन उठाएगा? इस कचरे को सैंकड़ों किलोमीटर दूर सीमेंट कारखानों तक पहुंचाने की लागत बहुत अधिक होती है।”
यदि प्लास्टिक कचरे को जमीन में गाड़ना और जलाना दोनों बहुत महंगा है तो उसे रिसाइकिल करना इन दोनों से बेहतर हो सकता है। 2005 में अमेरिका में हुए एक अध्ययन में यही बात सामने आई।
किन्तु प्लास्टिक रिसाइकिल करने की कीमत क्या है?
स्वाति साम्ब्याल के अनुसार, ”सच तो यह है कि, विशेषकर भारत के संदर्भ में, हमारे पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं है। वैसे भी अधिकतर प्लास्टिक को सही मायने में कभी रिसाइकिल नहीं किया गया। उससे निचली श्रेणी या घटिया क्वालिटी के प्लास्टिक उत्पाद ही बनाए जाते हैं।” इसके अलावा भारत में प्लास्टिक रिसाइकिल करने को लेकर जानकारी बहुत अधूरी है। प्लास्टिक कचरा प्रबंधन के बारे में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की 2019-2020 की वार्षिक रिपोर्ट में केवल 14 राज्यों ने ही प्लास्टिक कचरे की रिसाइक्लिंग के बारे में विस्तार से जानकारी दी थी। अधिकतर राज्यों ने रिसाइक्लिंग इकाइयों की संख्या में मैन्यूफैक्चरिंग इकाइयों को जोड़ दिया था।
भारत में रिसाइक्लिंग का बहुत बड़ा काम कचरा बटोरने वाले करते हैं जिसे ‘बैकयार्ड रिसाइक्लिंग’ कहा जाता है। वे कचरे के ढेरों में से हाथ से प्लास्टिक कचरा छांटते हैं, उसे ड्रमों में धोते हैं और फिर ऐसी इकाइयों को बेच देते हैं जहां मशीनों से उसे रेशा-रेशा करने के बाद पिघलाकर दाने या पैलेट बनाया जाता है। प्लास्टइंडिया फाउंडेशन के अनुसार भारत में प्लास्टिक रिसाइक्लिंग उद्योग 1,00,000 से अधिक लोगों को रोजगार देता है। इस काम में लगी अधिकांश (10,000 + इकाइयां) असंगठित क्षेत्र में हैं। वहीं संगठित क्षेत्र में इनकी संख्या (100 + इकाई) तक सीमित है।
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दिल्ली स्थित पर्यावरण अनुसंधान एवं कार्रवाई समूह, चिंतन की भारती चतुर्वेदी का कहना है, ”अधिकतर रिसाइक्लिंग अनौपचारिक क्षेत्र में होती है जिसमें लोग अपना पैसा लगाते हैं और छोटे संयंत्र चलाते हैं। इन संयंत्रों से प्रदूषण फैल सकता है, किन्तु इन्हें बेहतर समाधान अपनाने में मदद देनी की कोई कोशिश नहीं की गई है। तमाम समस्याओं के बावजूद यह क्षेत्र प्लास्टिक प्रदूषण रोकने में मदद कर रहा है।”
इसमें आगे जोड़ते हुए स्वाति साम्ब्याल कहती हैं, ”अनौपचारिक क्षेत्र में अधकचरी रिसाइक्लिंग से न सिर्फ हानिकारक उत्सर्जन होता है, बल्कि प्लास्टिक का बहुत अधिक रिसाव भी होता है। यह क्षेत्र अनौपचारिक है इसलिए अधिकतर इकाइयां गंदे प्लास्टिक की सफाई का खर्च नहीं उठा सकतीं। गीले कचरे से दूषित सामग्री नालियों में या सड़कों के किनारे फेंक दी जाती है। इस बात के पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं कि रिसाइक्लिंग से कितना प्रदूषण होता है। इसलिए रिसाइक्लिंग की असली कीमत की कोई जानकारी नहीं है।”
प्लास्टिक को रिसाइकिल करके घटिया प्लास्टिक उत्पाद बनाने और प्लास्टिक रिसाइक्लिंग की असली लागत का अनुमान लगाने की समस्याएं विश्व भर में एक जैसी हैं।
इन तमाम समस्याओं के बावजूद रिसाइक्लिंग उद्योग में, जीवाष्म ईंधन से नया प्लास्टिक बनाने की औद्योगिक एवं पर्यावरणीय कीमत को कम करने की जबर्दस्त क्षमता है। अनुमान है कि एक टन प्लास्टिक को रिसाइकिल करने से 13.8 बैरल तेल, 5744 किलोवाट ऊर्जा और 810 घन फिट कचरा भरने की जगह बचती है।
फिर भी जब तक वो दिन नहीं आता, जब प्लास्टिक की बोतल या पॉलीथीन की थैली से दोबारा प्लास्टिक की बोतल या प्लास्टिक की थैली बनाई जा सके, तब तक रिसाइक्लिंग की क्षमता का पूरा उपयोग नहीं हो सकता।
अनुवाद: ए के मित्तल
बैनर तस्वीरः प्लास्टिक कचरों के बीच प्लास्टिक बॉटल की तलाश में एक कचरा बीनने वाला। तस्वीर- कार्तिक चंद्रमौली/मोंगाबे