- छत्तीसगढ़ में जंगलों को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे पर्यावरण कार्यकर्ता आलोक शुक्ला को प्रतिष्ठित गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार से नवाजा गया है। उन्हें हसदेव अरण्य को खनन परियोजनाओं से दूर रखने के लिए समुदाय आधारित अभियान चलाने के मक़सद से यह सम्मान दिया गया है।
- गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार हर साल दुनिया के छह महाद्वीपीय क्षेत्रों में जमीनी स्तर के “पर्यावरण नायकों” को मान्यता देता है।
- शुक्ला ने मोंगाबे-इंडिया से बात की और इस पुरस्कार को पाने का मतलब बताया। उन्होंने कहा कि जन आंदोलनों में राजनीतिक दलों और अदालतों की भूमिका और वन प्रशासन के मामलों में ग्राम सभाओं की शक्ति को पहचानने को अहमियत देना है।
छत्तीसगढ़ में पर्यावरण को बचाने के लिए काम करने वाले जमीनी कार्यकर्ताओं के लिए 29 अप्रैल का दिन खास रहा। इस दिन राज्य के पर्यावरण कार्यकर्ता आलोक शुक्ला को संकटग्रस्त जंगल हसदेव अरण्य के मुद्दे को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिष्ठित गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मध्य भारत का यह राज्य जैव विविधता और कोयला भंडार दोनों के लिए जाना जाता है।
गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार का मुख्यालय अमेरिका में है। हर साल यह पुरस्कार दुनिया के छह महाद्वीपीय क्षेत्रों से जमीनी स्तर के “पर्यावरण नायकों” को मान्यता देता है। 1990 के बाद से, इस पुरस्कार के जरिए पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली हस्तियों को “अक्सर बड़े निजी जोखिम पर, प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और संवर्धन के लिए लगातार और जरूरी कोशिशों” के लिए सम्मानित किया गया है। यह खास तौर पर नेतृत्व करने वाले उन लोगों पर ध्यान देता है जो सामुदायिक भागीदारी के जरिए बदलाव लाते हैं। इस बार 43 साल के शुक्ला को एशिया से यह सम्मान मिला है।
पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में आलोक शुक्ला का सफर साल 2005 में शुरू हुआ था। इस साल वह विश्वविद्यालय से स्नातक होकर निकले थे। तब उन्होंने रायपुर और रायगढ़ शहरों में बुनियादी ढांचे के विकास से जुड़ी गतिविधियों से औद्योगिक प्रदूषण के असर को देखा। अनुभवी कार्यकर्ता मेधा पाटकर और पूर्व नौकरशाह ब्रह्म देव शर्मा से प्रेरित होकर, वह सक्रियता के शुरुआती दिनों में छत्तीसगढ़ में स्पंज आयरन उद्योगों का विरोध करने वाले आंदोलनों में शामिल हो गए। साल 2011 आते-आते उन्होंने हसदेव में रहने का फैसला लिया। इस दौरान वे पूरे राज्य में जन आंदोलनों के लिए सक्रिय छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन (सीबीए) को हसदेव लेकर आए और जंगल में कोयला खदानों के आवंटन के खिलाफ संघर्ष करने का फैसला किया।
हसदेव में कोयला खनन के खिलाफ संघर्ष दशकों पुराना है। यहां सरकार की रिसर्च एजेंसियों के इस सुझाव के बावजूद कोयला खदानें बांटी जाती रही कि हसदेव में और ज्यादा खदानों की मंजूरी नहीं दी जाए।
साल 2022 तक छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन की कोशिशों से राज्य सरकार ने हसदेव में 21 नियोजित कोयला खदानों को रद्द करने का प्रस्ताव पारित किया। इस सफलता से चार लाख पैंतालीस हजार ( 4,45,000) एकड़ में जैव विविधता से समृद्ध जंगलों को बचाया जा सका। पिछले साल कोयला मंत्रालय ने कहा था कि वह पहले की कांग्रेस सरकार की सिफारिशों के आधार पर खनन के लिए 40 कोयला ब्लॉकों का आवंटन रद्द कर देगा।
शुक्ला ने मोंगाबे-इंडिया से बात की और बताया कि गोल्डमैन पुरस्कार से नवाजे जाने का क्या मतलब है। जन आंदोलनों में राजनीतिक दलों और अदालतों की भूमिका क्या है। साथ ही, वन प्रशासन मामलों में ग्राम सभाओं (ग्राम परिषदों) की शक्ति को पहचानने का महत्व क्या है। इस बातचीत के संपादित अंश नीचे दिए हैं:
मोंगाबे: गोल्डमैन पुरस्कार के साथ ही हसदेव आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली है। आप आगे इस प्लेटफॉर्म को किस तरह के कामों में लगाएंगे और आप क्या संदेश देना चाहते हैं?
आलोक शुक्ला: यह पुरस्कार किसी व्यक्ति का सम्मान नहीं है। यह हसदेव के आदिवासियों का सम्मान है जो अपने जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए पिछले 12 सालों से संघर्ष कर रहे हैं। यह हर उस नागरिक का सम्मान है जिसने हसदेव के लिए आवाज उठाई है। फिर चाहे वह सोशल मीडिया के जरिए हो या किसी शहर से। यहां तक पहुंचना सामूहिक प्रयास रहा है।
हसदेव के लिए, अगला कदम यह देखना है कि आगे हम उन जंगलों को किस तरह संरक्षित कर सकते हैं जिन्हें खत्म होने से बचाया गया है। साथ ही, पर्यावरण की नजर से कमजोर इलाकों को उजड़ने से किस तरह बचाया जाए। जलवायु परिवर्तन ऐसा संकट है जिसका सामना पूरी दुनिया कर रही है। पूरी दुनिया में पर्यावरण को बचाने की जरूरत है। यह ऐसा प्रयास है जिसे गांवों, शहरों और देशों की सीमाओं से परे ले जाना होगा।
हसदेव ने इन मुद्दों को लोकतांत्रिक तरीके से रास्ता दिखाया है। वह भी ईमानदारी के साथ और भारतीय संविधान में दिए गए अधिकारों के प्रति पूरे भरोसे के साथ। हसदेव के जंगलों या इसके जैसे जंगलों के बिना, जलवायु परिवर्तन से निपटना और भी बड़ी चुनौती बन जाएगी। मैं हसदेव की सुरक्षा के लिए ज्यादा समर्थन की अपील करने के लिए इस मंच का इस्तेमाल करना चाहता हूं। हालांकि, हमारी कुछ मांगों पर ध्यान दिया गया है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है।
मोंगाबे: कोयला खनन के खिलाफ आवाज उठाने वाले कार्यकर्ताओं और संगठनों पर सरकार कड़ी निगरानी रखती है। ऐसे में इस तरह के आंदोलन को संगठित करने और बनाए रखने में आने वाली चुनौतियां क्या हैं?
आलोक शुक्ला: यह लोगों को संगठित करने का सवाल नहीं है। अगर आज आप किसी आदिवासी गांव में जाएं और वहां रहने वालों से पूछें कि क्या वे अपनी जमीन छोड़ देंगे, तो उनका जवाब नहीं में होगा। यह वह जंगल है जिसमें वे सदियों से रहते आए हैं और उन्होंने इसे बचाकर रखा है। अगर कोई कंपनी उनसे कहती है कि वे चले जाएं, क्योंकि उनके घरों के नीचे कोयला है, तो कोई भी इससे सहमत नहीं होगा। सवाल यह है कि आप इस फैसले को किस तरह लागू करते हैं और अपने अधिकार का इस्तेमाल किस तरह करते हैं?
हसदेव के आदिवासियों के पास दो विकल्प हैं: या तो वे अपनी जमीन छोड़ दें या यहीं रहकर संघर्ष करें। उनकी आजीविका, उनकी संस्कृति और पर्यावरण के हिसाब से अपने जीवनयापन के लिए संघर्ष करें। उन्होंने संघर्ष करने का फैसला किया है और मैं उनके साथ एकजुटता से खड़ा हूं। हसदेव की ग्राम सभाओं ने कहा है कि वे इस क्षेत्र में खनन के लिए सहमत नहीं हैं। वे संविधान का पालन करते हुए, लोकतांत्रिक तरीके से सामूहिक रूप से इस अधिकार का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन कॉरपोरेट लालच और लूट के खिलाफ खड़े होने का मतलब है कि आप पर हमला हो सकता है।
हमने धमकियों और गिरफ्तारी का सामना किया है। लेकिन, इन दिनों सोशल मीडिया के युग में हमें 24 घंटे बदनाम भी किया जा रहा है। जैसे, यह दावा करना कि यह आंदोलन विदेशों से मिलने वाली आर्थिक मदद से चल रहा है और दूसरे तरह के आरोप लगाना बहुत आसान है।
मोंगाबे: खनन के क्षेत्र में हालिया सुधारों ने हसदेव में खनन पर किस तरह असर डाला है?
आलोक शुक्ला: साल 1990 से 2010 तक बहुत प्रगतिशील कानून बनाए गए। जैसे पंचायत प्रावधान (अधिसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) कानून (पेसा), वन अधिकार कानून (एफआरए) और भूमि अधिग्रहण कानून। इनमें समुदाय से सहमति लेने का नियम बनाया गया। किसी भी बदलाव से पहले इसे जरूरी किया गया। लेकिन इन कानूनों को बड़े पैमाने पर कमजोर करने की कोशिश की गई है।
हसदेव में कोयला ब्लॉकों का आवंटन 2014 में शुरू हुआ। 20 ग्राम सभाओं ने कहा कि वे आवंटित किए जा रहे ब्लॉकों से सहमत नहीं हैं। हसदेव संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आता है और यहां पेसा ग्राम सभाओं के तहत स्वशासन की अनुमति है। लेकिन, इस प्रावधान को कमजोर किया जा रहा है। कोयला बियरिंग कानून का इस्तेमाल खनन क्षेत्रों में यह कहने के लिए किया गया है कि पेसा के तहत प्रावधान लागू नहीं हैं। लेकिन, संवैधानिक रूप से गारंटीकृत अधिकारों को छीना नहीं जा सकता है और इन्हीं आधारों पर साल 2012 में हसदेव आंदोलन शुरू हुआ था। इस संघर्ष के चलते हसदेव के कुछ हिस्सों को बचाया गया है और इन्हीं प्रावधानों को राज्य कमजोर करने की कोशिश कर रहा है।
हसदेव में संघर्ष एक साथ दो चीजों को लेकर है। एक तो संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर अपने प्राकृतिक संसाधनों को बचाए रखना और इन कानूनों को खुद से संरक्षित करने की कोशिश करना, जिन्हें व्यवस्थित तरीके से कमजोर किया जा रहा है।
मोंगाबे: कांग्रेस (पार्टी) आज हसदेव आंदोलन के प्रति सहानुभूति रखती दिख रही है। लेकिन, कांग्रेस शासन के तहत ही क्षेत्र में सबसे पहले खनन को मंजूरी दी गई थी। हाल ही में हसदेव में पेड़ों की कटाई रोकने की मांग को लेकर 30 विधायकों को अस्थायी रूप से निलंबित कर दिया गया था और राहुल गांधी ने भी आंदोलन के समर्थन में बात की है। क्या राजनीतिक दल इस तरह के जन आंदोलनों के मददगार हो सकते हैं?
आलोक शुक्ला: आज भारत की राजनीतिक व्यवस्था बदल गई है। राजनीतिक दलों के पास कॉरपोरेट सेक्टर के समर्थन के लिए मजबूत नीति है। हालांकि, इन दलों के भीतर भी संवैधानिक नेता और राजनेता हैं। आख़िरकार, राजनेता ऊपर से नहीं बल्कि जमीनी स्तर से आते हैं। राहुल गांधी ने शुरू से ही आंदोलन को लेकर अपना समर्थन जताया है। जब उनकी सरकार सत्ता में थी तब भी उन्होंने कहा था कि हसदेव में खनन नहीं होना चाहिए।
कांग्रेस सरकार में ही साल 2022 में हसदेव में कोयला ब्लॉकों का आवंटन रद्द करने का प्रस्ताव पारित किया गया। लेमरू हाथी गलियारे में 40 कोयला ब्लॉकों को खनन से बाहर रखने की अधिसूचना जारी की गई। अगर तीन और कोयला ब्लॉक – परसा पूर्व, कांटा बासन और कांटा विस्तार ब्लॉक – को भी अधिसूचना में शामिल किया जाता, जैसा कि हम मांग करते रहे हैं, तो शायद यह हमारे लिए एक बड़ी जीत होती।
जन आंदोलन राजनीतिक दलों को जवाबदेह बनाते हैं और उन्हें स्टैंड लेने के लिए मजबूर करते हैं। आज चाहे कोई भी सत्ता में हो, कोई भी खुलेआम यह नहीं कहेगा कि हसदेव के जंगलों को खत्म कर देना चाहिए। यह जीवन और आजीविका का मुद्दा बन गया है और इन जंगलों की रक्षा के लिए संघर्ष करने वाले लोगों को चुनौती देना आसान नहीं है। लेमरू और अन्य क्षेत्रों में कोयला ब्लॉक आवंटन रद्द होना जीत है और इससे आंदोलन को मजबूती मिलेगी।
मोंगाबे: सुप्रीम कोर्ट के हाल के कई फैसलों ने जंगलों के संरक्षण और जलवायु परिवर्तन से बचाव के लिए समर्थन का संकेत दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा कि व्यक्तियों को जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से बचने का अधिकार है। साथ ही, केंद्र सरकार को वन (संरक्षण) कानून के तहत सुरक्षा पर विचार करते समय जंगलों की व्यापक परिभाषा का इस्तेमाल करने का निर्देश भी दिया। ऐसे फैसलों का जमीनी स्तर पर क्या असर होता है?
आलोक शुक्ला: इससे पक्के तौर पर फर्क पड़ता है। जब अदालत इस तरह का रुख अपनाती है, तो यह बाकी लोगों के नजीर बन जाता है। नियमगिरि में जब यह फैसला लिया गया कि ग्राम सभा की सहमति के बिना खनन नहीं हो सकता, तो यह देश के बाकी हिस्सों के लिए नजीर बन गया। पिछले अन्यायों को खत्म करने की व्यवस्था वाले एफआरए ने हसदेव सहित कई नागरिक आंदोलनों को मजबूत करने में मदद की है।
वन (संरक्षण) कानून में नए बदलावों ने जंगलों को कॉरपोरेट लूट के लिए खोल दिया है और वन भूमि को दूसरे कामों में लगाने से रोकने की ग्राम सभाओं की शक्ति को कमजोर कर दिया है। सरकार, जंगलों की परिभाषा को ही बदलने की कोशिश कर रही है, ताकि उन्हें कम सुरक्षा दी जा सके। जलवायु परिवर्तन ऐसा संकट है जो पूरी दुनिया को प्रभावित कर रहा है और ऐसे फैसले ऐतिहासिक हैं, क्योंकि वे स्वस्थ पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के असर से बचने के अधिकारों को जीवन के अधिकार के जैसे स्तर पर रखते हैं। यह इस मांग को संविधान द्वारा समर्थित कानूनी दर्जा देता है।
जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में जंगलों की अहमियत स्पष्ट होती जा रही है और इसमें हसदेव आंदोलन की भी भूमिका है। एक समय था जब प्राकृतिक संसाधनों पर संघर्ष को सिर्फ प्रशासन और समुदाय के बीच की लड़ाई माना जाता था। हसदेव आंदोलन ने यह कहकर इस सोच को कुछ हद तक तोड़ दिया है कि जंगल सभी का है और इसे संरक्षित करने का फायदा सभी को उठाना है। इस आंदोलन को पूरे देश से व्यापक समर्थन मिला है, क्योंकि इसने यह संदेश हर घर तक पहुंचाया है।
मुझे ऐसा लगता है कि हसदेव आंदोलन ने विकास के प्रति सरकार के दृष्टिकोण को भी चुनौती दी है। एक ओर सरकार जलवायु परिवर्तन के लिए साल 2030 तक 50% नवीन ऊर्जा क्षमता स्थापित करने की प्रतिबद्धता जता रही है। लेकिन, दूसरी ओर कोयला ब्लॉकों का आवंटन तेजी से किया जा रहा है। आखिरकार सरकार को जीवाश्म ईंधन कम करना होगा, इसलिए अगर कोयला उत्पादन कम करना है, तो हसदेव के अछूते जंगलों को क्यों खत्म किया जाए?
मोंगाबे: हसदेव में पर्यावरण से जुड़े मानदंडों को लागू करने में इतनी ढिलाई क्यों है?
आलोक शुक्ला: पर्यावरण से जुड़े मानदंडों को व्यवस्थित तरीके से कमजोर कर दिया गया है, ताकि ये संसाधन कॉरपोरेट और बिजनेस के लिए ज्यादा आसानी से उपलब्ध हो सकें। समस्या तब शुरू होती है जब पर्यावरण मंत्रालय (बुनियादी ढांचे) विकास के बारे में चिंता करना शुरू कर देता है। हालांकि, उसका काम पर्यावरण को बचाए रखना है।
साल 2010 में यह कहा गया था कि अपनी जैव विविधता के चलते हसदेव नो-गो जोन (यानी आवाजाही पर रोक) होगा। लेकिन, नीति के तौर पर इस पर कभी भी अमल नहीं किया गया। बाद में 2021 में भारतीय वन्यजीव संस्थान ने स्पष्ट रूप से कहा कि अगर खनन होता है, तो यह नदी प्रणाली को खत्म कर देगा और ऐसे मानव-हाथी संघर्ष को जन्म देगा जिससे बचना नामुमकिन होगा। फिर भी परियोजनाओं को मंजूरी दे दी गई।
जब कोयला मंत्रालय से ज्यादा पर्यावरण मंत्रालय को विकास परियोजनाओं और कोयला खनन की चिंता होने लगती है, तो फैसले लेने में कारपोरेट जगत का हित स्पष्ट हो जाता है। जब हम देखते हैं कि हसदेव में ऐसे बदलावों से असल में किन निगमों को फायदा होगा, तो यह और भी साफ तरीके से नजर आने लगता है।
मोंगाबे: चूंकि भारत में फिलहाल नई सरकार के लिए मतदान हो रहा है, हसदेव आंदोलन के भविष्य के साथ-साथ सामान्य रूप से पर्यावरण संरक्षण के बारे में आपकी क्या उम्मीदें हैं। खास तौर पर तब जब यह इस बात पर निर्भर करता है कि सत्ता में कौन आता है?
आलोक शुक्ला: सत्ता में कौन आएगा, इस पर टिप्पणी करना मुश्किल है। सरकारें आएंगी-जाएंगी, कानून बनाए भी जा सकते हैं और छीने भी जा सकते हैं। इन सबके बावजूद, आदिवासी समुदाय अपने जंगल आसानी से नहीं छोड़ेंगे। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे पर्यावरण को बचाए रखने वालों में से हैं। हम देखते हैं कि जहां वे रहते हैं वहां वन, जल और भूमि आपस में गुंथे हुए हैं। अगर इन अधिकारों को छीनने की कोशिशें जारी रहीं, तो इन्हें बचाए रखने का संघर्ष भी जारी रहेगा।
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बैनर तस्वीर: हसदेव समुदाय की महिलाओं के साथ गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार से नवाजे गए आलोक शुक्ला। तस्वीर गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार के जरिए।