- वैज्ञानिकों ने उत्तरी ध्रुव यानि आर्कटिक के पिछले एक हजार सालों के जलवायु इतिहास को फिर से बनाया है। उत्तरी ध्रुव एक ऐसा क्षेत्र जो धरती पर किसी भी अन्य जगह की तुलना में तेज़ी से गर्म हो रहा है।
- उन्होंने पिछले एक हजार सालों में उत्तरी ध्रुव में गर्म और ठंडे मौसम के दौर का पता लगाया है। उत्तरी ध्रुव में गर्म स्थिति भारतीय उपमहाद्वीप में तेज बारिश से जुड़ी हुई थी। वहीं ठंड की स्थिति से उपमहाद्वीप में बारिश कम होती थी।
- भारतीय मॉनसून में इन छोटी अवधि के बदलावों पर उत्तरी ध्रुव का प्रभाव अधिक स्पष्ट हो सकता है क्योंकि यहां इंसानी कामों के चलते जलावुय में परिवर्तन हो रहा है।
उत्तरी ध्रुव में पिछले एक हजार साल के ठंडे और गर्म मौसम के दौर को एक अध्ययन के जरिए फिर से बनाया या रीकंट्रस्ट किया गया है। इसमें पाया गया है कि इस दौरान भारत के मॉनसून में भी बदलाव देखा गया।
भारत के नेशनल सेंटर फॉर पोलर एंड ओशन रिसर्च (NCPOR) के वैज्ञानिकों का कहना है कि गर्म उत्तरी ध्रुव की स्थिति भारतीय उपमहाद्वीप में बहुत ज़्यादा बारिश से जुड़ी थी। वहीं उत्तरी ध्रुव में ठंड की स्थिति पिछले एक हजार सालों में भारतीय उपमहाद्वीप में कम बारिश की वजह थी।
नॉर्वे के वैज्ञानिकों के सहयोग से, उन्होंने उत्तरी ध्रुव क्षेत्र से पिछले जलवायु इतिहास को फिर से बनाया। धरती पर उत्तरी ध्रुव सबसे तेजी से गर्म होने वाली जगह है। वैज्ञानिकों का कहना है कि भारतीय मॉनसून में छोटे समय वाले बदलाव पर उत्तरी ध्रुव का प्रभाव और ज़्यादा स्पष्ट हो सकता है क्योंकि इंसानी गतिविधियों के चलते यह क्षेत्र और अधिक गर्म हो रहा है।
“उत्तरी ध्रुव में होने वाले बड़े वेरिएशन (पिछले 1000 वर्षों में 1 मानक विचलन से ज्यादा) ने उस अवधि के दौरान भारतीय मॉनसून के उतार-चढ़ाव पर एक मुख्य नियंत्रण की तरह काम किया।”
एनसीपीओआर के पास्ट क्लाइमेट एंड ओशन स्टडीज (पीसीओएस) डिवीजन के विकास कुमार ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “हम अनुमान लगा सकते हैं कि आने वाले दिनों में उत्तरी ध्रुव के और गर्म होने से मॉनसून में और ज्यादा बारिश होगी। साथ ही कमजोर मॉनसून वाले साल में भी बारिश का अंतर बदल जाएगा।”
आर्कटिक (60-100 वर्ष) में मौसम के रिकॉर्ड की कमी के चलते कुमार और उनके सहयोगियों ने 1000 साल पहले समुद्र की स्थिति जानने और टाइम सीरीज का विस्तार करने के लिए उत्तरी ध्रुव के स्वालबार्ड में एक बर्फीले द्वीपसमूह कोंग्सफजॉर्डन में समुद्र तल से 51 सेंटीमीटर लंबे सेडीमेंट का नमूना निकाला।
उन्होंने रिसर्च करने वाले पोत लांस पर 2014 में कोंग्सफजॉर्डन-रिजफजॉर्डन क्रूज के दौरान नमूने एकत्र किए। एनसीपीओआर में वापस आकर उन्होंने सेडीमेंट कोर में फंसी सामग्री को देखा। लगभग 2% सेडीमेंट के वजन में समुद्री और जमीन से लाए गए कार्बनिक पदार्थ शामिल थे।
कुमार और उनके सहयोगियों ने पिछले 1000 सालों (1107 से 1967) के लिए क्षेत्र के जलवायु इतिहास का पुनर्निर्माण करने के लिए प्रयोगशाला में इन चीजों की मौलिक और समस्थानिक रचनाओं का विश्लेषण किया और खास जैव-भू-रासायनिक मापदंडों को मापा।
कुमार कहते हैं, “फिलहाल, साल-दर-साल भारतीय मॉनसून का अलग-अलग रूप मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय कारकों से तय होता है। हालांकि, भारतीय मॉनसून में छोटी अवधि में आने वाले बदलाव पर उत्तरी ध्रुव का प्रभाव अधिक अहम हो सकता है क्योंकि यह क्षेत्र और ज्यादा गर्म हो रहा है। हमारा अध्ययन इस विचार का समर्थन करता है।”
उत्तरी ध्रुव के गर्म/ठंडे दौर ने तिब्बती पठार के तापमान में सबसे ज्यादा बदलाव किया। पठार अपनी ऊंचाई के कारण वायुमंडल के लिए गर्मी का एक उन्नत स्रोत है और प्रचलित उत्तर-दक्षिण तापमान अंतर को प्रभावित करके मॉनसून पर असर डाल सकता है। यह मॉनसून के दौरान कई रूपों में मौजूद होता है- जैसे भूमि-समुद्र तापमान में अंतर। उन्होंने कहा कि प्राकृतिक और इंसानी दोनों कारकों ने गर्म और ठंडे मौसम को प्रभावित किया।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के पूर्व सचिव और मॉनसून शोधकर्ता माधवन राजीवन ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “मेरी समझ में, पहली बार उत्तरी ध्रुव जलवायु और भारतीय मॉनसून के बीच प्रॉक्सी (अप्रत्यक्ष माप) का उपयोग करके इस तरह का टेलीकनेक्शन पैटर्न स्थापित किया गया है।”
राजीवन अध्ययन से जुड़े नहीं थे। हालांकि वह कहते हैं कि उत्तरी ध्रुव की जलवायु और भारतीय मॉनसून के बीच संबंध कोई हैरानी की बात नहीं है। हाल के ऑब्जर्वेशन आर्कटिक आसलैशन (दोलन) (उत्तरी गोलार्ध के मध्य से उच्च अक्षांशों पर वायुमंडलीय परिसंचरण पैटर्न) के माध्यम से भारतीय मॉनसून के लिए उत्तरी ध्रुव की जलवायु के संभावित संबंध का सुझाव देते हैं। वर्तमान अध्ययन का दावा है कि यह संबंध पिछले 1000 सालों के रिकॉर्ड में मौजूद है।
राजीवन कहते हैं, “इस अध्ययन में कुछ अनिश्चितताएं शामिल हैं (जैसा कि एक पेलीयोक्लाइमेट अध्ययन से अपेक्षित है)। फिर भी, यह अध्ययन बहुत दिलचस्प है और टिप्पणियों और मॉडलों का उपयोग करके नए अध्ययनों को प्रोत्साहित कर सकता है (विशेष रूप से पिछले पेलियो जलवायु का अनुकरण करके)।”
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हाल के एक पेपर में, गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने दलील दी है कि गर्म होने की दर अनुमान से बहुत तेज होगी। लेकिन, “संयुक्त राष्ट्र के आईपीसीसी द्वारा उपयोग किए जाने वाले जलवायु मॉडल और जलवायु परिवर्तन को प्रोजेक्ट करने वाले अन्य लोग आर्कटिक के भविष्य को सटीक रूप से नहीं दिखा रहे हैं।”
जलवायु अध्ययन के लिए आर्कटिक की अहमियत
ठंडा उत्तरी ध्रुव पृथ्वी की जलवायु में चल रहे बदलावों का एक प्रमुख संकेतक है। ऐसा इसलिए कि यह वैश्विक औसत से दो से तीन गुना तेजी से गर्म हो रहा है और अपने समुद्री बर्फ के आवरण को खो रहा है।
स्वालबार्ड द्वीपसमूह की जलवायु संवेदनशीलता इसकी स्थिति से बनी है – यह विषम समुद्र और वायु स्थितियों से मिलकर बनी है। द्वीपों का यह समूह, जहां अध्ययन के लिए नमूने एकत्र किए गए थे, उत्तरी ध्रुव को अटलांटिक (ग्रीनलैंड) से जोड़ने वाले एक गहरे पानी के चैनल फ्रैम स्ट्रेट के करीब है। स्वालबार्ड और ग्रीनलैंड के बीच चैनल के माध्यम से द्रव्यमान, गर्मी और नमक का आदान-प्रदान होता है। उदाहरण के लिए, इस प्रवेश द्वार से उत्तरी ध्रुव में गर्म पानी आता है।
एनसीपीओआर के कुमार ने समझाया, “एक और वजह यह है कि स्वालबार्ड जलवायु और संबंधित अंतःविषय शोधकर्ताओं के लिए दिलचस्प हैं। इसकी हिमनदी-समुद्री सेटिंग है, जिसके चलते ग्लेशियर के सिर और समुद्री मुंह के बीच भौतिक और जैव-रासायनिक मापदंडों में तेजी से परिवर्तन होता है।”
“इसलिए, जलवायु तनाव के चलते ग्लेशियर से निकलने वाले पानी में परिवर्तन और फजॉर्ड (खड़ी चट्टानों के बीच का लंबा सँकरा समुद्री रासता) में समुद्री प्रवाह इन ग्रेडिएंट को बदल देते हैं जो मुख्य सेडीमेंट में जलवायु परिवर्तन के संकेतों के रूप में दर्ज हो जाते हैं। इसके अलावा, पश्चिमी स्वालबार्ड फजॉर्ड में सेडीमेंट संचय दर उच्च है, जिसका मतलब है कि इन सेटिंग से पुनर्निर्मित जलवायु डेटा का बेहतर समाधान मिलना।
अध्ययन स्थल, स्वालबार्ड और आस-पास के क्षेत्र, “इस बड़े हॉटस्पॉट के भीतर एक हॉटस्पॉट” हैं।
कुमार ने कहा, “तेजी से हो रहे इन आधुनिक परिवर्तनों को परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए, अतीत में भी उनके व्यवहार को समझना अहम है। इसके अलावा, आर्कटिक में जलवायु परिवर्तन किसी भी अन्य जगह की तुलना में ज्यादा तेजी से होता रहेगा, अन्य क्षेत्र तेजी से बदलते उत्तरी ध्रुव से अछूते नहीं रहेंगे।”
उत्तरी ध्रुव उन जगहों में से एक है जो 7000 किलोमीटर से अधिक दूर भारतीय मॉनसून में विविधताएं लाता है। साल 2018 के एक अध्ययन में, विकाश कुमार और उनके सहयोगियों ने 1970 के दशक के बाद कोंग्सफजॉर्डन में हिमनदों के तुरंत पिघलने को दिखाया। दूर उत्तरी ध्रुव में परिवर्तन जैसे हिमनद और समुद्री बर्फ का पिघलना, भारतीय मॉनसून को प्रभावित करता है क्योंकि वे इसकी साल-दर-साल परिवर्तनशीलता में योगदान करते हैं जो विनाशकारी बाढ़ और सूखे में तब्दील हो जाता है।
“इसलिए, यह अहम है कि हम पिछले उत्तरी ध्रुव के परिवर्तनों के रिकॉर्ड को और समझें और भविष्य के आर्कटिक परिवर्तनों के साथ क्या हो सकता है, इस बारे में बेहतर जानकारी देने के लिए पूर्व के दस्तावेजी रिकॉर्ड के वैश्विक कनेक्शन और प्रभाव की जांच करें।” उन्होंने कहा कि जलवायु-संवेदनशील होने के बावजूद हॉटस्पॉट, स्वालबार्ड और इसके आसपास के क्षेत्रों को उत्तरी ध्रुव जलवायु प्रॉक्सी अभिलेखागार (अप्रत्यक्ष माप) के मौजूदा नेटवर्क में कम शामिल किया गया है।
पिछले एक हजार सालों का पैलियो अंतराल आधुनिक जलवायु परिस्थितियों का अच्छा अनुरूप है।
“पिछली सहस्राब्दी और वर्तमान के बीच एकमात्र महत्वपूर्ण अंतर यह है कि हम इंसानों ने पिछले 150 सालों में बहुत अधिक कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण छोड़ा है। पिछली सहस्राब्दी की जलवायु गतिशीलता का अध्ययन करने से हम जो जानकारी हासिल करते हैं, वह हमारे भूवैज्ञानिक इतिहास में अन्य अवधियों की तुलना में भविष्य के जलवायु रुझानों को ज्यादा संबंधित बनाता है।”
कुमार ने कहा, “फिर भी, इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य पेलियो अंतरालों का महत्व कम है। उदाहरण के लिए, मिड-प्लियोसीन वार्म पीरियड, जो लगभग 3.3 से 3 मिलियन साल पहले तक फैला हुआ है, को भी समकालीन जलवायु परिस्थितियों के लिए एक आदर्श एनालॉग माना जाता है।”
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बैनर तस्वीर: बारिश के दौरान पुल से गुजरते लोग। तस्वीर- ध्रुवराज एस/विकिमीडिया कॉमन्स