- वैज्ञानिकों ने राजनीतिक संस्थाओं से आह्वान किया है कि वे सौर जियोइंजीनियरिंग रिसर्च की सीमा निर्धारित करें। इनके अनुसार इस पर अंकुश लगाने की जरूरत इसलिए भी है ताकि कोई देश, कंपनी या व्यक्ति मनमाने तरीके से इसका इस्तेमाल न करे।
- पत्र लिखने वाले शिक्षाविदों का कहना है कि इस तरह ग्रहों के स्तर पर जियोइंजीनियरिंग हस्तक्षेप करना बेहद खतरनाक है। इसलिए इस तरह के प्रयासों को कोई भी सहयोग नहीं दिया जाना चाहिए वो चाहें पेटेंट देने संबंधी हो, सरकारी फंड हो या कोई अन्य अंतर्राष्ट्रीय सहयोग।
- सौर जियोइंजीनियरिंग के एक विचार में पृथ्वी के समताप मंडल में अरबों एरोसोल कणों को डालने का प्रस्ताव है। हालांकि इसके विरोध में आए वैज्ञानिक मानते हैं कि ऐसा करने से अत्यधिक गंभीर जैसे अनपेक्षित और अप्रत्याशित परिणाम सामने आ सकते हैं।
देश में लू का मौसम चल रहा है। देश के कई हिस्सों का तापमान सदियों का रिकार्ड तोड़ रहा है और जनजीवन अस्त-व्यस्त है। कई लोग इसे जलवायु परिवर्तन का नतीजा मानते हैं जो पृथ्वी के गर्म होने की वजह से हो रहा है। इसके तमाम समाधानों में एक समाधान यह सुझाया जा रहा है कि पृथ्वी के वायुमंडल में कृत्रिम कण छोड़ा जाए ताकि सूर्य की किरणें अवरुद्ध हों। हालांकि, यह विचार सबको पसंद नहीं आ रहा है। 60 से ज्यादा शिक्षाविदों के समूह ने अपने एक पत्र के जरिए इस पर रोक लगाने की मांग की है।
जिन शिक्षाविदों ने इस पत्र और 17 जनवरी को वायर (विले इंटरडिसिप्लिनरी रिव्यू) के क्लाइमेट चेंज ऑनलाइन प्रकाशन से प्रकाशित लेख पर हस्ताक्षर किये थे, उनमें जाने माने लेखक और पुरस्कार विजेता लेखक अमिताभ घोष, जर्मनी के पर्यावरण एजेंसी के अध्यक्ष डर्क मेस्सनेर, कैंब्रिज विश्वविद्यालय के जलवायु वैज्ञानिक माइक हुल्मे और स्टॉकहोम पर्यावरण संस्थान के शोध निदेशक आसा पर्सन जैसे शिक्षाविद भी शामिल थे।
इस ओपन लेटर की अगुवाई कर रहे लेखकों में से एक आरती गुप्ता, वैगनिंगन विश्वविद्यालय के ग्लोबल एनवायरनमेंटल गवर्नेंस की प्रोफेसर हैं। उन्होंने बताया, “कुछ चीजों पर हमें शुरुआती दौर में ही अंकुश लगा देना चाहिये।” प्रोफेसर गुप्ता ने सोलर जियोइंजीनियरिंग को मानव क्लोनिंग और रासायनिक हथियारों जैसे अत्यधिक जोखिम वाले श्रेणी का तकनीकी बताया। उनका मानना है कि ऐसी तकनीक को प्रतिबंधित करना बहुत जरूरी है। उन्होंने मोंगाबे को एक साक्षात्कार देते हुए बताया कि ऐसा किया तो जा सकता है पर यह बहुत जोखिम से भरा है।”
जियोइंजीनियरिंग तकनीक के इस्तेमाल से आसमान का रंग बदल सकता है। ओजोन परत और महासागरों की रासायनिक संरचना हमेशा के लिए बदल सकती है। इतना ही नहीं बल्कि सूर्य की रोशनी पर निर्भर रहने वाला प्रकाश संश्लेषण धीमा पड़ सकता है। जिसकी वजह से संभवतः जैव विविधता और कृषि को नुकसान हो सकता है और दुनिया के मौसमी मिजाज में बेहद चौंकाने वाले बदलाव हो सकते हैं।
प्रोफेसर गुप्ता कहती हैं कि इस तकनीक के संभावित खतरे के बावजूद अभी तक ऐसा कोई तंत्र मौजूद नहीं है जो ऐसा करने वाले को रोक सके। इसमें कोई भी हो सकता है जैसे कोई व्यक्ति, कंपनी या कोई देश। पत्र तत्काल प्रभाव से इस पर अंकुश लगाने के लिए पांच सुरक्षात्मक उपायों को लागू करने की बात कहता है।
ये पांच उपाय हैं- किसी भी तरीके का कोई बाहरी हस्तक्षेप रोका जाए, क्रियान्वयन की मनाही, पेटेंट को अस्वीकार्यता, किसी भी तरह की सार्वजनिक संपत्ति के इस्तेमाल पर रोक, और संयुक्त राष्ट्र जैसी अन्तराष्ट्रीय संस्थानों के द्वारा किसी भी तरह का सहयोग नहीं देने को तुरन्त लागू किया जाना चाहिये।
सोलर जियोइंजीनियरिंग के बड़े ख़तरे
1991 में माउंट पिनातुबो में हुआ विस्फोट पिछले 100 सालों का सबसे बड़ा ज्वालामुखी विस्फोट था। इस विस्फोट से निकली राख ने दुनिया के तापमान को दो वर्ष 0.5 डिग्री सेल्सियस (0.9°F) तक कम कर दिया था।
वैज्ञानिक यह अच्छी तरह से जानते हैं कि कार्बन उत्सर्जन के द्वारा दुनिया के बढ़ते तापमान को भी ऐसा करके रोका जा सकता है। इसमें कृत्रिम एयरोसोल कणों को लंबे समय तक पृथ्वी के बाहरी स्तर पर छोड़ना पड़ेगा। इसके लिए कई दशकों तक कृत्रिम एयरोसोल कण को आबोहवा में भेजते रहना होगा। हालांकि यह संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के लक्ष्य के ठीक विपरीत है। इस लक्ष्य में जलवायु प्रणाली के साथ खतरनाक तरीके से मानवीय हस्तक्षेप की मनाही है।
कृत्रिम उपायों के अपने खतरे भी हैं। जैसे यदि इसे अचानक बंद कर दिया जाता है, तो सुरक्षात्मक एयरोसोल क्लाउड का मास्किंग कूलिंग प्रभाव खत्म हो जाएगा और वायुमंडल के सभी संचित ग्रीनहाउस गैस एक ही झटके में ग्रह से टकरा जाएंगे। नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में प्रकाशित 2018 के एक अध्ययन के अनुसार, हाल के जलवायु परिवर्तन की तुलना में दुनिया का तापमान अचानक चार से छह गुना तेजी से बढ़ सकता है।
प्रोफेसर गुप्ता पूछतीं हैं, “ऐसे में किस तरह आने वाली पीढ़ियों को हम गारंटी दे सकते हैं कि भविष्य में किसी तरह का खतरा नहीं होगा?”वे नीति विशेषज्ञ जिन्होंने यह पत्र जारी किया था, उनके अनुसार दुनिया के सभी देशों के बीच पीढ़ियों तक समन्वय बनाना संभव नहीं है।
काल्पनिक विज्ञान से वास्तविक विज्ञान तक का सफर
दशकों से बड़े पैमाने पर जियोइंजीनियरिंग का प्रस्ताव काल्पनिक विज्ञान की कथाओं पर आधारित था। लेकिन हाल के वर्षों में, इन तकनीक ने अंतिम नीतिगत विकल्प के रूप में जलवायु परिचर्चा की मुख्य धारा की ओर ध्यान खींचा है और लाखों लोग इसमें रुचि लेने लगे हैं।
2019 में संयुक्त राष्ट्र की कांग्रेस ने सोलर जियोइंजीनियरिंग रिसर्च के लिए नेशनल ओशनिक एंड एट्मोसफेर एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) को 40 लाख डॉलर दिया। मार्च 2021 में, विज्ञान, इंजीनियरिंग और मेडिसिन की यूनाइटेड स्टेट्स राष्ट्रीय अकादमी ने करोड़ों डॉलर का अतिरिक्त खर्च करने का प्रस्ताव रखा। दुनिया के बड़े खरबपति बिल गेट्स ने भी व्यक्तिगत तौर से हार्वड विश्वविद्यालय स्थित विश्व के सबसे अग्रणीय सोलर जियोइंजीनियरिंग रिसर्च इकाई को आर्थिक सहयोग किया है।
जियोइंजीनियरिंग का नेतृत्व करने वाले मुख्य शोधकर्ता और हार्वर्ड में एप्लाइड फिजिक्स के प्रोफेसर, डेविड कीथ ने उक्त पत्र का जवाब देते हुए कहा कि वह अनिश्चितता, नैतिक खतरे और शासन की चुनौतियों के बारे में चिंताओं को समझते हैं, लेकिन सोलर इंजीनियरिंग पर स्थायी तौर पर किसी भी तरह के प्रतिबंध से असहमत हैं।
“यूनाइटेड नेशन इन्टरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज और संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के एक प्रकाशित रपट में कहा गया है कि इस तकनीक को स्थायी तौर पर गैर-उपयोगी मानना मुश्किल है। क्योंकि ऐसी संभावना है कि यह जलवायु में होने वाले खतरों को काफी हद तक कम कर सकता है,” कीथ ने एक ईमेल के माध्यम से मोंगाबे को जानकारी दी। वह आगे कहते हैं कि ऐसा लग रहा है कि लोग विज्ञान के कुछ तरीकों को इसलिए रोक देना चाहते हैं क्योंकि राजनीति और शासन तंत्र इसके अनुकूल नहीं है। उन्होंने बताया कि कोविड-19 टीकों के लिए जिम्मेदार एमआरएनए तकनीक, और इन्टरनेट के विकास के साथ भी इस तरह की बहुत सी चिंतायें पैदा हुई थी, परन्तु इस तरह के डर के कारण से स्थायी रूप से प्रतिबंध को उचित नहीं ठहराया गया।
पिछले वर्ष, स्वीडन स्पेस कॉर्पोरेशन के सहयोग से होने वाले प्रथम आउटडोर जियोइंजीनियरिंग परीक्षण को हार्वड टीम को स्वीडिश जन विरोध के कारण से मजबूरी के कारण निरस्त करना पड़ा था। इस विरोध का नेतृत्व सामी जनजाति समुदाय के लोग कर रहे थे।
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यूट्रेक्ट विश्वविद्यालय में ग्लोबल सस्टेनएबिलिटी गवर्नेंस के प्रोफेसर और पत्र को शुरुआती अमली-जामा पहनाने वालो में से एक, फ्रैंक बिएर्मन ने एक टेलीफोनिक साक्षात्कार के दौरान चेतावनी देते हुए कहा, “आप इसको आदर्श मान सकते हैं और परीक्षण कर सकते हैं, लेकिन यह सत्य है कि पूरे ग्रह के स्तर पर सोलर जियोइंजीनियरिंग का क्या प्रभाव होगा इसकी जानकारी का आकलन हम इसके होने के बाद ही कर सकते हैं।”
ग्रह की सीमाओं पर पड़ने वाले संभावित प्रभाव
सोलर जियोइंजीनियरिंग से ग्रह की सतह तक पहुंचने वाले सौर विकरण (प्रकाश) की मात्रा कम हो जाएगी और इस तरह पृथ्वी पर इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा। ग्रह ठंडा तो हो जायेगा परन्तु समान रूप से नहीं होगा। कंप्यूटर मॉडल के अनुसार हो सकता है कि अमेज़ॅन क्षेत्र सूखा और गर्म हो जाये। जिसके कारण इस बात की सम्भावना बढ़ सकती है कि अधिकांश जंगलों में आग लग जाये और अधिकांश वर्षा वन ख़त्म हो जाने की भी सम्भावना बढ़ सकती है। नतीजन, पहले से ही बढ़ा हुआ कार्बन संभावित रूप से और बड़े पैमाने पर उत्सर्जित हो सकता है।
फिर वायुमंडल में अमेज़न से उत्सर्जित होने वाला यह विशालकाय कार्बन, जैव विविधता को कम करते हुए नाटकीय रूप से पृथ्वी के तापमान को बढ़ाएगा, जो कि ग्रह के लिए आपदा का कारण बन जायेगा। इसका प्रभाव मॉडरेट जलवायु परिवर्तन के आईपीसीसी परिदृश्यों से भी बदतर हो सकता है।
हो सकता है कि कार्बन उत्सर्जन में आये भारी कमी के चलते, समुद्री अमलीकरण बद से बदतर होता चला जाए।
पृथ्वी के सतह पर पहुंचने वाली सौर विकिरण (सोलर रेडिएशन) को कम करने से सौर उर्जा का मौजूदा विकल्प प्रभावित होगा। निश्चित रूप से आने वाले समय में, सौर उर्जा को जीवाश्म ईंधन के एक बेहतर विकल्प के तौर पर देखा जाता है।
वहीं सौर जियोइंजीनियरिंग के समर्थकों का तर्क है कि यह नई तकनीक तभी सफल हो सकती है जब इसे आक्रामक डीकार्बोनाइजेशन के साथ जोड़कर पूरा किया जाए। वहीं इसके आलोचकों का मानना है कि इसकी तैनाती कार्बन उत्सर्जन को कम करने वाले प्रयासों को खतरे में डाल देगी। उनका तर्क है कि उद्योगों के पैरोकार, जलवायु परिवर्तन के ख़ारिज कर्ता, और कुछ सरकारें, राजनीतिक तौर से जियोइंजीनियरिंग के समाधान को हथियार के बतौर इस्तेमाल करेंगे ताकि कार्बन उत्सर्जन में कमी करने के बोझ से निवृत हुआ जा सके।
बिएर्मेन्न कहते है, “सबसे अच्छा विकल्प यही है कि जिन्न को बोतल में रहने दिया जाये और इन बेहद खतरनाक तकनीकों की शुरुआत ही नहीं की जाये। हमें उन मनगढ़ंत गैर-मौजू टेक्नोलॉजी की कहानियों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है, बल्कि यह अच्छा होगा कि हम अपना ध्यान डीकार्बोनाइजेशन पर केन्द्रित करें जो कि वास्तव में वर्तमान समय की एक मुख्य चुनौती है।”
संदर्भ :
Biermann, F., Oomen, J., Gupta, A., Ali, S. H., Conca, K., Hajer, M. A., … VanDeveer, S. D. (2022). Solar geoengineering: The case for an international non-use agreement. Wiley Interdisciplinary Reviews: Climate Change, e754. doi: 10.1002/wcc.754
Trisos, C.H., Amatulli, G., Gurevitch, J. et al. Potentially dangerous consequences for biodiversity of solar geoengineering implementation and termination. Nat Ecol Evol 2, 475–482 (2018). doi: 10.1038/s41559-017-0431-0
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बैनर तस्वीरः पिछले साल स्वीडिश अंतरिक्ष निगम के साथ मिलकर हार्वर्ड अनुसंधान इकाई द्वारा स्ट्रैटोस्फेरिक गुब्बारे के साथ एक सौर सोलर जियोइंजीनियरिंग टेक्नोलॉजी के परीक्षण की योजना बनाई गई थी। इसे लोगों के भारी विरोध के बाद स्थगित कर दिया गया था। फोटो-नासा/गोद्दर्द/बैरल के सौजन्य से।