- एक नई स्टडी में राजस्थान के सवाई मानसिंह वाइल्डलाइफ सैंक्चुरी में पालतू जानवरों और जंगली पशुओं के शवों को लकड़बग्घों द्वारा खा लिए जाने से होने वाले आर्थिक फायदों का आकलन किया गया है।
- कचरे के निपटारे में धारीदार लकड़बग्घों का यह योगदान बीमारियों के प्रसार को रोकने में भी काफी अहम हो सकता है।
- स्थानीय लोगों को लकड़बग्घों के इस तरह से शवों को खाकर सफाई करने के आर्थिक फायदों के बारे में जागरूक करके उनकी नकारात्मक छवि को सुधारा जा सकता है और इन जानवरों के संरक्षण में भी मदद मिल सकती है।
वैसे तो गिद्धों को शवों का निपटारा करने वाले जीवों के रूप में जाना जाता है लेकिन एक और ऐसा ही ‘सफाईकर्मी’ है जिसके योगदान को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, वह है लकड़बग्घा। अगस्त 2023 में प्रकाशित हुई एक नई स्टडी में पाया गया है कि राजस्थान के सवाई मानसिंह वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी में धारीदार लकड़बग्घे हर साल 23 टन पालतू जानवरों के शव और 17 टन जंगली जानवरों के शव खा गए। ये आंकड़े 2019 से 2020 के बीच हुई स्टडी के दौरान के हैं। इन लकड़बग्घों के चलते ही बिजली से शवों को जलाने या चिता पर जलाकर शवों को खत्म करने में आने वाला करोड़ों का खर्च बचा है। यह स्टडी अपने तरह का पहला अनुमान है जिसमें इंसानों की बहुलता वाले इलाकों में रह रहे धारीदार लकड़बग्घों की ओर से की जाने वाली सफाई को आर्थिक फायदों के रूप में देखा गया है।
उत्तर प्रदेश की एमिटी यूनिवर्सिटी के एमिटी इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट्री एंड वाइल्डलाइफ में असोसिएट प्रोफेसर और इस स्टडी के लेखक रणदीप सिंह कहते हैं, “हमने पाया कि धारीदार लकड़बग्घे बहुत बड़े स्तर पर पालतू और जंगलों जानवरों के शवों को खत्म करके सफाई कर रहे हैं। इससे न सिर्फ बीमारियां फैलने का खतरा कम होता है बल्कि साफ-सफाई रहती है, पर्यावरण साफ रहता है और आर्टिफिशियल तरीके से जानवरों के शवों को जलाने का खर्च भी बचता है। इस स्टडी से लकड़बग्घों की आमतौर पर नकारात्मक दिखने वाली छवि को भी बदला जा सकता है और उनके संरक्षण को भी बढ़ावा मिल सकता है।”
दुनियाभर में लकड़बग्घों की कुल चार प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें से भारत में धारीदार लकड़बग्घे पाए जाते हैं। कुत्तों के जैसे दिखने वाले धारीदार लकड़बग्घे (Hyaena hyaena) आकार में बड़े होते हैं और अकेले रहने वाले मांसाहारी जानवर होते हैं। ये पूर्वी अफ्रीका से दक्षिण एशिया के बीच शुष्क और अर्ध शुष्क इलाकों में पाए जाते हैं। शर्मीले और रात में दिखने वाले ये जानवर बहुत कम ही किसी जानवर का शिकार करते हैं या पालतू जानवरों को मारते हैं। आमतौर पर ये मरे हुए जानवरों के शव या फिर बड़े जानवरों जैसे की तेंदुआ या चीते के शिकार में से मौका देखकर अपना हिस्सा खा लेते हैं।
जानवरों की बड़ी संख्या और खराब सफाई व्यवस्था की वजह से इस इलाके में रहने वाले स्थानीय लोग जानवरों के शवों को खुले में और सड़क के किनारे फेंक देते हैं। ऐसे में इस क्षेत्र में सफाई की व्यवस्था सबसे अहम जन समस्या का रूप ले लेती है। नतीजतन, यह इलाका जूनोटिक बामीरियों के प्रति संवेदनशील हो जाता है और बाकी के जानवरों और इंसानों की सेहत पर इसका असर पड़ता है।
डेनमार्क की Aarhus यूनिवर्सिटी में मैरी स्कलोडोवस्का क्यूरी ऐक्शन्स फेलो एंड्रू अब्राहम इस स्टडी का हिस्सा नहीं हैं। वह कहते हैं, “लकड़बग्घों का नाम खराब है और आमतौर पर ये घृणा का भाव पैदा करते हैं। इसके बावजूद, हाल में आए ये वैज्ञानिक सबूत दर्शाते हैं कि असल में लकड़बग्घे इस पारिस्थितिकी तंत्र का अहम हिस्सा हैं और इंसानों के फायदे वाली कई अहम सेवाएं देते हैं।” अब्राहम के मुताबिक, यह स्टडी इस बात पर जोर देती है कि लकड़बग्घे एक स्वस्थ भूभाग का अहम हिस्सा हैं।
शवों के निपटारे पर आने वाला खर्च
इस स्टडी के लिए रणदीप सिंह और उनके सहयोगियों ने धारीदार लकड़बग्घों की ओर से की जाने वाली इस सफाई के आर्थिक योगदान को मापने की कोशिश की। यह काम राजस्थान के रणथम्बौर टाइगर रिजर्व की एक इकाई सवाई मानसिंह वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी के लकड़बग्घों के योगदान के लिए किया गया। इस सैंक्चुअरी के पांच किलोमीटर के बफर इलाके में कुल 75 गांव हैं और इस इलाके में लगभग 1 लाख लोग रहते हैं। जिस इलाके में स्टडी की गई वहां रहने वाले ज्यादातर लोग अपनी आजीविका खेती से कमाते हैं और इसे थोड़ा बल पशुपालन से भी मिलता है। रिसर्चर्स का मानना है कि हर महीने लगभग 40 से 50 पालतू जानवर अलग-अलग कारणों (उदाहरण के लिए बीमारियों, प्राकृतिक मृत्यु या शिकार में) से मर जाते हैं।
फोटो कैप्चर विधि का इस्तेमाल करके रिसर्चर्स ने इस इलाके में धारीदार लकड़बग्घों की कम से कम संख्या को निर्धारित किया। धारीदार लकड़बग्घों द्वारा खा लिए गए पालतू जानवरों के अनुपात का आकलन करने के लिए, इस टीम ने जानवरों के गोबर के सैंपल इकट्ठा किए और उनका विश्लेषण किया। इस तरह कुल दो विधियों बिजली से शव जलाने और चिता पर शव जलाने पर आने वाले खर्च का आकलन किया गया।
प्रोफेसर सिंह कहते हैं, “स्टडी के इलाकों में इन धारीदार लकड़बग्घों का मुख्य भोजन पालतू जानवर उसमें भी मुख्य रूप से गाय और भैंस थे।” इसके अलावा, नीलगाय, सांबर, जंगली सुअर और चीतल भी उनके भोजन का हिस्सा हैं।
स्टडी में सामने आया कि स्टडी के इलाके इन धारीदार लकड़बग्घों ने 2019 से 2020 के बीच हर साल पालतू जानवरों के लगभग 23 टन शव खा लिए थे जो कि कुल 525 टन शवों का कुल 4.4 प्रतिशत हिस्सा है। इतने शव को बिजली वाले शवदाह गृह में जलाने का खर्च लगभग 5.9 लाख रुपये और चिता पर जलाने का खर्च लगभग 41 लाख रुपये आता। रिसर्चर्स का मानना है कि बिना इन धारीदार लकड़बग्घों की सेवा के न सिर्फ इन शवों को निपटारा काफी महंगा होता बल्कि इससे पर्यावरण को भी काफी नुकसान होता।
वन अधिकारी इस आर्थिक लाभ का इस्तेमाल धारीदार लकड़बग्घों के प्रबंधन और उनके रहने की जगहों को विकसित करने में कर सकते हैं। प्रोफेसर सिंह सुझाव देते हैं, “हमारी सलाह है कि लकड़बग्घों की मदद से होने वाले आर्थिक लाभ का आकलन करने के लिए हमारे इस तरीके का इस्तेमाल उन इलाकों में भी हो सकता है जहां पालतू जानवरों के शवों का निपटारा एक बड़ी समस्या है और वहां के धारीदार लकड़बग्घे आंशिक तौर पर या पूरी तरह से पालतू जानवरों के शव खाने पर निर्भर हैं।” वह आगे कहते हैं कि इसी तरीके का इस्तेमाल करके अन्य जानवरों जैसे कि सियार और लोमड़ी की ओर से की जाने वाली इस तरह की सफाई के आर्थिक लाभ का आकलन किया जा सकता है।
प्रोफेसर सिंह आगे कहते हैं, “हमारी सलाह है कि लकड़बग्घों के इस तरह के शव के अवशेष खाने पर रोक न लगाई जाए जैसा कि इस इलाके में हुई पिछली स्टडी में सामने आया था कि कुछ स्थानीय लोग शव पर जहर डाल दे रहे थे। इससे लकड़बग्घों का जुटना प्रभावित हो सकता है, खासकर उन ग्रामीण इलाकों में जहां कचरा प्रबंधन एक बड़ी चुनौती है।”
अब्राहम इस रिसर्च का हिस्सा नहीं थे। उन्होंने कहा, “पालतू जानवरों के अवशेष खा लेने से ये लकड़बग्घे स्थानीय लोगों के पैसे बचा सकते हैं क्योंकि फिर जानवरों के शव को जलाने या दफनाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।” वह आगे कहते हैं, “इसके अलावा, ये जानवर अप्रत्यक्ष रूप से बीमारियां फैलने का खतरा कम कर सकते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र में अहम पोषक तत्वों को भी लौटा सकते हैं।”
अब्राहम इस बात पर जोर देते हैं कि यह रिसर्च इंसानों और जानवरों के आपसी संबंधों की अहमियत बताते हैं जिसके बारे में स्थानीय लोगों को लगता है कि इसका कोई फायद नहीं होना है। वह चेतावनी देते हैं, “जहां यह जरूरी है कि हम लकड़बग्घा समेत अन्य जानवरों की आर्थिक अहमियत को समझें वहीं हमें इस बात को लेकर भी सजग रहना होगा कि हम जानवरों को सिर्फ उनके आर्थिक पहलू की वजह से ही महत्व दें।” जानवरों की जरूरत पैसे बचाने से ज्यादा भी होती है।
अपने ताकतवर जबड़ों और दांतों की वजह से लकड़बग्घों की यह खूबी होती है कि वे हड्डियों को भी चबा सकते हैं और उसे खा जाते हैं। बिना हड्डियां खा जाने वाले जानवरों के पशुओं के कंकाल सालों तक ऐसे ही पड़े रहेंगे और उनका खत्म होना पर्यावरणीय परिस्थितियों पर निर्भर होगा।
साल 2021 में प्रकाशित एक स्टडी में अब्राहम और उनके साथियों ने लिखा था कि लकड़बग्घों के मल में कैल्शियम और फॉस्फोरस जो कि हड्डियों का मुख्य हिस्सा होती हैं, की मात्रा दक्षिण अफ्रीका के दो रिजर्व की स्थानीय मिट्टी की तुलना में 1000 से 20 हजार गुना ज्यादा होती है। अब्राहम कहते हैं, “नतीजतन, जिस मिट्टी में लकड़बग्घे मलत्याग करते हैं वह इन पोषक तत्वों से भरपूरी हो जाती है और उस पूरे भूभाग की उर्वरता बदल जाती है और पौधों की बढ़ोतरी के लिए काफी सकारात्मक बदलाव होते हैं और जानवरों के भोजन की गुणवत्ता में भी सुधार होता है।”
लकड़बग्घों का संरक्षण और इंसानों के साथ सहअस्तित्व
ज्यादातर देश अपने संरक्षित क्षेत्रों में बड़े मांसाहारी जानवरों जैसे कि चीते और तेंदुओं के संरक्षण पर ध्यान देते हैं। प्रोफेसर सिंह कहते हैं कि अक्सर लकड़बग्घों को नजरअंदाज कर दिया जाता है।
सवाई मानसिंह वाइल्ड लाइफ सैंक्चुअरी के पास का बफर इलाका और अंदर का इलाका जंगलों, घास के मैदानों, झाड़ वाले इलाकों, नदियों और खेतिहर जमीन के शानदार संयोजन से मिलकर बना है। धारीदार लकड़बग्घे इन सभी इलाकों में रह लेते हैं। हालांकि, खेती वाले इलाकों में इंसानों और धारीदार लकड़बग्घों की गतिविधियां आपस में टकराती हैं क्योंकि यहां ये शांतिपूर्ण ढंग से एकसाथ ही रहते हैं। इसका कारण है कि लकड़बग्घों को मानवजनित खाने से मदद मिलती है और इंसानों को लकड़बग्घों के गैर हिंसक व्यवहार और उनकी गंदगी साफ करने की सेवा से फायदा होता है।
सिंह कहते हैं, “घास के मैदान, झाड़ियों वाले इलाकों और नदियों के संरक्षण की जरूरत है क्योंकि लोग जमीन का इस्तेमाल कई कारणों से बदलते जा रहे हैं। इंसानों और लकड़बग्घों के शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के लिए जरूरी है कि स्थानीय लोगों को शिक्षित किया जाएगा, जागरूकता फैलाई जाए और साइट के लिए खास प्रबंधन और एक्शन प्लान को लागू किया जाए।” यह टीम कहती है कि स्थानीय लोगों में इस स्तर की जागरूकता फैलाई जाए कि वे धारीदार लकड़बग्घों के सफाई में योगदान को समझें और इसके आर्थिक पहलू को भी महत्व दें।
वह आगे कहते हैं, “वहीं, दूसरी तरफ गांव के पास की उन जगहों का सही प्रबंधन होना चाहिए जहां जानवरों के शव फेंके जाते हैं। इसमें इस बात का ध्यान दिया जाना चाहिए जानवरों के शवों के अवशेष जमीन पर तो फेके जाएं लेकिन उन्हें सड़क के किनारे न फेकें ताकि लकड़बग्घे जानवरों से न टकराएं।”
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
बैनर तस्वीर: धारीदार लकड़बग्घे की प्रतीकात्मक तस्वीर। तस्वीर– ऋषिकेश देशमुख डीओपी/विकिमीडिया कॉमन्स