- कच्चे माल की उच्च लागत, इन्वेंट्री पर होने वाला खर्च, सीमित शेड पैलेट और कच्चे रंगों जैसी परेशानियों के चलते रिटेल टेक्सटाइल और फैशन इंडस्ट्री आमतौर पर प्राकृतिक रंगों के इस्तेमाल से बचते आए हैं।
- प्राकृतिक रूप से रंगे उत्पादों की कीमत कच्चे माल की उपज, रंगों का कच्चा या पक्का होना और डाई निकालने में आने वाले खर्च पर निर्भर करती है। उस क्षेत्र की जलवायु परिस्थितियां और मिट्टी की गुणवत्ता पौधे की उपज और उसमें डाई की मात्रा को प्रभावित करती है।
- विशेषज्ञों का कहना है कि प्राकृतिक रूप से रंगे उत्पादों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए उपभोक्ता की मानसिकता को बदलना जरूरी है। विक्रेता को उपभोक्ता को समझाने के लिए नई भाषा गढ़नी होगी और उन्हें बताना होगा कि ये रंग स्थायी नहीं होते हैं।
हाल के कुछ सालों में फैशन इंडस्ट्री प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक इस्तेमाल और सिंथेटिक रंगाई प्रक्रिया से निकलने वाले जहरीले कचरे की वजह से जांच के दायरे में आ गई है। इससे निकलने वाला अपशिष्ट जल नदी, तालाबों और नहरों के पानी को दूषित कर रहा है। दुनियाभर में कपड़ा रंगाई का काम जल प्रदूषण का दूसरा सबसे बड़ा कारण है। शायद यही वजह है कि दक्षिण एशिया के दो प्रमुख कपड़ा केंद्रों- भारत और बांग्लादेश की नदियों के जल प्रदूषण में लगातार वृद्धि देखी जा रही है।
हालांकि इस समस्या से निपटने के लिए कुछ विशेषज्ञ और कंपनियों ने अपने कदम बढ़ाए हैं और टिकाऊ फैशन तरीकों को अपनाने के तरीके इजाद कर रहे हैं। उधर पिछले कुछ सालों से फैशन ब्रांडों और कंपनियों ने भी सर्कुलर फैशन (रिथिंक, रिसाइकिल और रि-लविंग) को अपनाना शुरू कर दिया है। अब वे रंगाई के लिए प्राकृतिक रंगों की तरफ देखने लगे हैं।
अगर इतिहास की बात करें तो सिंधु घाटी सभ्यता के बाद से ही भारत में प्राकृतिक तरीकों से कपड़ों पर रंगाई की जाती रही है। रंग देने वाले पौधों के सभी हिस्सों और लाख जैसे कीड़ों के इस्तेमाल से नीले से लेकर लाल और पीले तक कई रंगों को तैयार किया जाता रहा है। माना जाता है कि उष्णकटिबंधीय पौधा इंडिगो (इंडिगोफेरा टिनक्टरिया) की उत्पत्ति भारत में हुई थी। 19वीं शताब्दी में बंगाल में नील विद्रोह के भड़कने का कारण यही पौधा था। अपनी मजबूत ऐतिहासिक विरासत के बावजूद प्राकृतिक रंग सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप में शिल्प संचालित क्षेत्रों तक सिमट कर रह गए रहे हैं। 19वीं सदी के मध्य में औद्योगिक क्रांति के दौरान सिंथेटिक रंगों की लोकप्रियता बढ़ने लगी, जो आज तक कायम है। रंगों की लंबे समय तक टिकने की प्रकृति, चमक और किफायती होने के कारण लोग इन्हें ज्यादा पसंद करते हैं।
सोधानी बायोटेक के संस्थापक और प्रबंध निदेशक सिद्धांत सोधानी ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “अगर हम इसके (प्राकृतिक रंगों) इस्तेमाल को व्यावसायिक स्तर पर बढ़ाना चाहते हैं, तो प्राकृतिक रूप से रंगे उत्पाद को लंबे समय तक अपना रंग बरकरार रखने और अन्य विशेषताओं के मामले में सिंथेटिक रंगों के बराबर आना होगा।”
प्राकृतिक रंग शरीर और प्रकृति दोनो के लिए अच्छे हैं। उनसे निकलने वाले कचरे से निपटना आसान है और अपशिष्ट जल का इस्तेमाल सिंचाई के लिए भी किया जा सकता है। लेकिन फिर भी ये रंग अपने असंगत स्वभाव के लिए बदनाम रहे हैं। इससे मनचाहे शेड नहीं मिल पाते हैं सो रंगरेजों को इन रंगों के साथ काम करना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा रंगों का फीका पड़ जाना इनसे दूरियां बनाने की एक और वजह है। और सबसे बड़ा कारण इन उत्पादों के तैयार होते-होते अंत में काफी महंगा हो जाना है।
हालांकि इंडिपेंडेंट फैशन ब्रांड्स के बीच प्राकृतिक रंगों की मांग धीरे-धीरे बढ़ रही है, लेकिन अभी भी बड़े पैमाने पर व्यावसायिक तौर पर सफलता के लिए इन्हें लंबी दूरी तय करनी होगी।
वैज्ञानिक तरीकों की तरफ जाना
सस्टेनेबल फैशन पर बढ़ते फोकस ने तस्वीर में बदलाव की ओर कदम बढ़ाए हैं। अब उद्यमी प्राकृतिक रंगों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए एडवांस तकनीक के साथ रंगाई की पारंपरिक कारीगरी का फायदा उठा रहे हैं।
सोधानी ने प्राकृतिक रंगों को लोगों के बीच लोकप्रिय बनाने और उन्हें व्यावसायिक इस्तेमाल में लाने के लिए 2014 में अपनी कंपनी शुरू की थी। हालांकि, शुरुआती सालों में ही उन्हें एहसास हो गया था कि पारंपरिक तरीके – कच्चे माल को सुखाना, पीसना और पीसकर पाउडर बनाना – का इस्तेमाल करके प्राकृतिक डाई उत्पादन को बढ़ाना फायदेमंद नहीं होगा। उन्होंने कहा, ”हम हर महीने 80-100 किलोग्राम (प्राकृतिक डाई) बेच रहे थे। मैं जानता था कि इस कम आउटपुट के साथ हम लंबे समय तक टिक नहीं सकते हैं।”
2018 में कंपनी पूरी तरह से प्राकृतिक चीजों से अर्क निकालने (डाई एक्सट्रेक्ट) की तरफ चली गई और गुणवत्ता में सुधार के लिए अनुसंधान और विकास में निवेश किया। सोधानी कहते हैं, “अब हम एक्सट्रैक्शन मशीन में 100 किलोग्राम कच्चा माल डालते हैं और हमें लगभग 8-10 किलोग्राम उत्पाद (डाई एक्सट्रेक्ट) मिलता है।” उनकी कंपनी अब हर महीने लगभग 8,000-10,000 किलोग्राम कच्चे माल प्रोसेस करती है और उसे हर महीने लगभग 1,000-1,500 किलोग्राम डाई एक्सट्रेक्ट मिल जाता है।
ये रंग न सिर्फ पानी में आसानी से घुल जाते हैं बल्कि सिंथेटिक रंगों के प्रसंस्करण के लिए डिज़ाइन किए गए मौजूदा बुनियादी ढांचे के साथ इन पर आसानी से काम किया जा सकता है। शायद यही वजह है कि उन्हें अपना व्यवसाय बढ़ाने में ज्यादा दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा। सोधानी बायोटेक कच्चे माल से रंग निकालता है और इसे मुख्य उत्पाद के रूप में इस्तेमाल करता है। रंगों को निकालने का काम सॉल्वैंट्स के जरिए किया जाता है और उनका दावा है कि इस पूरे प्रोसेस के आखिर में उन्हें 90 फीसद सॉल्वैंट्स फिर से वापस मिल जाता है।
कंपनी भारत के विभिन्न हिस्सों से कच्चा माल मंगाती है। अनार और प्याज के छिलके महाराष्ट्र से लाए जाते हैं, तो वहीं बबूल की छाल मुख्य रूप से हरियाणा से मिलती है।
बिजनेस के विस्तार की क्षमता और आर्थिक फायदा देने वाले प्रगतिशील रोडमैप के बावजूद बाजार में प्राकृतिक रंगों की मांग सीमित है क्योंकि वैश्विक और स्थानीय फैशन खुदरा दिग्गज अभी भी सिंथेटिक रंगों को पसंद करते हैं।
सोधानी ने कहा, “दुनिया का जाना-माना फैशन ब्रांड अगर एक साल में प्राकृतिक डाई से 80,000 से एक लाख तक के कपड़े तैयार करता है, तो एक दिन में लगभग इतनी ही मात्रा में सिंथेटिक रंगों से बने कपड़े तैयार कर बाजार में पहुंचा देता है। प्राकृतिक रंगों की मांग और आपूर्ति में बहुत बड़ा अंतर है।” उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया कि प्राकृतिक रंगों से बने एक उत्पाद की कीमत सिंथेटिक परिधान की तुलना में 9-10 गुना ज्यादा होती है।
महंगा कच्चा माल
एक मोलेक्युलर बायोलॉजिस्ट और बायोडाई इंडिया के सह-संस्थापक और निदेशक बोस्को एम.ए. हेनरिक्स 15 सालों से ज्यादा समय से परिधानों में प्राकृतिक रंगों के इस्तेमाल को बढ़ावा दे रहे हैं। सावंतवाडी, सिंधुदुर्ग, महाराष्ट्र में स्थित अपनी प्राकृतिक रंगाई यूनिट में हेनरिक्स पक्के रंग और ज्यादा शेड पाने पर काम कर रहे है।
हेनरिक्स ने चुटकी लेते हुए कहा, ”हमने लंबे समय से प्राकृतिक रंगों के साथ काम कर रहे लोगों को जगाने का काम किया है। भारत में हम प्राकृतिक रूप से रंगे कपड़ों को रंग छोड़ते हुए देखते आए हैं। यानी ये रंग पक्के नहीं होते हैं और इनके शेड भी ज्यादा नहीं होते हैं। लेकिन जब हमने चमकीले रंग और रंग न छोड़ने वाले उत्पाद बनाना शुरू किया, तो लोगों को हैरानी होने लगी कि क्या हम वास्तव में प्राकृतिक चीजों का इस्तेमाल कर रहे हैं!”
प्राकृतिक रंगों से रंगे उत्पादों को मुख्यधारा में लाने के लिए हेनरिक्स ने अपने साथी स्वर्गीय एन शंकर के साथ 2008 में शुरुआत करते हुए इस क्षेत्र में काफी शोध और विकास किया है। यह एक ऐसा लक्ष्य है जिस तक पहुंचना अभी भी मुश्किल लगता है क्योंकि जिन फूलों या पौधों से प्राकृतिक रंगों निकाले जाते हैं उनकी खेती की तरफ लोगों का झुकाव कम ही है। यह स्थिति कच्चे माल को और महंगा बना रही है।
उदाहरण के तौर पर इंडियन मैडर (रूबिया कॉर्डिफोलिया, जिसे स्थानीय भाषा में मंजिष्ठा कहते है) बेहद ऊंचाई पर मौजूद जंगलों में पाया जाता है। दरअसल यह एक बेल है जो तीन साल तक बढ़ने के बाद लाल रंग का उत्पादन करती है। हेनरिक्स ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “हमने नागालैंड में मंजिष्ठा और नागा मैडर (आर. सिक्किमेंस) को उगाने के लिए खासा प्रचार किया है, लेकिन कोई भी किसान इसे अपनाने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि पहाड़ी इलाकों में उनकी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए कोई मॉडल नहीं हैं। एक परपोषी पौधे पर बेल उगाने में तीन साल लगते हैं और फिर जानवरों से जुड़ी तमाम तरह की समस्याएं भी होती हैं। इसी तरह लाख (लाल रंग बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले लाख कीड़ों का राल स्राव) भी ग्लोबल वार्मिंग के प्रति संवेदनशील है।”
अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में नील की खेती के लिए उपयुक्त आर्थिक मॉडल का न होना भी प्राकृतिक रूप से रंगे कपड़ों की लागत को काफी प्रभावित करता है। हालांकि नील की ज्यादातर खेती दक्षिण भारत में की जाती है, जहां किसानों को फसल उगाने के लिए मुआवजा तक दिया जाता है, लेकिन उत्तराखंड में एक अलग कृषि मॉडल की वजह से नील की लागत बढ़ जाती है। मौजूदा बाजार दरों के मुताबिक, दक्षिण भारत से खरीदी गई ए-ग्रेड नील की कीमत रु. 4,500/किग्रा है जबकि उत्तराखंड में नील की कीमत 15,000/किग्रा है।
हेनरिक्स कहते हैं, “दक्षिण भारत में वे नील के पौधे का इस्तेमाल हरी खाद के तौर पर करते हैं। किसान नील के पौधे उगाने से बहुत खुश हैं, क्योंकि इससे उन्हें कमाई होती है। इंडिगो मैन्युफैक्चरर पौधे की कटाई करता है और फिर हरी खाद को किसानों को लौटा देता है।”
प्राकृतिक रूप से रंगे उत्पादों की लागत कच्चे माल में रंगों के पक्के या कच्चे होने और उसे निकालने में आने वाले खर्च पर निर्भर करती है। उस क्षेत्र की जलवायु परिस्थितियां और मिट्टी की गुणवत्ता पौधे की उपज और उसमें डाई की मात्रा को प्रभावित करती है। प्राकृतिक इंडिगो टिकिया में 30-40% इंडिगोटिन डाई और सूखे मैडर के तने में 5-10% पुरपुरिन डाई होती है।
हेनरिक्स बताते हैं, “अगर मैं 350-600 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से सूखे मजीठ के तने खरीद रहा हूं तो इसमें सिर्फ 5-10% डाई होती है। ऐसे में एक किलो शुद्ध डाई के लिए प्रभावी लागत 3500-12,000 रुपये बैठती है। इसकी जगह इस्तेमाल में लाए जा रहे सिंथेटिक एलिज़ारिन की तुलना में यह एक बड़ा मूल्य अंतर है। तो कुल मिलाकर कच्चे माल की उपलब्धता और कीमत प्राकृतिक रंगों से रंगे उत्पाद की बिक्री मूल्य को बढ़ा देती है।”
उनके मुताबिक, बुनियादी ढांचा, इन्वेंट्री लागत, श्रम लागत और ऊर्जा खपत अन्य कारक हैं जो प्राकृतिक रूप से रंगे उत्पादों की लागत को बढ़ा रहे हैं। वह आगे कहते हैं, “इसलिए, जब तक लाल और नीले रंग के पौधों की खेती के लिए उचित कृषि तकनीक विकसित नहीं हो जाती, तब तक लागत कम करने का कोई रास्ता नहीं है। इसके बिना प्राकृतिक लाल रंग देने वाले पौधों गायब हो जांएगे।”
मानसिकता में बदलाव और उद्यमियों को सशक्त बनाना
दुनिया भर में अप्रत्याशित रूप से बदलता मौसम और विनाशकारी घटनाओं के साथ जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे ने कई लोगों को कंज्यूमर पैटर्न में सुधार की दिशा में काम करने के लिए प्रेरित किया है। प्राकृतिक रंगाई के काम में लगे इच्छुक उद्यमियों को अवसर दिख रहा है। लेकिन हेनरिक्स कहते हैं कि बुनियादी ढांचा तैयार करने के लिए भारी निवेश करना पड़ेगा।
अहमदाबाद स्थित ‘कलर आश्रम’ फाउंडेशन ने इसके लिए कुछ समाधान तैयार किए हैं। 2019 में नम्रता भटोरिया और अरुण बैद ने इस फाउंडेशन की स्थापना की थी। उनका लक्ष्य प्राकृतिक रंगाई का विस्तार करने के लिए एक बड़ा समुदाय बनाना है। दोनों ‘ट्रू टोन इंक’ के सह-संस्थापक भी हैं। यह हर्बल रंगों पर नए-नए प्रयोग करने वाली कंपनी है। अरुण बैद के पास रासायनिक कचरे के रिसायकलिंग का 15 सालों से ज्यादा का अनुभव है और फाउंडेशन की हर्बल-रंगाई तकनीक का पेटेंट उनके नाम पर है। वह अन्य निर्माताओं के साथ तकनीक साझा करने के भी इच्छुक हैं।
भूटोरिया बताती हैं, “कलरआश्रम में हम अरुण के सभी आविष्कारों को साझा करके उद्यमियों को सशक्त बनाते हैं। इन आविष्कारों का इस्तेमाल छोटे पैमाने पर किया जा सकता है। हमारे व्यापक प्रशिक्षण और परामर्श कार्यक्रम एक व्यक्ति को पांच लाख रुपये के साथ प्राकृतिक डाई इकाई शुरू करने में मदद करते हैं।”
वह आगे कहती हैं, “अपनी विशेषज्ञता साझा करके और उद्यमियों का मार्गदर्शन करके हम उनके सर्कल के भीतर एक छोटी मांग पैदा करने की उम्मीद कर रहे हैं। भले ही हर्बल रंगों से उत्पाद बनाने वाले छोटे ब्रांड हों, लेकिन जनता उन्हें लेकर जगरूक तो हो रही है। हमें यह समझना होगा कि बड़े बदलावों के लिए बहुत समय की जरूरत होती है, लेकिन तब तक छोटे-छोटे कदम तो उठाए जा सकते हैं।” उन्होंने ‘हर्बल डाई’ के बारे में भी बताया। उन्होंने कहा, बैद ने ‘हर्बल डाई’ शब्द का इस्तेमाल किया, क्योंकि वह यह बताना चाहते थे कि उनके डाई किसी भी तरह की मिलावट का इस्तेमाल नहीं करते हैं।
कलर आश्रम फिलहाल मैसूर में स्थानांतरित होने की तैयारी में है। कंपनी प्राकृतिक रंगों में व्यावहारिक प्रशिक्षण देने के लिए वहां नेचर कलर अकादमी खोल रही हैं। भुटोरिया इस जगह को समान विचारधारा वाले संस्थानों और फैशन डिजाइनरों के साथ विचारों और सहयोगी साझेदारी की प्रयोगशाला के रूप में देखती हैं। उन्हें उम्मीद है कि वे न सिर्फ अपने छात्रों को तकनीकी स्किल मुहैया कराएंगे, बल्कि एक बड़े वर्ग को प्राकृतिक रंगों की अस्थायित्व के बारे में भी शिक्षित करेंगे।
वह कहती हैं, “प्रकृति में कुछ भी हमेशा के लिए नहीं रहता है। हर चीज़ को पुराना होना, मुरझाना और खत्म होना होता है। हमें इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि प्राकृतिक रूप से रंगे कपड़े समय के साथ फीके पड़ जाएंगे। लेकिन विज्ञान और तकनीक से प्रक्रियाओं को बेहतर बनाया जा सकता है। इसलिए हमारा लक्ष्य प्राकृतिक रंगों के साथ काम करने वाले डिजाइनरों और कंपनियों के साथ काम करना है।”
वह बताती हैं, “इसका मतलब ये भी है कि अगर आप प्राकृतिक फैशन को बढ़ावा दे रहे हैं, तो आपको लोगों को उत्पाद की अस्थायी प्रकृति को स्वीकार करने के लिए भी समझाना होगा। यानी उन्हे बड़े ही तरीके से यह बताना होगा कि ये रंग स्थाई नहीं हैं। ग्राहकों को शिक्षित करने का दारोमदार डिजाइनरों पर है, जिन्हें प्राकृतिक रंगों को स्वीकार करने के लिए एक नई भाषा गढ़नी होगी।
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बैनर तस्वीर: विभिन्न प्राकृतिक रंगों में रंगी टी-शर्ट। तस्वीर- बायोडाई इंडिया