- आइबिस बिल को नदियों के आस-पास बने कुछ खास बसेरों में ही देखा गया है। इन तक पहुंचना मुश्किल है। दक्षिणी मध्य एशिया में इन पक्षियों की कितनी आबादी है, अभी तक इसे लेकर कोई जानकारी सामने नहीं आई है।
- तमाम तरह की मानवीय गतिविधियां इन प्रजातियों (इबिडोरहिन्चा स्ट्रूथर्सि) पर असर डाल सकती है। रेत और बड़े पत्थरों का खनन इनके लिए सबसे बड़ा खतरा है।
- शोधकर्ता इस बात को भी रेखांकित कर रहे हैं कि भारतीय हिमालय में बदलते जलवायु पैटर्न से आइबिस बिल समेत तमाम तरह के जमीन पर घोंसला बनाने वाले अन्य पक्षी भी प्रभावित हो सकते हैं।
समुद्रतल से बेहद ऊंचाई वाले इलाकों में एक ऐसी पक्षी का घर है जिन्हें आसानी से पहचाना नहीं जा सकता। ये घर चट्टानों के गोल पत्थरों के बीच छिपे होते हैं। यह पक्षी सदियों से प्रकृति प्रेमी और पक्षी विशेषज्ञों को आकर्षित करते आया है। इसे हम आइबिस बिल (Ibidorhyncha struthersii) के नाम से पहचानते हैं, जो अपनी करिश्माई प्रकृति और दुर्लभता के कारण ‘हिमालय के आश्चर्यजनक पक्षी’ के रूप में जाना जाता है।
पृथ्वी के ध्रुवी क्षेत्रों के बाहर अगर कहीं सबसे अधिक हिमाच्छादित (बर्फ से पटे हुए) इलाके हैं, तो वे कश्मीर हिमालय और तिब्बती पठार के पहाड़ों में हैं। हिमालय के ग्लेशियरों ने इस क्षेत्र की आद्रभूमि के निर्माण में अहम भूमिका निभाई है. जैसे-जैसे हिमालय के ग्लेशियर जमते और पिघलते हैं, वैसे-वैसे उच्च-ऊंचाई वाले आर्द्रभूमि (high-altitude wetlands) को रिचार्ज करते चले जाते हैं। उच्च-ऊंचाई वाली आर्द्रभूमि को आमतौर पर समुद्र तल से 3000 मीटर (m asl) ऊपर और ट्री लाइन व परमानेंट स्नो लाइन के बीच स्थित अस्थायी या स्थायी नमी वाले इलाकों के रूप में परिभाषित किया जाता है। उच्च ऊंचाई वाली आर्द्रभूमि जल, जैव विविधता, आजीविका और पारिस्थितिकी तंत्र की गतिशीलता के लिए महत्वपूर्ण स्रोत और संसाधन हैं। इनमें से कई उच्च-ऊंचाई वाले वेटलैंड आइबिस बिल जलपक्षियों का घर हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि नदी के अन्य पक्षियों के विपरीत, नदियों की छोटी धाराओं (थर्ड ऑर्डर स्ट्रीम) के छोटे द्वीपों में आइबिस बिल अपने घोंसलों को चट्टानों के गोल पत्थरों और कंकड़ों के बीच छिपा कर रखते हैं। हालांकि, उन्हें संकटग्रस्त प्रजातियों की IUCN रेड लिस्ट में ‘लीस्ट कंसर्न’ प्रजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है, दक्षिणी मध्य एशिया के हाइलैंड्स में रहने वाले ये ग्राउंड-नेस्टर वहां की जमीन के एक बड़े हिस्से पर काबिज हैं और नदी के मुहानों पर बने खास आवासों को पसंद करते हैं और इसलिए इनके बारे में अभी तक ज्यादा जानकारी नहीं है।
भारत में इन पक्षियों को जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, सिक्किम और पूर्वोत्तर भारत के कुछ इलाकों में देखा जाता रहा है।
साल 2022 में प्रकाशित दो साल के एक अध्ययन ने मध्य कश्मीर के गांदरबल जिले में हाई-एल्टीट्यूड वाली सिंधु नदी समेत छह स्थलों में इन प्रजातियों के सामने आने वाले कई खतरों का दस्तावेजीकरण किया है।
निष्कर्षों से पता चला कि इन पक्षियों के लिए खतरे के तौर पर रेत और गोल पत्थरों का खनन सबसे अधिक जिम्मेदार (38%) रहा। इसके बाद, इनके आवासों के आस-पास मानव उपस्थिति (37%), पशुओं की चराई (12%), और प्राकृतिक शिकारियों और मानव बस्तियों में रहने वाले कुत्तों (9%) का नंबर आता है।
रिपोर्ट में कहा गया है, “आइबिस बिल को अन्य पक्षियों (4%) से भी खतरा है, मसलन ब्लैक काइट (मिल्वस माइग्रन्स), जैकडॉ (कॉर्वस मोनेडुला) और येलो-बिल्ड ब्लू मैगपाई (यूरोकिसा फ्लेविरोस्ट्रिस)। इन पक्षियों को किजपोरा में सबसे अधिक खतरा (2.61 बाधा/घंटा) और सबसे कम सोनमर्ग में (0.29 बाधा/घंटा) थ। अध्ययन में कहा गया है कि किजपोरा में खनन, मछली पकड़ने और पर्यटन जैसी मानवीय गतिविधियों से उच्चतम स्तर की गड़बड़ी देखी गई।”
आइबस बिल की आबादी को लेकर जानकारी नहीं
अध्ययन के प्रमुख लेखक इक़राम उल हक ने कश्मीर हिमालय में आइबिस बिल पर व्यापक शोध किया है। उन्होंने नोट किया कि पक्षी की वैश्विक सीमा पूर्वी कजाकिस्तान से लेकर पूर्वोत्तर चीन, तिब्बत और भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भागों तक फैली हुई है। उनके विचरने की एक बड़ी सीमा होने के बावजूद, दुनियाभर में उनकी जनसंख्या और जनसंख्या की प्रवृत्ति का अभी तक निर्धारण नहीं जा सका है।
चीन एकमात्र ऐसा देश है जहां उनकी आबादी का अनुमान लगाया गया है। अगर इस देश में किए गए कुछ शोधों को छोड़ दें तो आइबिस बिल की आबादी पर जानकारी दुर्लभ बनी हुई है। भारत में अभी तक इसका सटीक आकलन नहीं हो पाया है।
हक ने सिंधु नदी (वायुल, वुसन, किजपोरा, सोनमर्ग, नीलग्रथ और बालटाल) के साथ-साथ अन्य कई स्थलों पर पक्षी की उपस्थिति का जिक्र किया है। यहां इनकी आबादी ज्यादा नहीं है। इन पक्षियों ने छोटे कंकड़, पत्थर, बोल्डर, पानी के मध्यम प्रवाह और शिंगल बेड क्षेत्रों पर कब्जा जमाया हुआ है।
हक ने बताया, “अगर सर्दियों के मौसम को छोड़ दे तों गैर-प्रजनन के मौसम के दौरान इनके समूह में दो से पांच पक्षी ही एक साथ नजर आते थे। यह तब की बात है जब पक्षी ने ऊंचाई वाले इलाकों को छोड़ नीचे की ओर आना शुरू किया था। मगर, इस दौरान 28 पक्षियों के समूह को एक साथ देखा गया, जो अब तक की सबसे ज्यादा संख्या है। शरद ऋतु और सर्दियों के दौरान ऊंचाई वाले इलाकों में इनके खाने और घोंसले बनाने की जगहों पर हलचल दिखाई थी। सिंधु के बाहर, लिद्दर और किशनगंगा नदियों में भी कुछ आइबिस बिल देखे गए थे।”
उन्होंने यह भी कहा कि पक्षी और उसके आवास को प्रभावित करने वाली सबसे अधिक बार दर्ज की गई मानवीय गड़बड़ी खनन और पशुओं को चराने से जुड़ी गतिविधियां थीं। उन्होंने बताया, “सिंधु नदी में ये दोनों कारक उनके घोंसले को रौंद कर प्रजनन की सफलता को कम कर सकते हैं और वहीं शिंगल बेड से गोल चट्टानी पत्थरों का बेतरतीब ढंग से निष्कर्षण उनके प्रजनन के आधार को नष्ट कर सकता है।”
खनन और अन्य मानव जनित खतरे
भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक सुरेश कुमार ने कहा कि हिमालयी नदी के किनारों में बड़े पैमाने पर हो रहे बोल्डर खनन का प्रजातियों पर खासा असर पड़ सकता है। “आइबिस बिल अपने आवास बनाने में माहिर हैं। उन्हें इसके लिए नदियों की धाराएं और गोल पत्थरों का साथ चाहिए होता है, जहां वे अपना भोजन खा सकते हैं और घोंसला भी बना सकते हैं। ये पक्षी (जमीन पर रहने वाली प्रजातियां होने के कारण) इन बड़े पत्थरों का इस्तेमाल खुद को और अपने घोंसलों को शिकारियों से छुपाने के लिए करते हैं। पत्थरों को हटाने के साथ ही उनके आवास पूरी तरह से खत्म हो जाएंगे।”
नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के एक शोधकर्ता रोहन मेन्ज़ीज़ ने आइबस बिल के बारे में कहा, “इसे विश्व स्तर पर भले ही ‘लीस्ट कन्सर्न स्पीशीज’ माना जाता हो, क्योंकि यह एक विस्तृत भौगोलिक सीमा में पाए जाते हैं। लेकिन सच तो यह है कि ये प्रजाती तमाम संकटों से जूझ रही है, जैसा कि कश्मीर हिमालय में किए गए अध्ययन से पता चलता है।”
मेन्ज़ीस का मानना है कि अगर इन इलाकों से इन पक्षियों के समुदाय को हटा दिया जाता है, तो आइबिस बिल को किसी अन्य प्रजाति द्वारा प्रतिस्थापित करने की संभावना नहीं है, क्योंकि इन्हें अपने लिए एक विशेष आवास की जरूरत होती है। मानव उपस्थिति और पशुओं के चरने से जमीन पर बने उनके घोंसलों और अंडों को रौंदा जा सकता है। साथ ही वयस्क पक्षी घोंसले में रह रहे अपने चूजों को नियमित रूप से खिला भी नहीं पाएंगे।
मेन्ज़ीज़ ने समझाते हुए कहा कि बोल्डर खनन जैसे खतरे न सिर्फ इन पक्षियों के प्रजनन को प्रभावित करेंगे बल्कि उन पक्षियों के लिए उपलब्ध संसाधनों पर भी असर डालेंगे, जो रेतीली नदी के किनारों और बड़े नदी द्वीपों में रहते हैं। इन पक्षियों में इंडियन स्किमर, रिवर लैपविंग, ग्रेट स्टोन कर्ल्यू, ब्लैक-बेल्ड टर्न, लिटिल टर्न, स्मॉल प्रिटिनकोल और रिवर टर्न शामिल हैं। ये पक्षी हिमालय की तेज धाराओं से परे बाढ़ के मैदानों में रहते हैं। अचानक आने वाली बारिश इनके घोंसलों को बरबाद कर सकती है और बांध बनाने से नदियों और संबंधित धाराओं के प्राकृतिक प्रवाह में बाधा आती है। इस तरह से नदियों और तटों की भू-आकृति विज्ञान बदल जाता है।
मेन्ज़ीज़ ने बताया कि शिकारी जानवर सीधे घोंसले में मौजूद अंडों या चूजों पर हमला करते हैं। वह आगे कहते हैं, “ज्यादातर पक्षी एक ख़तरे को संभालने में सक्षम होते हैं, जैसे कि प्राकृतिक शिकारी। हालांकि यह खतरा हमेशा से उन पर बना रहा है, लेकिन अन्य मानव गतिविधियों के जरिए उनके आवास को नुकसान इन पक्षियों की समग्र आबादी पर ज्यादा असर डालेगा।
भारतीय वन्यजीव संस्थान में प्रशिक्षित वन्यजीव जीवविज्ञानी अंकिता सिन्हा ने बताया, “हिमालयी नदियाँ लैंड यूज, जलवायु और जल संसाधन विकास में परिवर्तन के माध्यम से बड़े बदलावों के दौर से गुजर रही हैं। इनके असर को खासतौर पर नदी के जीवों के लिए कम करके आंका गया है। पर्यावरण को अनगिनत चीजें देने वाली नदियां दुनिया के कुछ सबसे करिश्माई जीवों की मेजबानी करती हैं।”
जलवायु परिवर्तन और अनिश्चित भविष्य
विशेषज्ञ इस बात पर जोर देते हैं कि इंसानी हस्तक्षेप के अलावा भारतीय हिमालय में बदलते जलवायु पैटर्न भी आइबिस बिल सहित जमीन पर घोंसला बनाने वाले अन्य पक्षियों पर असर डाल सकते हैं।
कुमार ने भारतीय हिमालय में जमीन पर घोंसला बनाने वाले पक्षियों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को दिखाने के लिए डेटा की भारी कमी की ओर इशारा किया। हालांकि, कुछ जानकारियां बता रही हैं कि हाल के दिनों में अनियमित मौसम पैटर्न के कारण उनके घोंसलों को नुकसान पहुंचा है। उन्होंने कहा, “पिछले कुछ सालों में गर्मियां समय से बहुत पहले आ रही हैं। गर्म मौसम के साथ, पक्षी ऊपरी जगहों की ओर जाने लगते हैं। वे गर्म मौसम से बचने के लिए वहां घोंसला बनाना शुरू कर देते हैं। हालांकि, ऊंचे इलाकों में असमय बर्फबारी या बर्फानी तूफान परेशानी में उठाए गए जाने वाले उनके इन कदमों को रोक देते हैं। विशेष रूप से छोटे गौरैया पक्षियों में यह एक चुनौती बनी हुई है क्योंकि उनके पास दूसरी जगह जाकर रहने की क्षमता नहीं होती है।”
और पढ़ेंः पक्षी हो या इंसान, दोनों के लिए प्रवास का दंश एक समान
मेन्ज़ीज़ ने कहा कि प्रजातियों की जमीन पर घोंसला बनाने के चलते इनक्युबेशन के समय तापमान की जरूरत और अंडे सेने के बाद उपलब्ध खाद्य संसाधन, नदी के जलस्तर में चढ़ाव जैसे कारक, सभी जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो सकते हैं।
उन्होंने आगे कहा, “अगर जलस्तर अचानक से बढ़ जाए या बारिश की कमी के कारण बहुत कम हो जाता है, तो घोंसले प्रभावित हो सकते हैं। वयस्क पक्षियों द्वारा प्रजनन चक्र अक्सर एक तय समय पर किया जाता है और अगर जलवायु में ऐसे ही बदलाव आता रहा, तो कुछ प्रजातियां तो इसके अनुकूल हो जाएंगी. लेकिन सभी के साथ ऐसा नहीं होगा। कुछ प्रजातियां जीवित बची रहेंगी जबकि अन्य खत्म हो जाएंगी।”
आइबिस बिल के लिए रणनीतिक संरक्षण उपाय
आइबिस बिल के संरक्षण पर कुमार ने कहा कि क्योंकि वे एक खास स्थान पर ही अपना आवास बनाती हैं और हर मौसम में उन्हें अपनी जगह में बदलाव करना पड़ता है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि किसी एक जगह की बजाय पूरे इलाके के आधार पर सुरक्षा उपायों को रणनीतिक बनाया जाए। वह कहते हैं, “ऐसा इसलिए है क्योंकि अगर संरक्षण सिर्फ इनके प्रजनन क्षेत्र को दिया जाता है और गैर-प्रजनन क्षेत्र यानी सर्दियों में इस्तेमाल किए जाने वाले मैदानों को छोड़ दिया जाता है, तो संभावना है कि हम पक्षी को बचा नहीं पाएंगे।”
कुमार ने जोर देकर कहा कि जमीन पर घोंसला बनाने वाले पक्षियों को स्पीशीज-स्पेसिफिक कंजर्वेशन की जरूरत होती है। उन्होंने बताया, “एक ऐसे प्लान की तत्काल जरूरत है जो प्राथमिक प्रजातियों पर ध्यान दे और साथ ही उनके लिए लंबे समय तक चलने वाले रिसर्च और कंजर्वेशन की जरूरत को समझे।”
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि आइबिस बिल, जलपक्षी के रूप में वर्गीकृत होने के बावजूद, प्रवासी बत्तखों और गीज़ जैसे अन्य जलपक्षियों के लिए अपनाए गए प्रबंधन उपायों द्वारा संरक्षित नहीं किया जा सका है। कुमार ने जोर देते हुए कहा, “अभी भी हम इस पक्षी के बारे में बहुत कम जानते हैं। यह एक बहुत ही अनोखा पक्षी हैं, और इसलिए उनके प्रवास और निवास की आवश्यकताओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए विस्तृत पारिस्थितिक अध्ययन किए जाने की जरूरत है। यह पक्षी उच्च ऊंचाई वाली हिमालयी नदियों की एक प्रमुख प्रजाति है। इन्हें लेकर केंद्र शासित प्रदेश कश्मीर सहित हिमालयी राज्यों की सरकार को अनुसंधान शुरू कर देना चाहिए और इस प्रजाति के संरक्षण के लिए पर्याप्त, धन, सहायता प्रदान की जानी चाहिए।”
सिन्हा का मानना है कि इन खास आवास वाले पक्षियों के संरक्षण की दिशा में पहला कदम उनकी पारिस्थितिकी और खतरों के बारे में जागरूकता फैलाना है।
उन्होंने कहा, “हालांकि इस बात का कोई प्रत्यक्ष अनुमान मौजूद नहीं है कि मानव गतिविधियों से आइबिस बिल के आवास पर असर पड़ रहा है या नहीं, लेकिन नदी के साथ-साथ अन्य कचरे के साथ बहते प्लास्टिक को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। प्रदूषण जलमार्गों में जा सकता है, धाराओं को अवरुद्ध कर सकता है और अक्सर किनारों पर आकर फैल जाता है। ये माइक्रोप्लास्टिक्स के रूप में पक्षियों के आहार में प्रवेश कर सकते हैं और चूजों में घुटन भी पैदा कर सकते हैं। इन स्थितियों से बचने के लिए अपशिष्ट निपटान की बारीकी से निगरानी की जानी चाहिए।”
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
बैनर तस्वीर: आइबिस बिल नदियों की छोटी धाराओं के छोटे द्वीपों में अपना घोंसला बनाता है, जो चट्टानों के बड़े और छोटे पत्थरों के बीच छिपा होता है। तस्वीर- नीलांजन चटर्जी
पर्यावरण से संबंधित स्थानीय खबरें देश और वैश्विक स्तर पर काफी महत्वपूर्ण होती हैं। हम ऐसी ही महत्वपूर्ण खबरों को आप तक पहुंचाते हैं। हमारे साप्ताहिक न्यूजलेटर को सब्सक्राइब कर हर शनिवार आप सीधे अपने इंबॉक्स में इन खबरों को पा सकते हैं। न्यूजलेटर सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।