- हाल ही में किए गए एक अध्ययन में भारत में बायो ऊर्जा संसाधन के रूप में फसलों के बचे हुए अवशेषों की उपलब्धता की क्षमता का अनुमान लगाया गया है।
- इस अध्ययन में जिले और महीने-वार जानकारी के साथ-साथ अलग-अलग फसलों के बचे हुए अवशेषों के डेटा जुटाए गए हैं। इससे बायोमास के रूप में अवशेषों के इस्तेमाल में आ रही बाधाओं को दूर करने में मदद मिल सकती है।
- पर्यावरण और इंसानी सेहत पर बुरे असर और भारत सरकार द्वारा इसका मुकाबला करने की कोशिशों के बावजूद, फसल अवशेष जलाना सामान्य परिपाटा बनी हुई है, जिससे हानिकारक गैसों का उत्सर्जन होता है।
हाल ही मे हुए एक अध्ययन में दावा किया गया है कि फसलों के अवशेषों से बायो ऊर्जा का उत्पादन करने की भारत की क्षमता पहले के अनुमान से कम है। यह सालाना 1313 पेटाजूल्स (PJ) (1 PJ = 277778 मेगावाट) बायोएनर्जी बनाने की क्षमता का सुझाव देता है, जो 1738 से 4150 PJ तक के पहले के अनुमान से कम है। हालांकि, अध्ययन जिले और अलग-अलग फसलों की बायो-ऊर्जा क्षमता से जुड़े जरूरी आंकड़े देता है, जो देश को बेहतर योजना बनाने और उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल करने में मदद कर सकता है।
यह अध्ययन पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) की मदद से किया गया है। भारत भर में किए गए इस अध्ययन में पाया गया कि चावल, गेहूं, गन्ना, मक्का, बाजरा, मूंगफली, तिलहन, कपास और केला जैसी फसलों के अवशेषों को जलाया जाता है। ये अवशेष कटाई के बाद बचे हुए पदार्थ होते हैं। अध्ययन से पता चलता है कि फसल के अवशेषों को जलाना, इनसे निपटने का आसान और कम लागत वाला तरीका है। हालांकि, फसल अवशेष जलाने से हानिकारक गैसें निकलती हैं। लेकिन इनसे बायो ऊर्जा बनाई जा सकती है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) और भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर) और अन्य सहित सोलह संस्थानों ने इस अध्ययन में मदद की। अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने देशव्यापी सर्वेक्षणों के लिए बॉटम-अप दृष्टिकोण (जमीनी सर्वेक्षण से शुरू) का इस्तेमाल किया। इसका मकसद खेत में जलाए जाने वाले फसल के बचे हुए अवशेषों की मात्रा का अनुमान लगाना था। अध्ययन के लिए 43 से ज्यादा प्रतिनिधि जिलों से प्राथमिक सर्वेक्षण डेटा जुटाए गए। साथ ही, मवेशियों की संख्या, सामाजिक-आर्थिक वेरिएबल और उपग्रह से मिली जानकारी से संबंधित सेकेंडरी डेटा का इस्तेमाल किया गया। खोज के आधार पर, शोधकर्ताओं ने इसे भारत के सभी 735 जिलों में विस्तारित करने के लिए एक मॉडल बनाया, जो जगह के हिसाब से होने वाले बदलाव और मौसमी उपलब्धता दोनों को दिखाता है।
शोध पत्र में दावा किया गया है कि रिसर्च के नतीजे बायो-ऊर्जा उत्पादन के लिए बचे हुए बायोमास का असरदार तरीके से उपयोग करने के साथ-साथ वायु प्रदूषण को रोकने के लिए पराली जलाने को नियंत्रित करने के लिए जरूरी हैं।
अध्ययन में पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के मध्य/पश्चिमी क्षेत्रों, महाराष्ट्र और गुजरात के जिलों में बचे हुए अवशेषों से जैव ऊर्जा की बड़ी संभावनाओं का अनुमान लगाया गया है। अध्ययन के अनुसार, अधिशेष ऊर्जा क्षमता में चावल (28%) और गेहूं (29%) का सबसे बड़ा योगदान है। इसके बाद गन्ना (13%) है। अध्ययन उन महीनों को इंगित करता है जब प्रत्येक राज्य में बायो-ऊर्जा उपलब्ध हो जाती है। अधिकांश अवशेषों की उपलब्धता रबी (मार्च-मई) और खरीफ (अक्टूबर-नवंबर) की फसल अवधि से मेल खाती है। कुछ अवशेष (जैसे गन्ना और केला) दिसंबर और फरवरी के बीच उपलब्ध होते हैं। देश के मानसून महीनों (जून-सितंबर) में बायो–ऊर्जा की उपलब्धता कम है।
अध्ययन में दी गई जगह, मौसम और फसल-विशिष्ट बायोमास उपलब्धता की जानकारी, भारत में बायो ऊर्जा संसाधन के रूप में फसल अवशेषों के इस्तेमाल में आने वाली बाधाओं को दूर करने में मदद कर सकती है।
क्षमता का इस्तेमाल
अध्ययन में कहा गया है कि बायोमास, नवीन ऊर्जा का एक स्रोत है और यह कार्बन न्यूट्रल है। इसके जरिए गांवों में रोजगार के अवसर भी पैदा किए जा सकते हैं। बायो-ऊर्जा संसाधन के रूप में फसल अवशेषों का इस्तेमाल उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य हासिल करने में मदद करता है जिसके चलते हवा की गुणवत्ता बेहतर होगी। बायोएनर्जी का इस्तेमाल अलग-अलग रूपों में किया जा सकता है, जैसे कोयला बिजली संयंत्रों और स्वतंत्र थर्मल पावर प्लांट (टीपीपी) में कोफायरिंग, चीनी उद्योगों में सह-उत्पादन में जलाना, बायोगैस और बायोएथेनॉल।
बायोमास इस्तेमाल के अनेक फायदों और अनेक नीतिगत हस्तक्षेपों के बावजूद, पराली जलाने की घटनाओं में बहुत ज्यादा कमी नहीं आई है। हालांकि सरकार ने ख़रीफ़ सीज़न के दौरान पराली जलाने की घटनाओं में लगभग 30% की गिरावट होने की बात कही है। लेकिन जानकारों ने पिछले साल की तुलना में ज़मीनी बदलाव की स्पष्ट तस्वीर देने के लिए सिर्फ उपग्रह डेटा के इस्तेमाल पर सवाल उठाए हैं।
अध्ययन के प्रमुख लेखकों में से एक आईआईटी-बॉम्बे के तवीन एस. कपूर ने मोंगाबे इंडिया से कहा कि इस्तेमाल नहीं होने, अवशेषों को हटाने और परिवहन में ज्यादा खर्च के चलते किसान फसल अवशेषों को जला देते हैं। फिलहाल अवशेष से कमाई का कोई जरिया नहीं है। इसके चलते बायो ऊर्जा संसाधन के रूप में फसल अवशेषों का इस्तेमाल करने के लिए इन्हें जमा करना और इनका परिवहन महंगा हो जाता है।
नई दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संस्था विज्ञान और पर्यावरण केंद्र (सीएसई) द्वारा किए गए एक अलग अध्ययन में कृषि-अवशेषों (फसल अवशेषों) के कम इस्तेमाल को रेखांकित किया गया है। इसमें पाया गया है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में ग्यारह कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों में सालाना खपत होने वाले कोयले का एक फीसदी भी कृषि अवशेषों के जरिए प्रतिस्थापित नहीं किया गया है। ऊर्जा मंत्रालय (एमओपी) ने थर्मल पावर प्लांटों को कोयले के साथ-साथ सात फीसदी बायोमास छर्रों (खेत के ठूंठ का सघन रूप) का इस्तेमाल करने का आदेश दिया है।
यह स्थिति तब है जब बचे हुए अवशेष मौजूदा नियमों को पूरा करने के लिए पर्याप्त हैं। कपूर कहते हैं, “हमारे अध्ययन से पता चलता है कि बचे हुए मौजूदा अवशेष बिजली संयंत्रों में ऊर्जा जरूरतों का लगभग आठ फीसीद पूरा कर सकते हैं। यह सिस्टम को लागत कम करने के लिए संग्रह और परिवहन समस्याओं के लिए नए समाधान खोजने के लिए मजबूर करेगा।”
शोध से यह भी पता चलता है कि टीपीपी में साथ में जलाने के लिए बचे हुए अवशेषों का इस्तेमाल फिलहाल परिवहन की ज्यादा लागत के चलते सीमित है। इससे यह पता चलता है कि फसल अवशेष वाली जगहों के करीब बायोगैस और बायोएथेनॉल जैसे कारखाने लगाना जरूरी है।
कपूर का मानना है कि बचे हुए फसल अवशेषों का इस्तेमाल उसी जगह या बायोगैस/जैव ईंधन उत्पादन संयंत्रों के पास में करना संभवतः सबसे अच्छा विकल्प है। गांवों के समूह से बचे हुए अवशेष लेने के लिए बायोगैस/जैव ईंधन उत्पादन संयंत्र लगाए जा सकते हैं। उत्पादित ईंधन की खपत गांवों में ही की जा सकती है, विशेषकर बायोगैस जो बायोमास-आधारित खाना पकाने की जगह ले सकती है। इथेनॉल और बायोगैस दोनों को क्रमशः पेट्रोल और सीएनजी के साथ मिलाया जा सकता है।
यह पक्का करने के लिए कि टीपीपी बायोमास छर्रों के अनिवार्य सम्मिश्रण का इस्तेमाल करें, एमओईएफसीसी ने 14 जुलाई को उन बिजली संयंत्रों पर जुर्माना लगाने के लिए एक अधिसूचना जारी की जो अनिवार्य सम्मिश्रण नियम का पालन नहीं करते हैं।
फर्क को दूर करना
पिछले दशक में, केंद्र सरकार ने बचे हुए बायोमास का असरदार तरीके से इस्तेमाल करने के लिए कई नीतियां बनाई हैं, खासकर पराली जलाने को नियंत्रित करने के लिए।
साल 2014 के नवंबर महीने में, कृषि मंत्रालय फसल अवशेष प्रबंधन के लिए राष्ट्रीय नीति (एनपीएमसीआर) लेकर आया। जनवरी 2019 में, पर्यावरण मंत्रालय ने देश भर में वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए दीर्घकालिक, समयबद्ध, राष्ट्रीय स्तर की रणनीति के रूप में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी/NCAP) लॉन्च किया। एनसीएपी ने गंगा के मैदानी इलाकों में कृषि फसल अवशेष जलाने को वायु प्रदूषण का एक प्रमुख कारण बताया है। 8 अक्टूबर, 2021 को, ऊर्जा मंत्रालय ने बदलाव के साथ बायोमास नीति जारी की, जिसमें देश के सभी टीपीपी को कोयले के साथ जलाने के लिए 5-7% बायोमास छर्रों का इस्तेमाल करना अनिवार्य किया गया। इसके अलावा, वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम) ने पराली जलाने से होने वाले वायु प्रदूषण को रोकने के लिए दिल्ली के तीन सौ किलोमीटर के भीतर स्थित टीपीपी को बायोमास-आधारित छर्रों को फायर करने का निर्देश दिया। हालांकि, ये कोशिशें बायोमास के इस्तेमाल को बढ़ावा देने में सक्षम नहीं हैं।
सीएसई में औद्योगिक प्रदूषण इकाई की कार्यक्रम अधिकारी अनुभा अग्रवाल का कहना है कि कोयले के बजाय बचे हुए बायोमास का इस्तेमाल करना समझ में आता है। ऐसा इसलिए क्योंकि बायोमास छर्रों का कैलोरी मान कोयले के बराबर होता है (जब टीपीपी में इस्तेमाल किया जाता है)। यह दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र जैसे अन्य राज्यों में भी कोयले की जगह ले सकता है, जहां बहुत सारे उद्योग अलग-अलग रूपों में बायोमास ईंधन का इस्तेमाल कर रहे हैं।
धीमी प्रगति पर प्रतिक्रिया देते हुए, अग्रवाल आगे बताती हैं कि कृषि-बायोमास की आपूर्ति श्रृंखला बेहद पेचीदा है और इसे बढ़ाना मुश्किल है। सभी हितधारक (एमओपी, सीएएक्यूएम, एमओईएफसीसी) एक साथ काम कर रहे हैं और 2021 में SAMARTH (थर्मल पावर प्लांट्स में कृषि-अवशेषों के इस्तेमाल पर टिकाऊ कृषि मिशन) पोर्टल लेकर आए। लेकिन अधिकारियों के बीच समन्वय की कमी है। टीपीपी और पेलेट निर्माताओं के पास बताने और एक-दूसरे पर अंगुली उठाने के लिए अपनी-अपनी कहानियां हैं।
कपूर इस बात से सहमत हैं कि फसल अवशेषों के कुशल उपयोग के लिए आपूर्ति श्रृंखला मॉडल को पिछले शोध द्वारा आवश्यक जानकारी के रूप में पहचाना गया है। जबकि अवशेषों की कीमत तय होने से किसानों को अपने खेतों से अवशेषों के यांत्रिक संग्रह की लागत को कवर करने में मदद मिलेगी।
कई वजहें बचे हुए फसल अवशेषों के इस्तेमाल को प्रभावित करती हैं – मौसमी उपलब्धता, गुणवत्ता, लॉजिस्टिक, बायोमास छर्रों की मांग और आपूर्ति में अंतर। साथ ही, बायोमास छर्रों की कीमत घरेलू कोयले से लगभग दोगुनी है।
हितधारकों के सामने आने वाले कई मुद्दों को ध्यान में रखते हुए, ऊर्जा मंत्रालय ने पावर प्लांट द्वारा बेंचमार्क कीमतों पर बायोमास छर्रों की खरीद को बढ़ावा देने के लिए जून 2023 में बायोमास को-फायरिंग नीति में बदलाव किया। यह फैसला किसानों, उद्यमियों और थर्मल पावर उपयोगिताओं को एक स्थायी बायोमास आपूर्ति श्रृंखला स्थापित करने के प्रयास के लिए प्रोत्साहित करेगा। नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) ने 28 जून की अपनी अधिसूचना में, राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन की प्रोत्साहन योजना के तहत 40,000 मीट्रिक टन प्रति वर्ष के हरित हाइड्रोजन लक्ष्य के बायोमास-आधारित उत्पादन की भी शुरुआत की।
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अग्रवाल टीपीपी, बायो-सीएनजी, बायोएथेनॉल और हाइड्रोजन जैसे कई उपयोगों के लिए बायोमास की मात्रा तय नहीं किए जाने को एक बड़ी बाधा के रूप में देखती हैं। वह कहती हैं, ”हम किसी क्षेत्र में मांग और बचे हुए बायोमास उपलब्धता के स्पष्ट विचार के बिना छर्रों, बायो-सीएनजी और बायो-एथेनॉल बनाने की अपनी क्षमता में तेजी से बढ़ोतरी कर रहे हैं।”
आईआईटी और अन्य संस्थानों के ताजा शोध के बारे में कपूर आगे बताते हैं कि फसल अवशेष प्रबंधन की बेहतर योजना से गांव के लोगों के लिए रोजगार भी पैदा होगा और स्थानीय खेतों के लिए उप-उत्पाद के रूप में जैविक उर्वरक भी बन सकेंगे। बायोगैस संयंत्र अन्य सामग्रियों जैसे गाय के गोबर, नगरपालिका के ठोस कचरे और खाद्य प्रसंस्करण अपशिष्ट का भी इस्तेमाल कर सकते हैं, जो कच्चे माल की स्थिर आपूर्ति पक्का करता है।
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बैनर तस्वीरः तमिलनाडु के कोल्ली हिल्स में किसान हाथ से धान निकाल रहे हैं। अध्ययन से पता चलता है कि फसल के अवशेषों को जलाना, इनसे निपटने का आसान और कम लागत वाला तरीका है। तस्वीर– पी जेगनाथन/विकिमीडिया कॉमन्स
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