- संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूनेप) और आईयूसीएन के द्वारा जारी एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के नुकसान को कम करने के लिए प्रकृति आधारित समाधान कारगर हो सकते हैं। इसके मुताबिक जैव विविधता और मानव अधिकारों को बचाए रखने के लिए पर्यावरण और समाज की सुरक्षा करनी होगी।
- रिपोर्ट के मुताबिक जंगल की मदद से जलवायु परिवर्तन की आंच को कम किया जा सकता है। कृषि आधारित पारिस्थितिकी तंत्र जैसे कृषिवानिकी की मदद से देश भर में जलवायु परिवर्तन की रफ्तार को कम किया जा सकता है।
- मिट्टी की गुणवत्ता सुधार कर और संरक्षित जंगल के बाहर की जैवविविधता को बचा कर भी इन चुनौतियों से कुछ हद तक निपटा जा सकता है।
- ग्लासगो में हुए जलवायु वार्ता में इस बात को स्वीकार किया गया कि जलवायु परिवर्तन और जैवविविधता संरक्षण के जुड़े संकट एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूनेप) और प्रकृति संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय संघ (आईयूसीएन) की हाल ही में जारी रिपोर्ट चर्चा में है। रिपोर्ट के लेखकों का कहना है कि भारत सहित कई देशों ने अपनी प्रतिबद्धताओं में प्रकृति-आधारित समाधान (नेचर बेस्ड सोल्यूशंस-एनबीएस) के माध्यम से पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण, बहाली और बेहतर प्रबंधन को शामिल किया है। उनका मानना है कि प्रकृति आधारित समाधान जलवायु परिवर्तन को कम करने में मदद कर सकते हैं। इसकी वजह से जलवायु परिवर्तन से लड़ना आसान हो सकता है।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पृथ्वी के तापमान-वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस के नीचे रखने में प्रकृति आधारित समाधान की अहम भूमिका हो सकती है। इसके लिए सख्त सामाजिक और पर्यावरणीय सुरक्षा उपायों को अपनाने की आवश्यकता है। इस रिपोर्ट को नवंबर 2021 में ग्लासगो जलवायु सम्मेलन (जिसे कॉप-26 के रूप में भी जाना जाता है) के दौरान लॉन्च किया गया था। कॉप-26 के दौरान जलवायु शमन (जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करना) और अनुकूलन (जलवायु परिवर्तन के नुकसान को झेलने की क्षमता विकसित करना) जैसे विषयों पर काफी चर्चा हुई। क्लाइमेट एक्शन और जैव विविधता संरक्षण एजेंडे के बीच तालमेल पर भी काफी बातचीत हुई। आने वाले समय में यानी 2022 में संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन भी होना है। इसकी पृष्ठभूमि तैयार करने में इस चर्चा ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।
यूनेप, आईयूसीएन और यूएनईपी वर्ल्ड कंजर्वेशन मॉनिटरिंग सेंटर (यूएनईपी-डब्ल्यूसीएमसी) के विशेषज्ञों द्वारा लिखित इस रिपोर्ट ने जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में प्रकृति आधारित समाधान को लागू करने हेतु जरूरी पूंजी इकट्ठा करने की वकालत की है। इस रिपोर्ट में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और वातावरण से कार्बन को हटाने के लिहाज से प्रकृति-आधारित समाधानों की क्षमता पर मौजूदा रिपोर्ट्स की भी समीक्षा की गयी है।
आईयूसीएन ने प्रकृति-आधारित समाधान, या एनबीएस को एक्शन टू प्रोटेक्ट यानी संरक्षण के लिए प्रभावी कदम उठाने, के रूप में पारिभाषित करता है। इसमें सामाजिक चुनौतियां (जैसे जलवायु परिवर्तन, खाद्य और जल सुरक्षा या प्राकृतिक आपदाओं) को प्रभावी ढंग से प्रबंधन करने की क्षमता है जिससे जैव विविधता की रक्षा भी हो सके और वृहत्तर रूप में मानव समाज का भी कल्याण हो।
रिपोर्ट में पाया गया है कि एनबीएस के माध्यम से 2030 तक प्रति वर्ष कम से कम पांच गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड और 2050 तक कम से कम दस गीगाटन कार्बन अवशोषित किया जा सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जंगल इस काम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। सभी अध्ययनों से यह निष्कर्ष निकलता है कि वनों की वजह से कार्बन का अवशोषण सबसे तेज होता है।
“हरे भरे वनों में कार्बन सोखने की सबसे अधिक क्षमता होती है। अन्य चीजों के मुकाबले करीब 62 प्रतिशत। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जब भी जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध कार्रवाई की बात होती है तो अक्सर वनों का जिक्र होता है,” रिपोर्ट के सह-लेखक और यूएनईपी-डब्ल्यूसीएमसी के शोधकर्ता लैरा माइल्स ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
माइल्स का कहना हैं कि यूएनएफसीसीसी के तहत आरईडीडी+ प्रक्रिया के माध्यम से विकासशील देशों को वन संबंधी रणनीति बनाने के लिए अधिक आर्थिक सहयोग मिला है।
भारत की रणनीति देखें तो यहां योजनाबद्ध तरीके से जंगल लगाकर कार्बन को सोखने की योजना रही है।
एक अन्य हालिया वैश्विक विश्लेषण के अनुसार, भारत उन शीर्ष 15 देशों में शामिल है जहां कम खर्च वाले मॉडल बनाए गए हैं। इसमें वन लगाकर या कटाई रोककर कार्बन सोखने की योजनाएं शामिल हैं।
माइल्स के मुताबिक वन लगाकर, मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाकर, फसल और घास के मैदानों पर ध्यान देकर, फसलों से नाइट्रोजन ऑक्साइड उत्सर्जन को नियंत्रिक कर, धान की खेती में बदलाव कर मीथेन उत्सर्जन को कम करने जैसे प्रयास भारत में कारगर हो सकते हैं। इसके साथ मैंग्रोव वाले इलाके में इसकी रक्षा करना भी इन उपायों में शामिल हो सकता है।
हालांकि माइल्स का यह भी कहना है कि इन सब उपायों से भारत में कार्बन सोखने में कितनी मदद मिलेगी, इसका कोई अनुमान नहीं है। क्योंकि वहां जरूरी दस्तावेजों और रिकॉर्ड मौजूद नहीं है।
प्रकृति आधारित समाधान की परिभाषा समझाते हुए माइल्स कहते हैं कि वही समाधान इसके तहत आएंगे जिससे मानव का कल्याण हो और जैव विविधता को कोई नुकसान न हो।
बायोचार (बायोमास से उत्पन्न चारकोल जैसा पदार्थ) के उदाहरण का उपयोग करते हुए, रिपोर्ट बताती है कि बायोचार कब पर्यावरण के लिए मददगार हो सकता है और कब यह हानिकारक हो सकता है।
माइल्स का कहना है कि बायोचार का उत्पादन करने के लिए भी वनों की कटाई हो सकती है।
“अगर खाद्य अपशिष्ट या फसल अवशेष का उपयोग डंप या जलाने के बजाय बायोचार बनाने के लिए किया जा सकता है, तो यह एक सकारात्मक पहल है। इससे पर्यावरण को नुकसान नहीं होगा,” माइल्स ने कहा।
आपस में जुड़ी हुई समस्याएं और समाधान
पहले किसी भी (कॉप) की तुलना में ग्लासगो जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में प्रकृति और प्रकृति-आधारित समाधानों पर अधिक जोर रहा। हालांकि इस पर अधिकतर चर्चा औपचारिक वार्ता के बाहर ही हुई। लेकिन इस विषय ने ग्लासगो जलवायु संधि को प्रभावित किया है, माइल्स का मानना है।
यह समझौता पेरिस समझौते के तापमान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए “प्रकृति और पारिस्थितिक तंत्र की रक्षा, संरक्षण और पुनर्स्थापना” के महत्व पर जोर देता है, जिसमें वन के साथ-साथ समुद्री पारिस्थितिक तंत्र शामिल हैं जो जैव विविधता की रक्षा करते हुए ग्रीनहाउस गैसों के सोखने का काम करते हैं।
यह समझौता “जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के नुकसान के परस्पर जुड़े वैश्विक संकटों” को भी मान्यता देता है।
जैव विविधता संरक्षण का एजेंडा अक्टूबर में सबसे आगे था। इस दौरान हुए संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन के पहले दौर में कुनमिंग घोषणा को अपनाया गया। हाल ही में कुनमिंग घोषणा को चीन में 100 से अधिक देशों की बैठक में अपनाया गया। यह जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में शामिल देशों की 15वीं बैठक थी। सीबीडी कॉप 15 की दूसरी बैठक 2022 के अप्रैल-मई में चीन के कुनमिंग में आयोजित होनी है।
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पारिस्थितिकीविद् और संरक्षण जीवविज्ञानी कमल बावा ने कॉप- 26 में लक्ष्यों को एकसाथ शामिल करने की सराहना की। इससे पहले के कॉप में इन मुद्दों पर अलग से बात होती थी, लेकिन अब यह मुद्दे मुख्यधारा की बातचीत में शामिल हैं।
अब इस काम में आने वाली लागत पर भी विचार किया जाना चाहिए।
“उदाहरण के लिए, जलवायु परिवर्तन को लें। नवीकरणीय ऊर्जा अपनाने और उत्सर्जन को कम करने के लिए सबसे स्पष्ट समाधान पर विचार करें तो यह है कोयला से मुक्ति। इसमें कोयले सहित जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना शामिल है। इस बदलाव में पर्याप्त आर्थिक और सामाजिक खर्च आना है। इसके विपरीत, कार्बन को अलग करके उत्सर्जन को कम करने के लिए प्रकृति-आधारित समाधानों के परिणामस्वरूप आर्थिक और सामाजिक लाभ होंगे। इसमें खर्च भी होगा, लेकिन लाभ इन खर्चों से अधिक होगा। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि केवल कार्बन को सोखने से ही हमें डीकार्बोनाइजेशन का लक्ष्य पा लेंगे,” बावा कहते हैं।
यूएनईपी-आईयूसीएन रिपोर्ट का हवाला देते हुए, यूएनईपी-डब्ल्यूसीएमसी के लेरा माइल्स ने जोर दिया कि प्रकृति-आधारित समाधानों के लिए धन की जरूरत होगी और इसके लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच समन्वय की आवश्यकता होगी।
बैनर तस्वीरः खेत में फसल के साथ पशुधन, पेड़, बागवानी के साथ एक किसान का घर। यह कृषि वानिकी का एक उदाहरण है। ऐसे मॉडल अपनाने से जलवायु परिवर्तन की रफ्तार कम हो सकती है। तस्वीर- वर्ल्ड एग्रोफोरेस्ट्री सेंटर/देवश्री नायक/फ़्लिकर