- बाघों पर एक नए अध्ययन से भारत में उनकी तादाद बढ़ने और बचे रहने पर असर डालने वाले जटिल कारकों का पता चलता है।
- हालांकि, बाघों के आवासों में उल्लेखनीय रूप से बढ़ोतरी हुई है, लेकिन 2006 से 2018 के दौरान शहरीकरण, संघर्ष और शिकार स्थानीय स्तर पर उनके विलुप्त होने की वजहें बनी।
- बाघ और इंसानी बस्तियां तेजी से एक-दूसरे के नजदीक आ रही हैं, इसलिए जीविकोपार्जन के टिकाऊ तरीके, इको-टूरिज्म और संरक्षण की बेहतर तकनीक इस प्रगति को बनाए रखने में मदद कर सकती है।
भारत ने साल 2022 तक बाघों की घटती आबादी को सफलतापूर्वक दोगुना कर लिया। भारत में बाघों पर हुए एक नए अध्ययन में 2006 से 2018 तक आबादी के रुझानों का अध्ययन किया गया है। इसमें बाघों की संख्या में बढ़ोतरी सहित सामाजिक-पारिस्थितिकी और उनके बचे रहने को प्रभावित करने वाले कारकों को समझने की कोशिश की गई है। इसमें पाया गया कि लंबी अवधि में आबादी बढ़ाना स्थानीय लोगों के लिए आर्थिक प्रोत्साहन को संरक्षण उपायों के साथ संतुलित करने पर निर्भर करता है।
दरअसल, सदियों तक पूरे एशिया के बड़े भू-भाग में बाघों की दहाड़ सुनाई देती थी। हालांकि शिकार, जंगलों के खत्म होने और इंसानी दखल ने इस सबसे बड़े शिकारी को विलुप्त होने के कगार पर ला दिया। इस सदी की शुरुआत में दुनिया भर में बाघों की संख्या घटकर 3,600 पर आ गई जो उनकी ऐतिहासिक आबादी का 10 फीसदी से भी कम थी।
संकट की गंभीरता को देखते हुए बाघ क्षेत्र वाले देशों ने साल 2010 में ग्लोबल टाइगर रिकवरी प्रोग्राम शुरू किया। इसका मकसद 2022 तक जंगली बाघों की संख्या दोगुनी करना था। भारत ने विज्ञान आधारित नीतियों, सरकार की मजबूत प्रतिबद्धता और बड़े पैमाने पर लोगों के समर्थन से इस उपलब्धि को हासिल किया। पिछले दो दशकों में देश में बाघों की संख्या में 30 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। आज, दुनिया भर के जंगली बाघों की तीन-चौथाई आबादी (साल 2022 तक 3,167) भारत में है। यह आबादी लगभग 1,38,200 वर्ग किमी के इलाके में निवास करती है।
साइंस में प्रकाशित एक अध्ययन में अब भारत में बाघों की आबादी बढ़ने पर नए तरीके से विचार किया गया है। इसमें आबादी के रुझान, आवासों के जुड़ाव और उनके बचे रहने को प्रभावित करने वाले कारकों का विश्लेषण किया गया है। अध्ययन के लेखकों में से एक यदवेंद्रदेव झाला कहते हैं, “पहले संरक्षण की कोशिशें मुख्य रूप से बाघों की संख्या पर केंद्रित थी। लेकिन, अब हम व्यापक दृष्टिकोण अपना रहे हैं और आबादी बढ़ने, संपर्क व विलुप्त होने और नए बसे क्षेत्रों जैसे कारकों की जांच कर रहे हैं।” झाला भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (आईएनएसए) में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं।

आवासों का बढ़ना और कम होना
अध्ययन के अनुसार साल 2006 से 2018 के बीच भारत में बाघों को 41,767 वर्ग किमी का खोया हुआ आवास उन्हें फिर मिल गया। इसमें सबसे ज्यादा बढ़ोतरी 2014 से 2018 के बीच हुई जो 2,929 वर्ग किमी की सालान औसत बढ़ोतरी को दिखाती है।
इसमें बाघों के लिए संरक्षित क्षेत्र बनाने और बाघ व इंसानों के आसपास रहने की रणनीतियों ने अहम भूमिका निभाई। ग्लोबल टाइगर फोरम के महासचिव राजेश गोपाल कहते हैं, “मुख्य क्षेत्रों (संरक्षित क्षेत्र) की सुरक्षा यह पक्का करती है कि बाघों की संख्या अच्छे स्तर पर बनी रहे। वहीं, बफर जोन में संरक्षण उपायों से बाघ और इंसानों के सह-अस्तित्व (भूमि साझा करना) में मदद मिलती है। यह रणनीति छोटे जुड़े हुए आवासों में बाघों की कम आबादी को बनाए रखने में भी मदद करती है और परिदृश्यों में आनुवंशिक संपर्क बनाए रखती है, जिससे लंबी अवधि में बेहतर नतीजे मिलते हैं।” गोपाल 35 सालों तक राष्ट्रीय बाघ संरक्षण कार्यक्रम प्रोजेक्ट टाइगर से जुड़े रहे हैं।
हालांकि, यह प्रगति असफलताओं के बिना नहीं मिली। 12 सालों की अवधि के दौरान, 17,992 वर्ग किमी में स्थानीय विलुप्ति दर्ज की गई। इसमें सबसे ज्यादा विलुप्ति (64%) 2006 से 2010 के बीच देखी गई। इसके पीछे मुख्य वजहें शहरीकरण, बुनियादी ढांचे का विकास और हथियारबंद संघर्ष रहा। इसके बाद की अवधियों में नुकसान उम्मीदों के हिसाब से कम रहा। 2010 से 2014 के बीच 17% तो 2014 से 2018 के बीच 19% विलुप्ति हुई।
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हथियारबंद संघर्ष ने स्थानीय स्तर पर बाघों की आबादी खत्म करने मे अहम भूमिका निभाई। इस वजह से 47% का नुकसान हुआ। झाला कहते हैं, “संघर्ष वाले इलाकों में बाघों की आबादी को बड़ा नुकसान हुआ।” नक्सल संघर्षों से प्रभावित रिजर्वों में छत्तीसगढ़ के इंद्रावती, अचानकमार और उदंती-सीतानदी रिजर्व और झारखंड का पलामू रिजर्व शामिल हैं। अध्ययन के अनुसार ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और पूर्वी महाराष्ट्र में भी बाघों के आवास मुश्किल में हैं। यहां पर बाघों की संख्या कम है और मौजूदा संघर्षों के कारण उनके विलुप्त होने की आशंका ज्यादा है।
फिर भी, यह तथ्य उत्साह बढ़ाने वाला है कि नागार्जुनसागर-श्रीसेलम (आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में), अमराबाद (तेलंगाना में), सिमलीपाल (ओडिशा में) जैसी जगहों पर बाघों की आबादी बढ़ने के आशाजनक संकेत मिले हैं, क्योंकि इन जगहों पर संघर्ष कम हो चुका है। इससे पता चलता है कि राजनीतिक स्थिरता और असरदार वन्यजीव संरक्षण के बीच कभी खत्म नहीं होने वाला रिश्ता है।

मानव-बाघ संबंध
बाघों का बचा रहना सिर्फ आबादी के घनत्व से ही तय नहीं होता है। अध्ययन में 1,973 ग्रिड सेल क्षेत्रों का विश्लेषण किया गया जहां बाधों की मौजूदगी थी। इसमें पाया गया कि भारत के 85 फीसदी बाघ संरक्षित क्षेत्रों में रहते हैं। चार फीसदी आवास वाले गलियारों में निवास करते हैं। वहीं, 11 फीसदी ऐसे इलाकों में रहते हैं जिनका कई तरह से इस्तेमाल होता है। इसमें संरक्षित क्षेत्रों से बाहर के खेत शामिल हैं।
नतीजे बताते हैं कि बाघ शिकार-बहुल और बिना इंसानों वाले अभायरण्य में फलते-फूलते हैं। वे आसा-पास के आवासों तक भी आ जाते हैं। रिसर्च के मुताबिक, फिर से बसे इलाकों में औसत मानव घनत्व हर वर्ग किमी पर 250 था। यह साबित करता है कि संरक्षण की सफलता आर्थिक प्रोत्साहन और बिना इंसानों की मौजूदगी के बरक्स सह-अस्तित्व पर निर्भर करती है।
उल्लेख करने लायक एक उदाहरण राजस्थान का सवाई माधोपुर है। यहां की स्थानीय अर्थव्यवस्था रणथंभौर नेशनल पार्क में बाघ पर्यटन से चलती है। झाला कहते हैं, “जहां आर्थिक प्रोत्साहन मौजूद रहता है, वहां लोग अपने आस-पास बड़े मांसाहारी जीव की मौजूदगी को स्वीकार कर लेते हैं।” हालांकि, ऐसे इलाकों में जहां समुदाय जीविकोपार्जन के लिए जंगल पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं, वहां मानव-वन्यजीव संघर्ष होते रहने से बाघों के खत्म होने का खतरा बढ़ रहा है।
इसलिए, संरक्षण को आजीविका के बेहतर साधन के साथ संतुलित करना जरूरी है। इकोटूरिज्म, टिकाऊ खेती और मुआवजा कार्यक्रम जैसी पहलें आर्थिक और पारिस्थितिक लक्ष्यों को एक साथ जोड़ सकती हैं। संरक्षित क्षेत्रों को जैव विविधता संरक्षण और गरीबी उन्मूलन के केंद्रों में बदल सकती हैं। गोपाल कहते हैं, “मानव-बाघ संघर्षों का प्रबंधन, सामुदायिक प्रबंधन को बढ़ावा देना और कई क्षेत्रों में कोशिशों को एकीकृत करना जैसे उपाय लंबी अवधि में सफलता के लिए जरूरी हैं।”

बाघों की आबादी के सर्वे कितने भरोसेमंद?
झाला कहते हैं कि भारत में संरक्षण की कोशिशों में 2005 अहम साल रहा। उस साल राजस्थान के सरिस्का अभयारण्य में बाघों को स्थानीय स्तर पर पूरी तरह खत्म घोषित कर दिया गया था। हालांकि, तब भी आधिकारिक रिकॉर्ड में वहां 19 बाघ थे। उसके बाद देशभर में विरोध-प्रदर्शन हुए और सरकार को कार्रवाई करने पर मजबूर होना पड़ा।
झाला याद करते हैं, “प्रधानमंत्री ने संकट को देखते हुए टाइगर टास्क फोर्स का गठन किया।” इस घटना ने पैरों के निशान के आधार पर निगरानी के तरीकों की गंभीर खामियों को उजागर किया। इस तरह, भारत ने अब कैमरा ट्रैपिंग, आनुवांशिक विश्लेषण और M-STrIPES ((बाघों के लिए निगरानी प्रणाली: गहन सुरक्षा और पारिस्थितिकी स्थिति) जैसी आधुनिक तकनीकों को अपनाया है।
झाला बताते हैं, “आज M-STrIPES का इस्तेमाल 44 हजार कर्मचारी करते हैं। यह बाघ के हर निशान को दर्ज करके डेटा की प्रामाणिकता पक्की करता है। चाहे वह पैरों के निशान हो, मल या खरोंच के निशान हो। आप किसी चाय की दुकान पर बैठकर नहीं कह सकते कि हमने क्षेत्र का सर्वेक्षण कर लिया है।”
इस तकनीक ने बाघों की निगरानी के तौर-तरीकों को पूरी तरह बदल दिया है। संरक्षण से जुड़े फैसलों को बेहतर किया है। साथ ही, ज्यादा विश्वसनीय और प्रमाणिक नतीजों के साथ गलत डेटा की आशंका को कम किया है।
नाजुक जीत को बचाए रखना
अहम उपलब्धियों के बावजूद, संरक्षण उपायों में किसी भी तरह की कोताही से दशकों की प्रगति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने का खतरा है। झाला बताते हैं, “बाघों की संख्या बढ़ना तभी संभव है जब पर्याप्त जगह और समृद्धि मौजूद हो। इसके अलावा, मुख्य आवासों के बिना, साझा परिदृश्य काम के नहीं होंगे।”
भारत में बाघों की संख्या बढ़ने में दुनिया भर में मांसाहारी जीवों के संरक्षण के लिए कई अहम सबक हैं। गोपाल इसके व्यापक असर पर बात करते हैं, “दशकों के बाघ संरक्षण ने इस शिकारी की जनसांख्यिकी, व्यवहार और आवास से जुड़े बदलावों के बारे में हमारी समझ को बेहतर किया है। ये जानकारियां विविध परिदृश्यों में बड़े शिकारी जीवों के प्रबंधन के लिए अहम है।”
बड़ी प्रजाति के तौर पर, बाघ पूरे पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत के लिए अहम हैं। उनके आवास और एशियाई हाथियों (59 फीसदी), तेंदुओं (62 फीसदी) के आवास काफी हद तक मिले-जुले हैं। इसलिए, बाघों को बचाने से जैव-विविधता का संरक्षण होता है।
हालांकि, इस सफलता को बनाए रखने के लिए संरक्षण नीतियों, आवासों की सुरक्षा और स्थानीय लोगों के लिए आर्थिक प्रोत्साहन में लगातार निवेश जरूरी है। झाला कहते हैं,“अगर बाघों की मुख्य आबादी आस-पास हो, तो वे इंसानों के साथ सह-अस्तित्व में रह सकते हैं। लेकिन, अगर इस प्रगति का प्रबंधन जिम्मेदारी से नहीं किया जाता है, तो विलुप्त होने का खतरा बना रहेगा।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 27 फरवरी, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: बाघों की आबादी का बढ़ना तभी संभव है जब शिकार भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो और गलियारों के जरिए बेहतर आवाजाही बनी रहे। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0) के जरिए डेविड राजू की तस्वीर।