- हाल ही में हुए एक अध्ययन में दलील दी गई है कि ऐतिहासिक परिस्थितियां हाथियों और टी ट्राइब्स (चाय जनजातियां) के बीच संबंधों को तय करती हैं।
- असम में धनशिरी वन्यजीव प्रभाग मानव-हाथी संघर्ष से सबसे ज्यादा पीड़ित क्षेत्रों में से एक है।
- नकारात्मक रिश्तों के बावजूद स्थानीय निवासी हाथियों का बहुत सम्मान करते हैं तथा अक्सर उन्हें संरक्षक और ईश्वर का दूत मानते हैं।
पूर्वोत्तर राज्य असम में मानव-हाथी संघर्ष बार-बार होने वाली घटना है। राज्य में सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्रों में उदलगुरी जिले का धनशिरी वन्यजीव प्रभाग है। यहां मानव-वन्यजीव संघर्ष की स्थिति में प्रभावित होने वालों में उदलगुरी में रहने वाले आदिवासी/चाय जनजाति (चाय बागानों में काम करने वाला समुदाय) के लोग भी शामिल हैं। असम सरकार की ओर से राज्य विधानसभा में रखे गए आंकड़ों के अनुसार, साल 2010 से 2019 तक मानव-हाथी संघर्ष में 62 हाथियों और 155 लोगों की मौत हुई। ये मौत खास तौर पर जिले के धनशिरी वन्यजीव प्रभाग में हुई हैं।
इस स्थिति को बेहतर ढंग से समझने के लिए शोधकर्ता सायन बनर्जी, दिबाकर नायक और अनिंद्य साहा ने उदलगुरी जिले में आदिवासी/ट्री जनजाति (ए/टीटी) समुदाय के बीच एथनोग्राफिक फील्डवर्क किया। इसका मकसद जंगली हाथियों के साथ उनके संबंधों का पता लगाना था। उनका शोध पत्र असम, भारत में जंगली एशियाई हाथियों के नजदीक रहने के बारे में आदिवासियों (चाय जनजाति) का नज़रिया कंजर्वेशन बायोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इसमें कहा गया है कि “विस्थापन और वनों की कटाई से उत्पन्न सामाजिक-पारिस्थितिकी की वजह से आदिवासी (चाय जनजाति) और हाथियों का जीवन जगह और समय के जरिए एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है।”
शोधपत्र के मुताबिक अब तक मानव-हाथी संघर्ष को तकनीकी समस्या के रूप में देखा गया है और उसी आधार पर इसका हल निकालने की कोशिश हुई। साथ ही, यह भी कहा गया है कि स्थानीय जनजाति समुदायों द्वारा हाथियों के प्रति जताई गई सहानुभूति, हाथियों के साथ रहने के ऐसे तरीकों के बारे में बात करती है जो “भावनात्मक है और तकनीकी हस्तक्षेपों से परे हैं।”
यह अध्ययन उदलगुरी जिले के खालिंगद्वार संरक्षित वन के आसपास के अलग-अलग आकार के चाय बागानों, कृषि बस्तियों, नदियों और नदी के किनारे के क्षेत्रों और वन क्षेत्रों के आसपास किए गए। संरक्षित वन सीमा के 10 किलोमीटर के भीतर के गांवों और चाय बागानों में फील्डवर्क किया गया। कृषि बस्तियों में धान के खेत, बांस के बाग, चाय के छोटे खेत और सुपारी के खेत शामिल थे।
बनर्जी ने बताया कि फील्डवर्क 16 महीने (अगस्त 2021 से दिसंबर 2022) तक किया गया। उन्होंने आगे कहा, “हमने तीन गांवों सगुनबारी, बामुनजुली और नोनाईखाश बस्ती और दो चाय बागानों नोनाईपारा और बामुनजुली में फील्डवर्क किया। ये सभी खालिंगद्वार संरक्षित वन के 0 से 7 किलोमीटर के दायरे में हैं। ये गांव और चाय बागान क्षेत्र में हाथियों की आवाजाही का जीता-जागता उदाहरण हैं।”
गुजर-बसर के लिए खेती, चाय बागानों में काम और कृषि के अलावा दिहाड़ी मजदूरी का काम आदिवासी/चाय जनजाति, बोडो और नेपाली समुदायों के लिए आजीविका के मुख्य उपलब्ध विकल्प हैं। ये इस क्षेत्र के तीन प्राथमिक जातीय समूहों में शामिल हैं। ए/टीटी सबसे बड़ा समूह है। बोडो को राज्य की ओर से अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया है और वे पूरे जिले में सामाजिक-राजनीतिक रूप से सबसे ज्यादा असरदार समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं।

संघर्ष की वजह
इस शोधपत्र में मुख्य रूप से जातीय-राजनीतिक बोडोलैंड आंदोलन (1990-2005) के दौरान तेजी से हुई वनों की कटाई, जगंल व चरागाहों के कम होने और उसके चलते हाथियों के व्यवहार में आए बदलाव को इस क्षेत्र में हाथियों से होने वाले भारी नुकसान का कारण बताया गया है।
शोधपत्र के सह-लेखक और इस क्षेत्र के स्थानीय निवासी दिबाकर नायक कहते हैं, “उदलगुरी में हमेशा से हाथी रहे हैं। पहले जंगल और भी घना था। लेकिन संघर्ष 1990 के दशक के बाद ही शुरू हुआ।”
बनर्जी ने बताया कि हाथी साल के लगभग नौ महीने (अप्रैल से दिसंबर) इस मानव-प्रधान इलाके में नियमित रूप से रहते और घूमते हैं। इससे हाथियों और इंसानों के बीच व्यापक संपर्क होता है। उन्होंने कहा, “ऐसा संपर्क आम तौर पर पांच सौ वर्ग किलोमीटर के इलाके में होता है, जिसमें लगभग 80 गांव और 10 चाय बागान हैं। इसमें लगभग 150 हाथियों का निवास क्षेत्र भी शामिल है।”
विस्थापन का इतिहास
बनर्जी कहते हैं कि ब्रिटिश चाय बागान मालिक उदलगुरी में हाथियों और ए/टीटी दोनों के विस्थापन की वजह हैं। वे कहते हैं, “1826 में असम पर कब्जा करने के बाद, अंग्रेजों ने चाय बागान स्थापित करने के लिए मूल किसानों को उनकी जमीन से जबरन बेदखल कर दिया। गहन श्रम शक्ति की जरूरत को देखते हुए अंग्रेजों ने मध्य और पूर्वी भारत से हजारों आदिवासी और गैर-आदिवासी ग्रामीणों को वहां से हटाकर असम के चाय बागानों बसाया। चाय बागानों का नस्लीय, औपनिवेशिक, पूंजीवादी उद्यम सस्ते श्रम का उत्पादन करने और उनके शरीर, इतिहास और मातृभूमि को बेदखल करने की दलील के जरिए काम करता था। इस औपनिवेशिक विरासत के बावजूद, मौजूदा चाय बागान श्रमिकों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है।”
उन्होंने कहा, “हमारे इलाके उदलगुरी में 19वीं सदी के उत्तरार्ध से चाय बागान काम कर रहे हैं। लेकिन, यहां ए/टीटी समुदाय की स्थिति प्रतिनिधि वाली है। हालांकि, कुछ ए/टीटी सदस्य गांवों में चले गए हैं। उन्होंने या तो जमीन खरीद ली है या राज्य की मालिकाना जमीन पर अतिक्रमण कर लिया है। लेकिन, पैसे की तंगी ने कई लोगों को अस्थायी बागान मजदूर के रूप में काम जारी रखने के लिए मजबूर किया है।”
पेपर में कहा गया है कि असम में हाथी “वन उपज” (उनके पकड़े जाने से राजस्व में बढ़ोतरी हुई) के रूप में साम्राज्यवादी काम-काज का अहम हिस्सा थे। औपनिवेशिक, पूंजीवादी, लकड़ी आधारित उद्योगों के विस्तार में “श्रमिक” बुनियादी ढांचे के रूप में और चाय बागानों और फसलों को नुकसान पहुंचाने के जरिए शासन के लिए खतरा थे। इससे राजस्व में कमी आई। असम में हाथियों को बड़े पैमाने पर पकड़ना और मारना और साथ ही चाय उद्योगों के विस्तार ने हाथियों और उनके समाज के खिलाफ हिंसा को जन्म दिया।

हाथियों के साथ रहना
स्थानीय लोग यहां की भाषा में हाथी के लिए इस्तेमाल होने वाले शब्द ‘हाथी‘ के स्थान पर बाबा (पिता/संरक्षक), महाराज (राजा/उपकारी), भोगोबान (भगवान) या मालिक (स्वामी) कहकर सम्बोधित करते हैं।
हाथियों के प्रति उनकी आस्था और श्रद्धा, समुदायों को यह समझने में मदद करती है कि हाथियों ने उनकी फसलों या घरों को क्यों नुकसान पहुंचाया।
हालांकि, जब हाथियों की ओर से तोड़े गए घरों या फसलों के लिए उन्हें वादा किया गया मुआवजा समय पर नहीं मिलता है, तो उनका धैर्य जवाब दे जाता है। नायक कहते हैं, “मुआवज़ा पाने की प्रक्रिया अनियमित और बोझिल है। कभी-कभी, यहां के लोगों को मुआवज़ा पाने में सालों लग जाते हैं।”
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धनशिरी वन्यजीव प्रभाग के प्रभागीय वनाधिकारी (डीएफओ) मुस्तफा अली अहमद ने कहा कि मुआवजा देने में देरी हो रही है, लेकिन अब प्रक्रिया को व्यवस्थित किया जा रहा है।
उन्होंने कहा कि वन विभाग ने जागरूकता के लिए कदम उठाए हैं, जिसके अच्छे नतीजे मिले हैं। उन्होंने कहा, “हम स्थानीय लोगों के साथ नियमित बैठकें करते हैं। आरण्यक जैसे गैर सरकारी संगठन भी हाथियों से बचाव के लिए सौर बाड़ लगाकर मदद कर रहे हैं। इस साल हाथियों के हमलों से मरने वाले लोगों की संख्या सात है, जो पिछले साल की 17 मौतों से काफी कम है।”
इस प्रकार, पेपर कहता है कि हाथी “अलग-अलग रूपों में स्थानीय समुदायों पर हावी रहे”, एक तो दयालु संरक्षक के रूप में। दूसरा अंधकारमय, दुष्ट मौजूदगी के रूप में। लेकिन, जीवन भर दृढ़ साथी और सहयात्री के रूप में भी।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 9 जनवरी, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: असम के जोरहाट में होलोंगापार गिब्बन अभयारण्य से बाहर निकलता हाथियों का झुंड पास के चाय बागान से गुजरता हुआ। तस्वीर- कुमुद घोष/विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY 4.0)।