- दुनिया भर में कार्बन उत्सर्जन में शहरों की हिस्सेदारी 70% है। साथ ही, वे जलवायु परिवर्तन से जुड़े दुष्प्रभावों का भी सामना करते हैं।
- अजरबैजान में जारी कॉप-29 में शामिल जानकारों और शहरों के प्रतिनिधियों (मेयर वगैरह) ने राष्ट्रीय स्तर पर तय योगदान में उप-राष्ट्रीय लक्ष्यों को ज्यादा मजबूती से शामिल करने की वकालत की है।
- शहरों के प्रतिनिधि जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के मकसद से नगरों को ज्यादा धन मुहैया कराने के लिए सार्वजनिक निवेश को बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं।
बाकू में चल रही जलवायु वार्ता में शहर जलवायु से जुड़े उपाय (क्लाइमेट ऐक्शन) के लिए अहम धुरी के रूप में सामने आ रहे हैं। दुनिया भर के कार्बन उत्सर्जन का 70% शहरों में होता है, जो उन्हें जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने में अहम बना देता है।
फिलहाल, दुनिया के लगभग 70% शहर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव का सामना कर रहे हैं। बाढ़, सूखा, लू और वायु प्रदुषण से होने वाली बीमारियां जैसी जलवायु से संबंधित चरम मौसमी घटनाएं दुनिया भर के शहरों को तेजी से प्रभावित कर रही हैं। साल 2050 तक, बाढ़ और सूखे जैसी चरम मौसमी घटनाओं से शहरों को सालाना लगभग 200 अरब डॉलर का नुकसान होगा। कॉप-29 में संयुक्त राष्ट्र-आवास (यूएन-हैबिटेट) की ओर से आयोजित कार्यक्रम में जलवायु परिवर्तन के इस बढ़ते हुए असर को सामने रखा गया, जहां संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों ने भविष्य के जलवायु उपायों में शहरों को शामिल करने पर जोर दिया।
कॉप-29 से पहले यूएन-हैबिटेट ने एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की। इसमें बताया गया कि किस तरह बढ़ती हुई चरम मौसमी घटनाएं शहरों और उपनगरों के बुनियादी ढांचे, पारिस्थितिकी तंत्र और प्राकृतिक वातावरण को नुकसान पहुंचाती हैं। ये आपदाएं शहरों में रहने वाले कमजोर समुदायों, ख़ास तौर पर झुग्गियों में रहने वाले लोगों, ग़रीबों, महिलाओं, बुज़ुर्गों और प्रवासियों पर असमान रूप से असर डालती हैं।
इस साल की शुरुआत में प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों के एक अन्य अध्ययन में बताया गया है कि विकास के अलग-अलग स्तरों वाले देश जलवायु आपदाओं के प्रति अलग-अलग तरह के जोखिम का सामना करते हैं। यही नहीं, जलवायु से संबंधित घटनाओं की एक जैसी संख्या के बावजूद विकासशील या अविकसित देशों की तुलना में बहुत ज्यादा विकसित देशों में इनका असर कम देखने को मिलता है। इस शोध पत्र में साल 2000 से 2020 के बीच जलवायु से संबंधित आपदाओं का अध्ययन किया गया और 46,000 घटनाओं का विश्लेषण किया गया।
यूएन-हैबिटेट की अर्बन प्रैक्टिस ब्रांच की प्रमुख शिप्रा नारंग सूरी ने कहा, “हम संकट के बढ़ते हुए दौर में रह रहे हैं।” उन्होंने आगे कहा कि शहर जलवायु, ऊर्जा, आवास, जीवन-यापन की लागत वगैरह से जुड़े कई संकटों से जूझ रहे हैं। शहरों में शहरीकरण और आबादी का घनत्व बढ़ने के साथ ये चुनौतियां और बढ़ेंगी, क्योंकि अनुमान है कि साल 2050 तक शहरी क्षेत्र का दायरा तीन गुना बढ़ जाएगा और तब तक अभी के मुकाबले लगभग 2.5 अरब ज्यादा लोग शहरों में रह रहे होंगे।
इस संभावित परिदृश्य को देखते हुए, यूएन-हैबिटेट कार्यक्रम के विशेषज्ञों की दलील है कि इससे पार पाने (मिटिगेशन) का दायरा और इस हिसाब से ढलने (एडेप्टेशन) के उपाय की तात्कालिक जरूरत स्पष्ट रूप से शहरों को जलवायु ऐक्शन में सबसे आगे रखती है।
स्थानीय स्तर पर मजबूत जलवायु ऐक्शन लेने पर जोर
कॉप-29 का उद्देश्य जलवायु वित्त पर आम सहमति बनाना है। यह धन विकसित देशों से विकासशील देशों को मिलेगा और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ढलने के लिए ज्यादा महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय स्तर पर तय योगदान (एनडीसी) के लिए जमीन भी तैयार करेगा। देश साल 2025 में अपने तीसरे दौर के एनडीसी को पेश करने के लिए तैयार हैं। वहीं सूरी जैसे लोग भविष्य के एनडीसी में स्थानीय सरकारी निकायों (राज्य, प्रांत, नगर पालिका स्तर पर) की मजबूत भूमिका को मुखरता से सामने रखती हैं। सूरी ने कहा, “हमें यह पक्का करना होगा कि हम इस अवसर से ना चूकें।” उन्होंने ब्राजील का उदाहरण दिया, जिसने 11 नवंबर को अपने नए एनडीसी जारी किए। संयोग से इसी दिन कॉप-29 शुरू हुआ था। उन्होंने दावा किया कि ब्राजील के नए एनडीसी सरकार के अलग-अलग क्षेत्रों के बीच सहयोग पर आधारित हैं।
विश्लेषण के अनुसार, 70% से ज्यादा एनडीसी में शहरों से जुड़े सामान्य या कम तथ्य हैं, जो एनडीसी में शहरी जलवायु समाधानों को शामिल करने पर जोर देता है। जून 2023 तक जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) द्वारा आयोजित 194 एनडीसी में शहरों से जुड़े तथ्य के संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) और यूएन-हैबिटेट द्वारा संयुक्त विश्लेषण से पता चलता है कि 34% एनडीसी में शहरों से जुड़े तथ्य कम या बिल्कुल नहीं है। डेटा जलवायु परिवर्तन से पार पाने और इस हिसाब से ढलने पर केंद्रित है। साथ ही, जिन एनडीसी का विश्लेषण किया गया, उनमें से 44% में शहरों के हिसाब से ढलने और पार पाने की कोशिशें दोनों चीजें दिखती हैं। वहीं, 11% सिर्फ शहरों को इस हिसाब से ढालने पर और 10% सिर्फ शहरों में इस समस्या से पार पाने पर केंद्रित हैं।
वन अर्थ जर्नल में प्रकाशित यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलिना और यूनिवर्सिटी ऑफ बर्कले के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अन्य अध्ययन के अनुसार, कई शहर जलवायु परिवर्तन से निपटने का संकल्प ले रहे हैं, लेकिन बहुत कम के पास पर्याप्त डेटा या महत्वाकांक्षी लक्ष्य हैं। अध्ययन में बताया गया है कि जी-20 देशों में 3,000 से ज्यादा शहरों और 173 क्षेत्रों ने जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए प्रतिबद्धता जताई है, जिनमें काफी हद किसी तरह की बाध्यता नहीं है। अध्ययन में दावा किया गया है कि फिर भी सिर्फ 40% ने महत्वाकांक्षा और कार्यान्वयन से संबंधित पर्याप्त डेटा की जानकारी दी है। वहीं, 60% से ज्यादा 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य के हिसाब से कमी की दर हासिल नहीं कर पा रहे हैं।
हाल के महीनों में, भारत में जलवायु ऐक्शन प्लान (क्लाइमेट ऐक्शन प्लान/सीएपी) जारी करने वाले शहरों की संख्या में बढ़ोतरी देखी गई है, लेकिन इन योजनाओं के लिए कानूनी समर्थन का अभाव है। इसलिए, शहर लक्ष्यों को पूरा करने के लिए बाध्य नहीं हैं।
कॉप-29 में जारी यूएन-हैबिटेट रिपोर्ट के अनुसार, शहरी क्षेत्रों में मौजूदा जलवायु उपाय, जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाले खतरे की तात्कालिकता को नहीं दिखाते हैं। “दुनिया पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी की सहमत सीमा को तोड़ने के लिए पुरजोर तरीके से आगे बढ़ रही है। आंशिक रूप से, यह विफलता स्थानीय स्तर पर उपायों में लगातार बाधाओं का नतीजा है: शहरों को अभी भी क्षमता निर्माण के बारे में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फैसले लेने से काफी हद तक बाहर रखा गया है और सार्थक कार्रवाई करने के लिए पर्याप्त धन तक उनकी पहुंच नहीं है।”
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) में जलवायु परिवर्तन पर तकनीकी विशेषज्ञ कैथी डायम-वल्ला इस बात पर जोर देती हैं कि एनडीसी में शहरों से जुड़े तथ्य शामिल करने के लिए राष्ट्रीय सरकारों को व्यापक डेटा और क्षेत्रीय नजरिए की अहमियत के बारे में समझाना पड़ता है। वह बताती हैं, “क्षेत्रीय स्तर पर इसका विश्लेषण करना बहुत आसान है, भले ही पूरा डेटा उपलब्ध ना हो। कुछ क्षेत्र स्वाभाविक रूप से शहरी हैं – उदाहरण के लिए जब आप अपने एनडीसी में परिवहन को शामिल करते हैं, तो आप बड़े पैमाने पर शहरों की बात करते हैं। यही बात ऊर्जा कुशलता पर भी लागू होती है। इन जानकारियों को तय करने से लागू करने योग्य और निवेश के योग्य एनडीसी को ज्यादा असरदार ढंग से पेश करने में मदद मिलती है।”
भारत सरकार के आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के संस्थान, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स (NIUA) में क्लाइमेट सेंटर फॉर सिटीज के शहरों पर काम करने वाले सरथ बाबू एमजी कहते हैं, “बड़े शहरों का कुल उत्सर्जन में सबसे ज्यादा योगदान है और राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्यों को स्थानीय स्तर पर ठोस, कार्रवाई योग्य कदमों में बदलने के लिए अच्छी तरह से डिजाइन किए गए सीएपी जरूरी हैं। वहीं, अच्छी तरह से बनाए गए सीएपी वे हैं जिनका एनडीसी के साथ बेहतर तालमेल है। ये स्थानीय कमियों को दूर करते हुए शहरों को राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए रोडमैप दे सकते हैं।”
ज्यादा धन मुहैया कराने पर जोर
सम्मेलन में शामिल जानकारों ने कहा कि उप-राष्ट्रीय स्तर पर कोई भी सार्थक जलवायु उपाय इस बात पर निर्भर करता है कि कितना धन मुहैया कराया जाता है और इस पर मौजूदा कॉप-29 में बातचीत चल रही है।
संयुक्त राष्ट्र जलवायु प्रभाग में मिटिगेशन शाखा की प्रमुख रूथ जुगमैन डू कुट्टो पूछती हैं, “हम चाहते हैं कि शहर महत्वाकांक्षी हों। लेकिन स्थानीय स्तर पर जहां 70% से अधिक उत्सर्जन होता है, वहां धन की उपलब्धता और उपाय के बिना इस उत्सर्जन में कमी किस तरह हो पाएगी?”
सिटीज क्लाइमेट फाइनेंस लीडरशिप एलायंस की ओर से सितंबर में प्रकाशित एक रिपोर्ट में इस फासले को उजागर करते हुए कहा गया है कि तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की कमी के साथ तालमेल बिठाने के लिए सालाना शहरी जलवायु वित्त (यूसीएफ) को मौजूदा 831 अरब डॉलर में पांच गुना से ज्यादा की बढ़ोतरी करनी होगी। साल 2022 में शहरी को मिले 831 अरब डॉलर में से निजी वित्त का हिस्सा 49% था, जबकि सार्वजनिक वित्त का हिस्सा 22% था।
रिपोर्ट में कहा गया है कि शहरों के लिए जलवायु वित्त में बढ़ोतरी हुई है। यह बढ़ोतरी 2019/2020 के मुकाबले 54% और 2017/2018 के मुकाबले 117% है। यह बढ़ोतरी खास तौर पर ऊर्जा, परिवहन और भवन जैसे बुनियादी ढांचे से जुड़े उपायों से संबंधित है। फिर भी, शहरों को अभी भी उनकी जरूरतों के हिसाब से कम धन मिलता है।
रिपोर्ट में कहा गया है, “अनुमान है कि सिर्फ जलवायु परिवर्तन से पार पाने के लिए ही शहरों को अब से साल 2030 तक हर साल 4.3 ट्रिलियन डॉलर की जरूरत होगी। इसके अलावा, 2031 से 2050 तक हर साल 6 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा चाहिए होंगे।” यह भी स्वीकार किया गया है कि आंकड़ों की कमी के कारण जलवायु के हिसाब से ढलने के लिए जरूरतों का अनुमान लगाना ज्यादा जटिल है।
इस पृष्ठभूमि में, शहरों के प्रतिनिधि ब्राजील के रियो डी जेनेरियो और साओ पाउलो में एकत्र हुए और राष्ट्रीय सरकारों और विकास वित्त संस्थानों से साल 2030 तक कम से कम 800 अरब डॉलर का सालाना सार्वजनिक निवेश करने का आह्वान किया। जी-20 देशों का प्रतिनिधित्व करने वाले ये नेता, 2024 के जी-20 शिखर सम्मेलन और 2025 के कॉप-30 के मेजबान ब्राजील में 18 और 19 नवंबर को मिलने वाले राष्ट्रीय नेताओं की चर्चाओं पर असर डालने के लिए यू-20 शिखर सम्मेलन में एकत्रित हुए। 16 नवंबर को जारी एक बयान के अनुसार, ये शहरी प्रतिनिधि कॉप-29 को अहम अवसर के रूप में देखते हैं, जिसमें जलवायु वित्त पर नए सामूहिक तौर पर मापे गए लक्ष्य (एनसीक्यूजी/NCQG) पर बातचीत चल रही है। वे नए जलवायु वित्त कोष के एक महत्वपूर्ण हिस्से की वकालत कर रहे हैं, जिसे कॉप-29 में तय किया जा सकता है और इसे खास तौर पर विकासशील देशों में शहरी पहलों के लिए दिया जाना चाहिए।
हालांकि, कॉप-29 के पहले हफ्त में एनसीक्यूजी वार्ता में कोई खास प्रगति नहीं हुई है। अब सभी की निगाहें वार्ता के दूसरे अहम हफ्ते पर टिकी हैं, जिसमें यह देखा जाएगा कि जलवायु वित्त चर्चा में कोई सफलता मिलती है या नहीं और क्या इसका कोई हिस्सा शहर में की जाने वाले उपायों के लिए दिया जाएगा।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 19 नवंबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: तेलंगाना के हैदराबाद में एक मेट्रो स्टेशन। तस्वीर विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0) के जरिए iMahesh की ओर से।