- भारत सरकार ने रासायनिक खेती के दुष्प्रभाव खत्म करने और टिकाऊ खेती को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती मिशन की शुरुआत की है। लेकिन, इन उत्पादों का खास बाजार नहीं होने और सही कीमत नहीं मिलना इसे बढ़ावा देने में सबसे बड़ी समस्या है।
- जानकारों का कहना है कि मध्याह्न भोजन और आंगनबाड़ी को इससे जोड़कर प्राकृतिक तरीके से उपजाए गए उत्पादों के लिए बाजार बनाया जा सकता है। इन फसलों के लिए अलग से न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग भी जोर पकड़ रही है।
- एक और व्यावहारिक दिक्कत बीज और गोबर खाद को लेकर है। हरित क्रांति के बाद देसी बीज खत्म होने से इनका मिलना मुश्किल हो गया है।
झारखंड में रामगढ़ जिले के कौड़ी गांव में रहने वाले देवलाल मुंडा डेढ़ एकड़ पुश्तैनी जमीन पर साल 2023 तक रसायनिक खेती कर रहे थे। जलवायु परिवर्तन और रासायनिक खाद के दुष्परिणाम से उनके खेतों की मिट्टी कठोर होने लगी थी। खेत से मददगार कीट भी गायब हो रहे थे। पैदावार तो अच्छी थी, लेकिन साल-दर-साल उर्वरकों पर खर्च भी बढ़ता जा रहा था। इससे वे परेशान रहने लगे।
इस बीच, उन्हें साल 2023 में नाबार्ड की जीवा स्कीम के तहत प्राकृतिक खेती के पायलट प्रोजेक्ट की जानकारी मिली, जिसे नाबार्ड की मदद से ग्रामीण सेवा संघ और पतरातू ट्राइबल प्रोजेक्ट डेवलपमेंट कमेटी आगे बढ़ा रहे थे। इस स्कीम के लिए उनके ब्लॉक पतरातू की तीन पंचायतों साकी, बारीडीह और बीचा के छः गांवों – लेम, बीचा, अरमादाग, जोबो, कोड़ी और लोवाडीह को चुना गया था।

ग्रामीण सेवा संघ के सचिव विलास साठे ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “नाबार्ड के 30 लाख रुपए की मदद से शुरू इस प्रोजेक्ट में किसानों को प्राकृतिक खेती करने का प्रशिक्षण दिया गया। गोबर खाद बनाने का तरीका बताया गया और मुफ्त में बीज और दूसरी चीजें उपलब्ध कराई गई।”
मुंडा ने भी इस स्कीम का लाभ लेने का फैसला किया। लेकिन, इस खेती में भी उन्हें कई तरह की समस्याओं से दो-चार होना पड़ा।
बाजार सबसे कमजोर कड़ी
मुंडा के साथ छः गांवों के करीब 80 किसानों ने 2023 में अपनी पुश्तैनी जमीन के कुछ हिस्सों पर प्राकृतिक खेती शुरू की। साल 2024 में इन किसानों की संख्या करीब 125 हो गई। इन किसानों ने धान के साथ-साथ बाड़ी (किचन गार्डेन) में साग-सब्जियां उगाना शुरू किया।
चूंकि, शुरुआत में प्राकृतिक तरीके से खेती के लिए धान के बहुत ज्यादा देसी बीज उपलब्ध नहीं थे, इसलिए इन किसानों ने अपनी उपज को खाने और बीज के रूप में बेचने के लिए रख लिया। 2024 में भी उन्होंने यही तरीका अपनाया। लेकिन इस साल से उनकी मुश्किल और बढ़ने वाली हैं।
मुंडा ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “जब बीज सबके पास उपलब्ध हो जाएगा, तो फिर बीज कौन खरीदेगा? हम सब मिलकर अपने धान के लिए बाजार खोजने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन, इसके लिए उत्पादन बढ़ाना होगा और इलाके के एक-चौथाई किसानों को प्राकृतिक खेती से जोड़ना होगा।”

वहीं पास के बिच्चा गांव के राम कुमार उरांव मोंगाबे हिंदी से कहते हैं, “हमलोग मार्केट में जा रहे हैं, लेकिन कोई हमारा धान खरीदने के लिए तैयार नहीं है। व्यापारियों का कहना है कि हमारा धान मोटा है। हम चाहते हैं कि अगर सरकारी रेट 22-23 रुपए किलो है तो हमें 28 से 30 रुपए मिले।”
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फार्मिंग सिस्टम और रिसर्च (आईआईएफएसआर) की ओर से तीन साल तक किए गए एक अध्ययन में कहा गया, “भारत में मध्यम और छोटे जोत वाले किसानों के पास अपनी उपज सीधे उपभोक्ताओं को बेचने के लिए कोई मार्केटिंग चैनल नहीं है। इस प्रकार, जीरो बजट प्राकृतिक खेती (ZBNF) करने वाले किसानों को मार्केटिंग में असल बाधाओं का सामना करना पड़ता है जो उनकी आमदनी को प्रभावित करती है।”
नवंबर में लॉन्च किए गए राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती मिशन में कहा गया है, “किसानों को आसान प्रमाणन प्रणाली और एक जैसी ब्रांडिंग उपलब्ध कराई जाएगी, ताकि उनके प्राकृतिक कृषि उत्पाद बाजार तक पहुंच सकें। इसकी ऑनलाइन पोर्टल के जरिए रियल टाइम में जियो-टैग और संदर्भित निगरानी की जाएगी।”
लेकिन, तीन हजार किसानों के साथ काम करने वाले ‘रिजनरेटिव बिहार’ अभियान से जुड़े इश्तियाक अहमद ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “भारत में 86-87 फीसदी सीमांत किसान हैं। उनमें अपने स्तर पर बाजार में उपज ले जाने की क्षमता नहीं है, क्योंकि अपनी उपज का ज्यादातर हिस्सा वे खुद इस्तेमाल कर लेते हैं। ऐसे में ब्रैंडिंग से ज्यादा जरूरी एग्रीगेटर की मजबूत चेन बनाना है।”
जानकार बाजार को किसानों के पास लाने के लिए नई सोच के साथ काम करने की सलाह देते हैं। अहमद कहते हैं, “हम स्कूलो में जो मध्याह्न भोजन बांटते हैं, आंगनबाड़ी में जो खाना देते हैं, उससे प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों को जोड़ सकते हैं। बाजार तो गांव में ही है। इस नई सोच पर काम हो रहा है।”
हालांकि उरांव इसकी व्यावहारिक दिक्कतों को मोंगाबे हिंदी के साथ साझा करते हैं, “हमने मड़वा को लेकर कुछ स्कूलों में बात की थी। वे 45 रुपए में किलो में मड़वे का आटा खरीद रहे हैं। हमारा मड़वा ही 45 रुपए में बिकता है। मड़वा खरीद कर साफ कराने और पिसवाने पर 10-12 फीसदी कम हो जा रहा था। मजदूरी भी लग रही थी। हमारा आटा ही 60 रुपए किलो का हो गया था।”
वैसे, इन गांवों के किसानों के सामने समस्याएं साग-सब्जी की पैदावार को लेकर भी है। आस-पास कोल्ड स्टोरेज की सुविधा नहीं होने से धान के विपरीत सब्जी को एक-दो दिन भी रखना बहुत मुश्किल है। ऐसे में उन्हें गांव के हाट में अपनी सब्जी रासायनिक साग-सब्जी वाली कीमत पर ही बेचनी पड़ती है।

इस समस्या पर देवलाल मुंडा कहते हैं, “अभी कोई बड़ी कंपनी हमसे सब्जी नहीं खरीद रही है। व्यावसायिक तौर पर हम सब्जी नहीं बेच पाते हैं। उगाने से ज्यादा बेचने में समस्या है। दिक्कत यह है कि हमारे उत्पाद को पहचान नहीं मिल रही है। अगर उन्हें विश्वास होता है, तो वे कीमत देखकर छोड़ देते हैं।”
हालांकि, खाद्य एवं कृषि नीति के जानकार देविंदर शर्मा की राय थोड़ी अलग है। उन्होंने मोंगाबे हिंदी को बताया, “खेती की एक कीमत होती है। हमने उसे पर्यावरण पर छोड़ दिया है। हर एक किलो खाद्य पदार्थ पर हम पर्यावरण को तीन गुना नुकसान पहुंचाते हैं, लोगों को उस लागत को समझाना है। सरकार को कैम्पेन शुरू करके जागरूकता बढ़ानी होगी।”
अलग न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग
भारत में खेती-बाड़ी से जुड़ी नीति मुख्य रूप से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के इर्द-गिर्द बुनी गई है। इस व्यवस्था को 1960 के दशक में शुरू किया गया था। तब इसका मकसद हरित क्रांति के बाद नई तकनीक की मदद से किसानों को धान और गेहूं जैसी फसलें उपजाने के लिए प्रेरित करना था। कोशिश यह है कि किसानों को बाजार की अनिश्चितताओं से बचाया जाए और उन्हें उनकी उपज का बेहतर मूल्य दिलाया जाए।
फिलहाल इस व्यवस्था में 22 फसलें शामिल हैं। अगर हम धान की बात करें, तो सामान्य किस्म के धान के समर्थन मूल्य में तीन फसल वर्ष के दौरान 243 रुपए की बढ़ोतरी हुई है।
हालांकि, राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती मिशन में अलग से एमएसपी की बात नहीं है। लेकिन, इसमें कहा गया है, “प्राकृतिक खेती के तरीकों से किसानों को खेती की लागत और बाहर से खरीदे गए संसाधनों पर निर्भरता कम करने में मदद मिलेगी।”
उरांव की मांग है, “एमएसपी को लेकर अलग व्यवस्था होनी चाहिए। हमारे प्राकृतिक क्षेत्र में जो देसी फसलों का उत्पादन हो रहा है, उसका रासायनिक से ज्यादा रेट मिलना चाहिए। हमें कम से कम 20 से 25 फीसदी ज्यादा कीमत मिलनी चाहिए।”
विशेषज्ञ भी राम कुमार उरांव की बात से सहमत हैं। अहमद का कहना है, “सिर्फ प्रमोट करने से कुछ नहीं होगा। हमारे पास प्राकृतिक खेती के लिए एमएसपी है ही नहीं। सरकारी खरीद की व्यवस्था ही नहीं है, तो अलग रेट कहां से मिलेगा।”

दरअसल, प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के पीछे बड़ी वजह जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभावों से खेती को बचाना है। इसलिए देविंदर शर्मा जैसे जानकार इसमें पर्यावरण की कीमत जोड़ने का सुझाव देते हैं। वह कहते हैं, “प्राकृतिक खेती के लिए जो कीमत मिलना चाहिए उसे इको-सिस्टम सर्विस के नजरिए से देखने की जरूरत है। इस खेती से मिट्टी अच्छी होती है, पानी बचता है, स्वास्थ्य अच्छा रहता है, तो उसकी कीमत निकाली जाए। फिर एमएसपी में इनको जोड़ दिया जाए। जब तक किसान को इंसेंटिव नहीं मिलेगा, वह आगे नहीं आएगा।”
बीज और प्राकृतिक खाद भी चुनौती
आदिवासी बहुल झारखंड सहित पूरे भारत में प्राकृतिक खेती नई अवधारणा नहीं है। किसान पुश्त-दर-पुश्त देसी तरीके से खेती करते आ रहे थे। लेकिन, 1960 के दशक में अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर होने के मकसद से हरित क्रांति को अपनाया गया और पैदावार कई गुना बढ़ गई। इस वजह से देसी बीज भी खत्म होते गए। अगर सिर्फ धान की बात की जाए, तो हमने अपने चावल की करीब 94 फीसदी किस्मों को खो दिया है।
यही वजह है कि जब 2023 में रामगढ़ जिले के कौड़ी गांव के किसान देसी धान के बीज खोजने निकले, उन्हें सिर्फ तीन किस्म के देसी बीज मिले। देवनाथ मुंडा कहते हैं कि 2024 में भी हम इन किस्मों को तीन से पांच तक ही बढ़ा पाए।
विलास साठे ने कहा, “बीज की चुनौती से निपटने के लिए साल 2023 में कौड़ी गांव के बाजार के पास देसी बीज का मेला आयोजित किया गया। यहां देसी बीज देने वालों को उपहार भी दिए गए।”
एक और व्यावहारिक दिक्कत गोबर खाद को भी लेकर है। वैसे प्राकृतिक खेती में देसी गाय के गोबर के इस्तेमाल पर जोर है, लेकिन किसान हर तरह के मवेशी के गोबर का इस्तेमाल कर रहे हैं। मुंडा कहते हैं कि सिर्फ देसी गाय के गोबर के भरोसे प्राकृतिक खेती करना बहुत मुश्किल है।
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भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के रांची अनुसंधान केंद्र में प्राकृतिक खेती से जुड़े वैज्ञानिक बालकृष्ण झा ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “पशुधन कम होने से प्राकृतिक खाद मिलना मुश्किल हो गया। इससे भी किसानों की रासायनिक खाद में दिलचस्पी बढ़ी। दूसरी तरफ, एक हेक्टेयर में 10 से 15 टन गोबर खाद की जरूरत होती है। इतनी ज्यादा खाद को लाना-ले जाना थोड़ा मुश्किल है। वहीं, एक बैग खाद को साइकिल या बाइक पर किसान आसानी से ले आते हैं।”
हालांकि, प्राकृितक खेती में लागत तो कम आती है, लेकिन शुरुआती सालों में उपज भी कम होती है। इसलिए, आईसीएआर और आईआईएफएसआर का अध्ययन प्राकृतिक खेती को आजमाने से पहले बड़े पैमाने पर असेसमेंट पर जोर देता है।
बैनर तस्वीरः धान के अपने खेत में देवलाल मुंडा। तस्वीर- विशाल कुमार जैन/मोंगाबे