- पिछले सप्ताह ग्लासगो में संपन्न कॉप-26 में मीथेन गैस के उत्सर्जन को कम करने पर सहमति बनी। ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने में यह एक सकारात्मक कदम हो सकता है।
- कार्बन जलवायु में वातावरण में लंबे समय तक बना रहता है। इसके मुकाबले मीथेन की आयु छोटी होती है पर इसमें ताप अवशोषण की क्षमता अधिक होती है। तात्पर्य यह कि ग्लोबल वार्मिंग में इसका भी बड़ा योगदान है।
- रूस और चीन के साथ भारत ने इस सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। इसकी वजह देश में मवेशी से जुड़ी अर्थव्यवस्था पर करोड़ों लोगों का निर्भर होना है। मीथेन उत्सर्जन में कृषि, खासकर मवेशियों का बड़ा योगदान होता है।
हाल ही में संपन्न हुए ग्लासगो पर्यावरण सम्मेलन की कुछेक उपलब्धियों में मीथेन गैस के उत्सर्जन में कटौती करना भी शामिल है। हालांकि भारत ने अपने को इससे दूर रखा और वजह बताई कि देश के करोड़ों लोगों की आजीविका पर खतरा हो सकता है। भारत के अतिरिक्त रूस और चीन ने भी इस सहमति पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किये।
अमेरिका और यूरोपियन यूनियन की तरफ से प्रस्तावित ग्लोबल मीथेन प्लेज नाम के इस सहमति पत्र पर दुनिया के 103 देशों ने पर हस्ताक्षर किये। पर भारत, रूस और चीन जैसे देश जो मीथेन उत्सर्जन में अग्रणी हैं, उन्होंने खुद को इससे दूर रखा। मीथेन उत्सर्जन के मामले में भारत तीसरे नंबर पर आता है।
ग्लोबल मीथेन प्लेज में शामिल होने वाले देशों ने बड़ी मात्रा में मीथेन उत्सर्जन में कमी करने पर प्रतिबद्धता जाहिर की है। इसके अनुसार 2030 तक मीथेन उत्सर्जन में 30 फीसदी की कमी करने का लक्ष्य है। 2020 के स्तर से।
ग्लोबल मीथेन प्रतिबद्धता को हासिल करने से 2050 तक ग्लोबल वार्मिंग में कम से कम 0.2 डिग्री सेल्सियस की कमी आएगी।
मीथेन उत्सर्जन का नियंत्रण बहुत महत्वपूर्ण
नब्बे के दशक की शुरुआत में, संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज का आधार कार्बन उत्सर्जन था। यह माना जा रहा था कि जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल से निकलने वाला कार्बन डाइऑक्साइड ही जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार है। वैसे तो इस समझ में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है और इस पर आम सहमति है कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करना ही होगा। पर इसके साथ ग्रीनहाउस गैस में मौजूद अन्य गैस जैसे मीथेन इत्यादि को भी नियंत्रित करना बहुत जरूरी है। अब इस पर सहमति बन चुकी है कि कार्बन की ही तरह मीथेन भी ग्लोबल वार्मिंग में बड़ा योगदान करता है।

जलवायु परिवर्तन के अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पेरिस समझौते के दो महत्वपूर्ण लक्ष्य हैं। पृथ्वी के बढ़ते तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रोकना और इसके लिए कोशिश करना कि यह वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस के नीचे ही रहे। इसके लिए जलवायु में मौजूद दीर्घकालीन प्रदूषक गैस जैसे कार्बन उत्सर्जन को रोकना जरूरी है। पर उतना ही जरूरी है अल्पकालिक प्रदूषकों को भी नियंत्रित करना। इसमें एक महत्वपूर्ण गैस है मीथेन।
मानवजनित जलवायु परिवर्तन में कार्बन के बाद सबसे अधिक योगदान मीथेन का ही है। कार्बन को दीर्घकालिक प्रदूषक इसलिए कहते हैं क्योंकि यह वातावरण में कई दशक तक रह सकता है। इसके मुकाबले मीथेन की आयु कम है, लगभग 12 साल। पर जहां तक ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने की क्षमता का सवाल है, मीथेन गैस कार्बन के मुकाबले कई गुना ज्यादा योगदान करता है। करीब 28-34 गुना ज्यादा, आईपीसीसी की पांचवीं आकलन रिपोर्ट में यह बात कही गयी है।
मवेशियों का मीथेन उत्सर्जन में बड़ा योगदान
औद्योगिक काल के पहले की तुलना में वर्तमान के वातावरण में मीथेन की मात्रा लगभग ढाई गुना अधिक है। यह लगातार बढ़ भी रही है।
अनुमान के मुताबिक वातावरण में हर साल करीब 57 करोड़ टन मीथेन उत्सर्जन होता है। इसमें प्राकृतिक स्रोतों का योगदान करीब 40 फीसदी है तो मानव गतिविधि से या कहें मानवजनित उत्सर्जन का योगदान 60 फीसदी है।
इस मानवजनित मीथेन उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्रोत कृषि क्षेत्र है। इसके अतिरिक्त ऊर्जा क्षेत्र जिसमें कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस और जैव ईंधन के इस्तेमाल से भी मीथेन का उत्सर्जन होता है।

जब खेती की बात आती है तो इसमें सबसे बड़ा योगदान पालतू जानवर और मवेशी जैसे गाय, भैंस, सूअर, भेड़ और बकरियों इत्यादि का है। ये जानवर अपनी सामान्य पाचन प्रक्रिया के हिस्से के रूप में मीथेन का उत्सर्जन करते हैं। इसके अलावा, इन जानवरों के गोबर के संग्रह-क्षेत्र से भी मीथेन का उत्सर्जन होता है। चूंकि मनुष्य, इन जानवरों को भोजन और अन्य उत्पादों के लिए पालते हैं, इसलिए इस उत्सर्जन को मानव-जनित माना जाता है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन ने एक बयान में कहा, “अगले 25 वर्षों में जलवायु परिवर्तन को धीमा करने के लिए मीथेन उत्सर्जन में कटौती सबसे अच्छा तरीका है।”
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कृषि-प्रधान देश के नाते हटना पड़ा पीछे?
पशुधन की खेती मीथेन उत्सर्जन का एक प्रमुख कारण है। भारत तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है, जिसका मुख्य कारण इसकी विशाल ग्रामीण अर्थव्यवस्था है जो दुनिया की सबसे बड़ी मवेशियों की आबादी का घर भी है।
कॉप-26 में मीथेन समझौते से पीछे हटते हुए भारतीय वार्ताकारों ने कहा कि ऐसी कोई भी प्रतिबद्धता देश के करोड़ों किसानों की आजीविका खतरे में डालने की क्षमता रखती है।
भारत की बड़ी आबादी पशुपालन में लगी है। सरकारी आंकड़े के अनुसार 2.05 करोड़ से अधिक लोग अपनी आजीविका के लिए पशुधन पर निर्भर हैं। दो साल पहले यानी 2019 में भारत में पशुधन की आबादी 53.676 करोड़ थी।

आगे का रास्ता
कॉप-26 के दरम्यान भारत ने इस सहमति पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किया। इसके बाद अपना पक्ष रखते हुए नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा कि देश ने बायोगैस उत्पादन बढ़ाने और मीथेन उत्सर्जन को कम करने के लिए प्रतिबद्ध है। देश में एक राष्ट्रीय नीति भी बनी है जिसमें बड़ा निवेश किया जा रहा है।
यूनाइटेड नैशन इनवायरनमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) के साथ जुड़े कृषि सलाहकार जेम्स लोमैक्स का कहना है कि दुनिया को “खेती और पशुधन उत्पादन को लेकर अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार” करने की जरूरत है। इसमें आधुनिक तकनीकी का अधिकतम इस्तेमाल, मांसहार से पौधा-जनित आहार की तरफ रुख करना और प्रोटीन के वैकल्पिक स्रोतों पर विचार होना चाहिए। लोमैक्स का कहना है कि अगर मानवता को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के प्रकोप से बचाना है या कहें ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है, तो यह एक कारगर हथियार हो सकता है।
विश्व में कई तरह के अध्ययन हो रहे हैं जिससे मीथेन उत्सर्जन को कम किया जा सके। ऐसे कई वैक्सीन पर काम हो रहा है जिससे मवेशियों से होने वाले मीथेन उत्सर्जन को कम किया जा सके। हालांकि अभी तक कोई सफलता नहीं मिली है। भविष्य का रास्ता इन्हीं नए विचारों से होकर जाता है।
बैनर तस्वीरः गुजरात के हाइवे पर मवेशियों को ले जाते चरवाहे। मीथेन उत्सर्जन में मवेशियों की भी भूमिका होती है। मीथेन गैस उत्सर्जन में कटौती की जाए तो देश में कई लोगों की आजीविका संकट में आ जाएगी। तस्वीर– दिव्या मुदप्पा/विकिमीडिया