- कॉप28 में जीवाश्म ईंधन को लेकर ऐतिहासिक करार हुआ है। यह करार जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को खत्म करने का वादा करता है। लेकिन पूंजी और भागीदारी से जुड़ी चिंताएँ बनी हुई हैं।
- यह समझौता साल 2030 तक नवीन ऊर्जा क्षमता को तीन गुना और ऊर्जा कुशलता को दोगुना करने पर जोर देता है। साथ ही, बिजली बनाने में कोयला के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के लिए कॉप27 की प्रतिबद्धता को दोहराता है।
- वैसे इस करार को यूएई सहमति कहा जा रहा है। इसमें आगे किए जाने वाले कामों की रूपरेखा भी है। लेकिन ढुलमुल लहजे और अपर्याप्त वित्तीय प्रतिबद्धता के लिए इसकी आलोचना भी हो रही है।
- कुछ पक्षों ने जलवायु कार्रवाई में बराबरी, अलग-अलग जिम्मेदारियों और वित्तपोषण को बेहतर बनाने पर जोर देते हुए अपनी आपत्तियां भी दर्ज कराई।
कॉप28 में जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को खत्म करने पर ऐतिहासिक समझौता हुआ है। यह करार संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की अध्यक्षता में हुए 28वें कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी28/कॉप28) में हुआ। इसमें सभी देशों से जीवाश्म ईंधन का ”इस्तेमाल खत्म करने” और बढ़ते तापमान को 1.5 डिग्री तक सीमित करने का आह्वान किया गया है। अट्ठाईस सालों से जारी जलवायु वार्ता में पहली बार इस वाक्यांश का उल्लेख किया गया है। 13 दिसंबर को समापन सत्र के दौरान कॉप28 के अध्यक्ष सुल्तान अल जाबेर ने कहा, “कोई समझौता उतना ही अच्छा होता है जितना उसे लागू करने की मंशा।” “हमें इस समझौते को जमीन पर उतारने के लिए जरूरी कदम उठाने चाहिए।”
अल जाबेर ने इस दस्तावेज को “यूएई आम सहमति” का नाम दिया है। उन्होंने इसे पेरिस समझौते के तहत अब तक हुई प्रगति के राजनीतिक संदेशों और ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने और संभव हो तो 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए जरूरी भावी कार्ययोजना का प्रतीक बताया।
इस समझौते के लिए नेताओं और प्रतिनिधियों ने कॉप28 अध्यक्ष को बधाई दी। कई लोगों ने इस करार को उम्मीदों से भरा और मील का पत्थर बताया। जलवायु परिवर्तन के लिए अमेरिका के विशेष दूत जॉन केरी ने समापन सत्र के दौरान कहा, “यह एक ऐसा क्षण है जहां असल में कई देश एक साथ आए हैं और लोगों ने निजी हितों को ध्यान में रखते हुए आम भलाई को परिभाषित करने की कोशिश की है।”
भारत के पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव ने कहा कि यूएई प्रेसीडेंसी ने कॉप28 के पहले दिन भी इतिहास रचा। इस दिन जलवायु-प्रेरित नुकसान और क्षति के लिए कोष ने काम करना शुरू किया। उन्होंने पूर्ण सत्र में कहा, “भारत आग्रह करता है कि सीओपी में दिखाया गया दृढ़ संकल्प इसे जमीन पर उतारने के साधनों के साथ भी मजबूत हो।” उन्होंने आगे कहा, “यह बराबरी और जलवायु न्याय के सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए, जो राष्ट्रीय परिस्थितियों के हिसाब से सम्मानजनक हो। साथ ही, विकसित देश अपने ऐतिहासिक योगदान के आधार पर नेतृत्व करें।”
लेकिन यह समझौता उन पक्षों के साथ पूरी रात विचार-विमर्श के बाद जल्दबाजी में प्रस्तावित किया गया जो समझौते की पिछली बातों को दोहराने से नाखुश थे। जानकारों का कहना है कि जीवाश्म ईंधन का उल्लेख ऐतिहासिक है, लेकिन नवीन ऊर्जा और अन्य प्रणालियों में समान रूप से बदलाव करने के लिए समझौते में मजबूत लहजे का अभाव है। एलायंस ऑफ स्मॉल आइलैंड स्टेट्स (एओएसआईएस/ AOSIS) की ओर से समोआ के प्रमुख वार्ताकार ऐनी रासमुसेन ने कहा, “हम इस पाठ में कई खामियां देखते हैं जो हमारे लिए चिंताजनक हैं।” एओएसआईएस जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को पूरी तरह खत्म करने की मांग कर रहा है।
‘यूएई आम सहमति’
“यूएई आम सहमति” अनिवार्य रूप से ग्लोबल स्टॉकटेक (जीएसटी/GST) का नतीजा है। यह पेरिस समझौते के कार्यान्वयन के बारे में पता लगाने का पहला तरीका है। इसके सुझावों में जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान को कम करना, अनुकूलन (एडेप्टेशन) और वित्त जैसे “कार्यान्वयन के साधन” जैसे काम शामिल हैं।
समझौते में उत्सर्जन में कटौती पर कहा गया है कि देशों को साल 2030 तक नवीन ऊर्जा क्षमता को तीन गुना और ऊर्जा कुशलता में सुधार को दोगुना करना चाहिए। जिन क्षेत्रों में यह काम मुश्किल है, वहां कार्बन कैप्चर और भंडारण जैसी तकनीकों का इस्तेमाल करना चाहिए। साथ ही, साल 2030 तक मीथेन जैसी गैर-कार्बन ग्रीनहाउस गैसों से उत्सर्जन को “काफ़ी हद तक कम” करने पर काम करना चाहिए। इसने पिछले साल कॉप-27 से कोयला से बिजली बनाने को चरणबद्ध तरीके से कम करने की जरूरत को भी दोहराया और अकुशल जीवाश्म सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की सिफारिश की जो “ऊर्जा गरीबी या जस्ट ट्रांजिशन को दूर नहीं करती है।”
दो सप्ताह के शिखर सम्मेलन के दौरान बातचीत में समझौते वाले पाठ में जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल “चरणबद्ध तरीके से खत्म करने” की संभावना हावी रही और इसे करार में शामिल किया गया। इस वजह से, इस तरह की शर्तों पर विकसित और विकासशील देशों के बीच गहरे मतभेद पैदा हो गए। सऊदी अरब ने किसी भी तरह के जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की भाषा का पुरजोर विरोध किया। वहीं, कई विकासशील देशों ने जीवाश्म ईंधन को पूरी तरह खत्म करने की महत्वाकांक्षा को समर्थन देने के लिए विकसित देशों से नहीं मिलने वाली पर्याप्त वित्तीय मदद और समर्थन की ओर इशारा किया।
आम सहमति के साथ 13 दिसंबर को अपनाए जाने से पहले वैश्विक स्टॉकटेक पाठ के छह मसौदे तैयार हुए। इनमें कहा गया था कि देशों को साल 2050 तक वैश्विक नेट-जीरो उत्सर्जन की उपलब्धि हासिल करने के लिए “ऊर्जा प्रणालियों में जीवाश्म ईंधन से दूर जाना चाहिए।”
एडवोकेसी ग्रुप ऑयल चेंज इंटरनेशनल के वैश्विक अभियान प्रबंधक रोमेन इओलालेन ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “ऊर्जा परिवर्तन या जीवाश्म ईंधन से दूर जाने का समर्थन करने के लिए विकसित देशों की तरफ से पर्याप्त वित्तीय सहायता देने की जरूरत पर यह पाठ बहुत कमजोर है।” “यह चिंताजनक है, क्योंकि इस बात का कोई वास्तविक मतलब नहीं है कि बदलाव को वित्तपोषित करने के लिए कितना पैसा चाहिए। यह वास्तव में न्यायसंगत नहीं हो सकता जब तक कि इस बारे में पता ना हो।”
वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट इंडिया (WRI) में जलवायु की निदेशक उल्का केलकर ने कहा, जीवाश्म ईंधन से दूर जाने के ऐतिहासिक फ़ैसले निर्णय में सबसे बड़ी खामियों में से एक यह है कि यह “मानता है कि ट्रांजिशनल ईंधन” यानी प्राकृतिक गैस “ऊर्जा सुरक्षा पक्का करते हुए ऊर्जा संक्रमण को सुविधाजनक बनाने में भूमिका निभा सकती हैं।” उन्होंने कहा कि पाठ “इस अहम दशक में” विकसित देशों को अपने जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की जिम्मेदारी से मुक्त करता हुआ दिखाई देता है।
उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर एक पोस्ट में पूछा, “क्या “ट्रांजिशनल ईंधन” का संदर्भ गैस उत्पादक देशों को नवीन ऊर्जा में निवेश करने के बजाय ज्यादा गैस बेचने का लाइसेंस देता है? ऊर्जा सुरक्षा के लिए, गैस पाइपलाइनों और टर्मिनलों के बजाय नवीन ऊर्जा भंडारण और ग्रिड में निवेश क्यों नहीं किया जाए?”
कॉप28 के अध्यक्ष की ओर से प्रस्तुत किए गए समझौते से सभी पक्ष खुश नहीं थे और उन्होंने अपनी आपत्तियां दर्ज कराईं। बोलीविया के प्रतिनिधिमंडल के प्रमुख डिएगो पचेको ने कहा, “हम ऐसे नतीजे का समर्थन नहीं कर सकते जो दुनिया को संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन और उसके पेरिस समझौते के कार्यान्वयन के एक नए युग में समानता, सामान्य लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों, विकसित और विकासशील देशों के बीच भेदभाव और देशों के लिए मजबूत वित्तपोषण और कार्यान्वयन के साधनों के बगैर ले जाता है।” “विकसित देश जलवायु कार्रवाई पर पहल करने के लिए सहमत नहीं हुए हैं।”
ऐनी रासमुसेन ने कहा कि एओएसआईएस ने समझौते में ट्रांजिशन ईंधन को शामिल करने पर आपत्ति जताई और इसे “समस्याग्रस्त” बताया।
उन्होंने कहा, “कटौती पर पैराग्राफ को इस तरह से माना जा सकता है कि जैसे यह आने वाले समय की जिम्मेदारियों से मुक्त करता है। ‘अकुशल‘ जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से खत्म करना समस्याग्रस्त है। इससे ऐसी खामियां पैदा हो रही हैं जो पहले नहीं थीं।”
अनुकूलन और वित्त पर समझौता कमज़ोर
जलवायु परिवर्तन से जुड़ी कार्रवाई पर महत्वाकांक्षी होने के बावजूद, जानकारों का कहना है कि यह समझौता विकासशील देशों को जलवायु वित्त पर भरोसा देने में विफल है। संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के तहत, विकसित देश विकासशील देशों में अनुकूलन और जलवायु परिवर्तन रोकने में मदद के लिए जलवायु वित्त प्रदान करने में “नेतृत्व करने” के लिए बाध्य हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, आखिरी समझौता इस जिम्मेदार को “याद” करता है। यह एक कमजोर शब्द है जिससे भरोसा पैदा नहीं होता है।
द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टीईआरआई) में पृथ्वी विज्ञान और जलवायु परिवर्तन के फेलो और कार्यक्रम निदेशक आरआर रश्मी ने कहा, “वैश्विक स्टॉकटेक में प्रस्तावित कामों और महत्वाकांक्षाओं का समर्थन करने के लिए सिस्टम के भीतर कुछ भी उपलब्ध नहीं है।”
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पूर्व में भी विकसित देश समय पर वित्तीय संसाधन उपलब्ध नहीं करा पाए हैं। ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (सीईईडब्ल्यू) के सीईओ अरुणाभ घोष ने एक बयान में कहा, “असरदार वित्तीय तंत्र स्थापित करने, ऐतिहासिक उत्सर्जकों को वित्तीय योगदान देने के लिए बाध्य करने में कॉप28 की विफलता, विकासशील देशों के लिए उनके राष्ट्रीय स्तर पर तय योगदान को पूरा करने में समर्थन को खतरे में डालती है।” उन्होंने कहा, “जलवायु संकट की तात्कालिकता सीओपी की प्रक्रिया में तुरंत सुधार की मांग करती है, ताकि यह पक्का किया जा सके कि जवाबदेही, कार्यान्वयन और जलवायु न्याय सभी कोशिशों के केंद्र में हो। नहीं तो, भविष्य के सीओपी के बेकार हो जाने का जोखिम है।”
वित्तीय संसाधानों पर व्यापक बातचीत अगले साल अजरबैजान में कॉप-29 में होने वाली है। इस दौरान वित्त पर तय किए गए सामूहिक लक्ष्यों के बारे में बातचीत को आखिरी रूप दिया जाएगा, जो लंबे समय से चले आ रहे 100 बिलियन डॉलर के लक्ष्य की जगह लेगा, जिसे विकसित देश पूरा नहीं कर पाए हैं।
कॉप28 ने अनुकूलन पर वैश्विक लक्ष्य भी तय किया है – यह लक्ष्य पेरिस समझौते के तापमान लक्ष्य के बराबर है, जिसे लेकर सभी पक्षों के बीच मतभेद हैं। रश्मी ने कहा, “यह सराहनीय है कि प्रेसीडेंसी इस लक्ष्य के लिए एक रूपरेखा तैयार कर पाई।”
यह लक्ष्य साल 2030 तक सात प्रमुख लक्ष्य क्षेत्रों में आगे बढ़ने के लिए सभी पक्षों से आग्रह करता है, जिसमें पानी की कमी को कम करना, जलवायु के अनुकूल खाने-पीने की चीजें और खेती-बाड़ी की तरीकों का इस्तेमाल शुरू करना, जैव विविधता और स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के असर को कम करना शामिल है। साथ ही, इसमें बुनियादी ढांचे और मानव बस्तियों को जलवायु अनुकूल बनाना, गरीबी खत्म करने और आजीविका से जुड़ी कोशिशों पर जलावयु परिवर्तन के प्रतिकूल असर को कम करना शामिल है। वहीं यह लक्ष्य जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से सांस्कृतिक विरासत को बचाने पर भी जोर देता है।
इस खबर को 2023 क्लाइमेट चेंज मीडिया पार्टनरशिप, इंटरन्यूज अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क और स्टेनली सेंटर फॉर पीस एंड सिक्योरिटी द्वारा आयोजित पत्रकारिता फेलोशिप के हिस्से के रूप में तैयार किया गया था।
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बैनर तस्वीर: 13 दिसंबर, 2023 को संयुक्त अरब अमीरात के दुबई स्थित एक्सपो सिटी में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन कॉप28 के समापन समारोह के दौरान प्रतिनिधि। तस्वीर– कॉप28/क्रिस्टोफ़ विसेक्स/फ़्लिकर।