- अध्ययनों से पता चला है कि जैविक धान के खेतों में खर-पतवार के रूप में उगने वाले साग की प्रचुरता है, जो लंबे समय से स्थानीय समुदायों की पोषण और औषधीय जरूरतों को पूरा करते रहे हैं।
- अंधाधुंध निराई, कीटनाशकों के इस्तेमाल और धान की परंपरागत किस्मों के खत्म होने से इन खेतों की स्थानीय जैव-विविधता में कमी आ रही है।
- सोशल मीडिया से जुड़ी पहलें खान-पान में शामिल रही इन चीजों और धान की पारंपरिक किस्मों के लुप्त होने के बारे में जागरूकता बढ़ा रही हैं।
साल 2014 में तमिलनाडु के पोलाची शहर में अपने खेतों से गुजरते समय श्रीदेवी लक्ष्मीकुट्टी ने दिलचस्प बात देखी। आस-पास के खेतों की कई महिलाएं खर-पतवार के रूप में उगने वाले एक साग को खोज रही थीं जो उनके खेतों में दालों के बीच बहुतायत में उगता था। लक्ष्मीकुट्टी बताती हैं, “मैंने महिलाओं से पूछा कि वे इस साग को क्यों खोज रही हैं, तो उन्होंने बताया कि उन्हें अपने खेतों में यह केराई या खाने योग्य साग नहीं मिलता। उन्होंने इसे पन्नई केराई (तमिल में राजहंस का पंख) कहा और मेरे लिए भी कुछ तोड़ा और मुझे इसे पकाने का तरीका सिखाया।”
पारंपरिक अनाज को बढ़ावा देने वाले और छोटे किसानों को बाजार तक पहुंच देने वाले बायो बेसिक्स की सह-संस्थापक लक्ष्मीकुट्टी खेतों को हरा-भरा बनाने वाले खर-पतवार से हैरान थीं। साल 2017 में केरल के गैर-लाभकारी संगठन ‘थानल’ द्वारा संचालित आंदोलन ‘सेव अवर राइस’ अभियान के हिस्से के रूप में लक्ष्मीकुट्टी ने धान की खेती के विकास पर 180 पेज की रिपोर्ट का सह-संपादन किया। इसमें कीटनाशकों के इस्तेमाल, मोनो-क्रॉपिंग और पारंपरिक किस्मों के नुकसान से जुड़े मुद्दों को सामने लाया गया। रिपोर्ट का एक छोटा अध्याय केरल के वायनाड जिले के धान के खेतों में उगने वाले खर-पतवार पर था। अध्याय में विस्तार से बताया गया है कि ये “खर-पतवार” क्षेत्र के आदिवासी समुदायों को बहुत ज्यादा औषधीय लाभ प्रदान करते हैं। रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि कीटनाशकों और खर-पतवारनाशकों के बहुत ज्यादा इस्तेमाल से इनमें से कई साग अब धान के खेतों में नहीं दिखते।
धान के खेतों से खर-पतवार यानी अपने-आप उगने वाले इन साग का गायब होना खेती के पारंपरिक तरीकों के बारे में व्यापक बातचीत में महज फुटनोट बनकर रह जाता, अगर लक्ष्मीकुट्टी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म इंस्टाग्राम पर अपनी नई पहल ‘ग्रीन्स एंड ग्रेन्स’ की शुरुआत करते हुए पोस्ट नहीं किया होता। लोकप्रिय इंस्टाग्राम हैंडल फॉरगॉटन ग्रीन्स की श्रुति थारायिल के साथ शुरू की गयी इस पहल में दोनों आसान रेसिपी साझा कर रहे हैं जहां इन साग को चावल की पारंपरिक किस्मों के साथ जोड़ा जाता है। फॉरगॉटन ग्रीन्स शहरों में पाई जाने वाली खाने लायक खर-पतवार के बारे में लोगों को जागरूक करता है। फिलहाल यह साग तमिलनाडु के कोयंबटूर में लक्ष्मीकुट्टी के निवास के आसपास के क्षेत्रों से आता है। लेकिन लक्ष्मीकुट्टी (रील में देवी) और थारायिल की यह जुगलबंदी लोगों को खर-पतवार के रूप में उगने वाले साग और धान के खेतों की जैव-विविधता के महत्व के बारे में सोचने के लिए प्रोत्साहित कर रही हैं।

धान से भी कहीं बेहतर
एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन (MSSRF) के वायनाड में स्थित सामुदायिक कृषि जैव विविधता केंद्र के वैज्ञानिकों ने 2016 के एक शोधपत्र में जिले के धान के खेतों, मेड़ों और धान से जुड़े आवासीय परिसरों से स्थानीय प्रजाति की 95 वनस्पतियों के इस्तेमाल का दस्तावेजीकरण किया। इस शोधपत्र में धान के खेतों और आस-पास के क्षेत्रों में मौजूद हैरान करने वाली स्थानीय जैव-विविधता पर प्रकाश डाला गया है। साथ ही, स्थानीय समुदायों के पास मौजूद जटिल ज्ञान को भी दिखाया गया है।
इसमें इनमें से कई का “उपयोगी खर-पतवार” के रूप में संदर्भ दिया गया है। इनमें एरवा लनाटा (एल.) जस जैसे पौधे शामिल हैं, जिसे स्थानीय रूप से चेरूला के रूप में जाना जाता है। इसका सिरप बुखार और खांसी को ठीक करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। एगेरेटम कोनीज़ोइड्स एल. को स्थानीय रूप से अप्पा या अप्पाकाडु के रूप में जाना जाता है। इसका इस्तेमाल एक्जिमा और घावों को ठीक करने के लिए किया जाता है। साथ ही, क्लियोम विस्कोस एल. या थालू या काट्टूथालू (अन्य नामों के अलावा) पेट दर्द के इलाज के लिए काम में लिया जाता है।
दुनिया भर में खान-पान में शामिल इन साग के पोषण संबंधी और पर्यावरण से जुड़े फायदों को समझने और उनका दस्तावेजीकरण करने में दिलचस्पी बढ़ रही है। हालांकि, जब इन संबंधों को समझने की बात आती है, तो ज्ञान सीमित है, खासकर धान के खेतों में। MSSRF, सामुदायिक कृषि जैव विविधता केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक और लेख के पहले लेखक प्रजीश परमेश्वरन बताते हैं कि MSSRF की टीम द्वारा वायनाड के खेतों में वनस्पति की विविधता के गहन अध्ययन के दौरान उन्हें धान के खेत में होने वाले ये साग मिले।
परमेश्वरन कहते हैं, “वायनाड दिलचस्प पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान करता है, जहां धान के खेतों में और उसके आस-पास खर-पतवार के रूप में उगने वाले साग का अध्ययन किया जा सकता है। यहां कई आदिवासी समुदाय इन साग पर निर्भर हैं, क्योंकि वे उनके भोजन और औषधि से जुड़ी सुरक्षा में अहम भूमिका निभाते हैं। हम धान के खेतों को बड़े पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में देख रहे थे, जहां बहुत ज्यादा जैव विविधता और पारिस्थितिकी संरक्षित है। हालांकि, अन्य जगहों पर ये सभी परस्पर निर्भरताएं नहीं हो सकती हैं, लेकिन अलग-अलग अध्ययनों ने आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी तंत्र में इन साग की भूमिका की जांच की है।”
इस विषय पर प्रकाशित वैज्ञानिक डेटा की कमी 2021 में कोलकाता के एथनोबायोलॉजी, बायोडायवर्सिटी और सस्टेनेबिलिटी (CEiBa) में अध्ययन केंद्र द्वारा प्रकाशित समीक्षा लेख से भी स्पष्ट होती है। इसमें खान-पान की स्थानीय संस्कृतियों और सामान्य रूप से खाद्य सुरक्षा में धान के खेतों से खाद्य वनस्पतियों और जीवों की अहम भूमिका की जांच की गई है। लेख में जीवों की जैव विविधता के कई उदाहरण हैं, लेकिन वनस्पति या पेड़-पौधों की जैव विविधता, खासकर चावल और धान के खेतों से संबंधित, का उपमहाद्वीप से सिर्फ एक अहम उल्लेख मिलता है। यह 1978 में प्रकाशित एक अध्ययन था, जिसमें हुगली और मिदनापुर जिलों के धान के खेतों से उपयोगी खर-पतवारों के बारे में बताया गया था।
CEiBa के सह-संस्थापक और निदेशक तथा समीक्षा लेख के पहले लेखक अविक रे बताते हैं कि यह विश्लेषण समय के साथ चावल की खेती और इसके कृषि पारिस्थितिकी तंत्र के विकास को समझने में उनकी दिलचस्पी से उपजा है। अध्ययनों की कमी का मतलब ऐसे खर-पतवार से जुड़े तरीकों का अभाव नहीं है। रे कहते हैं, “कई एशियाई देशों में कृषि पद्धतियां किसानों को चावल और मछली या आर्थ्रोपोड्स की साथ में खेती करके धान उत्पादन को स्थायी रूप से बढ़ाने में मदद करती हैं, जो उनके सदियों पुराने पारंपरिक पारिस्थितिकी ज्ञान पर आधारित है।” धान के खेतों में मौजूद जीव पोषक चक्र और संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल में मदद करते हैं, जिससे कुल उपज में बढ़ोतरी होती है। हालांकि, यह जटिल संतुलन कृषि प्रणालियों में बदलाव और औद्योगिक खेती के विकास से प्रभावित हुआ है।

रे बताते हैं, “चावल के खेतों से खान-पान में शामिल जीव और वनस्पतियों का गायब होना दशकों से खेती में हो रहे बदलावों से हुआ है और इसकी वजह हरित क्रांति के कारण चावल के कृषि-पारिस्थितिकी तंत्र के जैव-भौतिक और रासायनिक वातावरण में आए बदलाव हैं। कीटनाशकों, रासायनिक उर्वरकों और खर-पतवार नाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने कई वनस्पतियों और जीवों को नष्ट कर दिया है, जो कभी चावल के खेतों में उगते थे या रहते थे।”
लक्ष्मीकुट्टी ने कहा कि जंगली खाद्य पदार्थों को खान-पान में फिर से शामिल करने की उनकी कोशिश का मकसद तेजी से खत्म हो रही स्थानीय खर-पतवार की विविधता और धान की पारंपरिक किस्मों के बारे में लोगों को आगाह करना है। ऐसा माना जाता है कि पिछले 50 सालों में, भारत ने अपने पारंपरिक चावल की 93% से ज्यादा किस्मों को खो दिया है।
लक्ष्मीकुट्टी कहती हैं,”विडंबना यह है कि खर-पतवार और धान की पारंपरिक किस्में दोनों ही स्वीकार्यता की तलाश में हैं। वे जलवायु के लिए बहुत अहम हैं और उन्हें बचाकर रखना स्थायी खाद्य स्रोतों को पूरा करने के लिए जरूरी है। जैविक खेती में भी आपको बहुत ज्यादा खर-पतवार नहीं मिलते, क्योंकि उन्हें निराई की प्रक्रिया में हटा दिया जाता है। हम चाहते हैं कि लोग खाने-पीने की इन चीजों के बारे में सोचना शुरू करें और जहां संभव हो उनका इस्तेमाल करें। हमारे नुस्खे बताते हैं कि इसके लिए खान-पान में बहुत ज़्यादा बदलाव की ज़रूरत नहीं होगी।”
कीटनाशकों और खर-पतवारनाशकों के इस्तेमाल के अलावा, भूमि के उपयोग में बदलाव भी धान के खेत में होने वाली वनस्पतियों पर बहुत असर डाल रहे हैं। उनका कहना है कि केरल धान भूमि और वेटलैंड संरक्षण कानून, 2008 के बावजूद किसान बेहतर मुनाफे के लिए और मानसून में बदलाव से आई चुनौतियों से पार पाने के लिए अपने खेतों को केले और सुपारी के बागानों में बदल रहे हैं। धान की जैव विविधता के साथ, ये बदलाव पारिस्थितिकी तंत्र में मदद करने वाले जीव और वनस्पतियों के लिए भी विनाश का कारण बनते हैं। एमएसएसआरएफ, वायनाड के विकास समन्वयक विपिनदास पी. बताते हैं, “कृषि मजदूरी पर निर्भर अदिया और पनिया जैसे आदिवासी समुदाय धान के खेतों, जहां वे मुख्य रूप से काम करते है, से साग-सब्जी इकट्ठा करने में पारंगत हैं। भूमि के उपयोग में बदलाव इन साग-सब्जी से मिलने वाले पोषण संबंधी निर्वाह को भी प्रभावित करते हैं।
बहुआयामी प्रयास
जब लेखिका स्वेता बिस्वाल ने अपनी कुकबुक बियॉन्ड दालमा के लिए शोध करना शुरू किया, तो उन्हें पता चला कि कृषि चक्र और मौसमी उपज किस तरह से उनके गृह राज्य ओडिशा के खान-पान पर असर डालती हैं। बिस्वाल कहती हैं, “धान के खेत कई तरह के साग के स्रोत हैं, जिन्हें आस-पास के समुदाय इकट्ठा करते हैं। जब फसल कटने के बाद खेतों को खाली छोड़ दिया जाता है, तो मुट्ठी साग या नॉटवीड (पॉलीगोनम प्लेबीयम) और हिडमीचा साग या हरचुक साग (Buffalo Spinach\एनहाइड्रा फ्लुक्टुआंस) जैसी खाने योग्य हरी सब्जियां अक्सर नमी वाले खेतों से प्राप्त की जाती हैं।” वह कहती हैं कि इन साग को लोग खाते तो हैं ही, बल्कि महिलाएं अतिरिक्त आमदनी के लिए इनमें से कुछ साग को स्थानीय बाजारों में भी बेचती हैं।

परमेश्वरन इन “खर-पतवारों” की पहचान करने और उन्हें इस्तेमाल करने के तरीके जानने में लैंगिक भूमिका पर जोर देते हैं। वे कहते हैं, “इन खर-पतवारों को खान-पान में शामिल करके संरक्षित करने में लैंगिक पहलू भी अहम है। मुख्य रूप से महिलाएं चारा इकट्ठा करती हैं और उन्हें पता होता है कि क्या इकट्ठा करना है, कब करना है और पौधों का इस्तेमाल किस तरह करना है। खर-पतवारों की सब्जी बनाने या दवा में इस्तेमाल करने के पारंपरिक ज्ञान को उनकी पहचान के साथ-साथ इनका दस्तावेजीकरण किया जाना चाहिए।”
उदाहरण के लिए बिस्वाल बताती हैं कि ‘मुट्ठी साग’ को पहले पानी में उबालना पड़ता है, ताकि उसका कसैलापन कम हो जाए। वह आगे कहती हैं, “फिर पानी निकाल दिया जाता है और पत्तियों के स्वाद को संतुलित करने के लिए बैंगन, तारो, कद्दू या कुछ सूखी मछली के साथ पकाया जाता है। यह स्वादिष्ट साग में से एक है और बहुत लोकप्रिय है।”
बेहतर तरीके से दस्तावेजीकरण के अलावा, थारायिल यह भी कहती हैं कि सोशल मीडिया पर जागरूकता पैदा करने से यह पक्का होता है कि यह जानकारी रोजमर्रा की थाली में भी पहुंचे। वह कहती हैं, “लोग अब इस बात को लेकर बहुत सचेत हैं कि उनका भोजन कहां से आता है और वे किस तरह बेहतर खा सकते हैं। इस सोशल मीडिया प्रोजेक्ट का विचार उन्हें अपने खान-पान के स्रोतों को समग्र रूप से देखने में मदद करना है। हमें उम्मीद है कि वे देख सकते हैं कि सही तरीकों के साथ, खेत ऐसे समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र बन सकते हैं जहां अनाज अलग-थलग नहीं बल्कि इन सभी साग के बीच उगता है।”
परमेश्वरन कहते हैं कि जागरूकता भी बहुत जरूरी है, इसलिए लोग बाजारों में इन साग की तलाश करते हैं। वे कहते हैं, “बाजारों से सब्ज़ियां और साग मिलने के कारण, चारे के तौर पर इस्तेमाल होने वाले साग को कम आंका जाता है। इस सोच को दूर करने के लिए जागरूकता जरूरी है कि चारे के लिए उगाए गए साग बाजार में मिलने वाले साग की तुलना में कम अच्छे होते हैं और पौधों के गुणों का वैज्ञानिक सत्यापन इसमें मदद कर सकता है।”
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हालांकि, किसानों के बाजार और किसान-केंद्रित संगठन खर-पतवार वाले इन साग को शहरी लोगों तक पहुंचाने और जानकारी की खाई को पाटने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। बेंगलुरु में सरजापुरा करी और कर्नाटक के कोलार में स्पुडनिक फार्म जैसी पहलें और साथ ही OOO फार्म और खान-पान से जुड़ा मीडिया संगठन ‘द लोकावोर’ द्वारा आयोजित वाइल्ड फूड फेस्टिवल, मुंबई जैसे खाद्य त्यौहार और द नीलगिरी फाउंडेशन द्वारा नीलगिरी अर्थ फेस्टिवल (जिसे पहले नीलगिरी वाइल्ड फूड फेस्टिवल के नाम से जाना जाता था) खर-पतवार वाले साग को आगे बढ़ा रहे हैं, जिससे लोगों के लिए खान-पान की इन चीजों के बारे में जानना संभव हो रहा है। उदाहरण के लिए, स्पुडनिक फार्म अपने साझेदारी वाले खेतों में मोटे अनाज और धान के बीच उगने वाले फ्लेमिंगो फेदर का स्रोत है। इस प्रकार पोषण से भरपूर इन साग को नया घर मिलता है और सोशल मीडिया पर उनके गुणों को साझा किया जाता है।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 7 फरवरी, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: अदिया समुदाय की महिलाओं का एक समूह धान की रोपाई करता हुआ। तस्वीर: विपिनदास।