- हर साल टूटे और पुराने सामानों का एक मेला लगता है। इस मेले का मकसद कचरे को रीसाइकिल और रीयूज करके सर्कुलर इकोनॉमी के सिद्धांतों को बढ़ावा देना है।
- सदियों पुरानी यह परंपरा हाल के दिनों में सरकार के हस्तक्षेप के साथ और अधिक व्यवस्थित हो गई है। सरकार ने विक्रेताओं के लिए एक निर्धारित स्थान पर स्टॉल लगाने की अनुमति दी है। इन स्टॉल को मामूली शुल्क देकर खरीदा जा सकता है।
- विक्रेताओं का कहना है कि मेले में कई बदलाव हुए हैं। दुर्लभ प्राचीन वस्तुओं को सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है, जिससे काफी फायदा मिल रहा है।
हर साल जनवरी में फसलों के त्योहार मकर संक्रांति को मनाने के साथ ही पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24 परगना का मथुरापुर गांव एक अनोखे मेले की तैयारियों में जुट जाता है। इसे स्थानीय भाषा में भांगा मेला कहते हैं। इसका मतलब है “ब्रोकन फेयर” यानी टूटे और पुराने समान का मेला। गांव के लोग पुरानी चीजों को बेचने के लिए एक जगह पर इकट्ठा होते हैं। इनमें बहुत सी चीजें तो ऐसी होती हैं, जो टूटी हुई है या फिर इस्तेमाल न होने की वजह से फेंक दी जाती हैं। सदियों पुरानी यह परंपरा रीयूज और रीसाइकिल के सिद्धांतों का प्रतीक है।
मेला कब से शुरू हुआ, इसे लेकर काफी समय से बहस चलती आई है। एक प्रचलित मिथक इसे मध्यकालीन हिंदू संत चैतन्य, भगवान कृष्ण के एक भक्त अनुयायी से जोड़ता है। किंवदंती के अनुसार, जब चैतन्य एक दिन मथुरापुर से गुजर रहे थे, तो उन्होंने गलती से अपने संगीत वाद्ययंत्र के खोल को तोड़ दिया था। इसके बाद से मेले में भांग या टूटी हुई वस्तुओं को बेचने की परंपरा शुरू हो गई।
ऐसा माना जाता है कि मेले की शुरुआत केवल कुछ मुट्ठी भर विक्रेताओं के साथ हुई थी, जो बंगाल की गलियों में लकड़ी से बनी चीजें और कपड़े बेचा करते थे। 60 साल पहले ज़लाल हलदर नामक एक स्थानीय डॉक्टर ने इन फेरीवालों को एक नई राह दिखाई। उन्होंने विक्रेताओं को एकजुट होने और एक ही जगह पर स्टॉल लगाने के लिए प्रोत्साहित किया। समय के साथ, भांगा मेला में लोगों की दिलचस्पी बढ़ती चली गई। इस मेले में टेलीविजन सेट, म्यूजिक सिस्टम और पुराने सिक्कों से लेकर प्राचीन कैमरे, तस्वीरें और किताबें जैसी बहुत सी चीजें मिल जाएंगी। मेला अब 4000 वर्ग फुट में फैले एक विशाल मैदान में लगता है, जिसे खासतौर पर इस उद्देश्य के लिए तैयार किया गया है। बेचे जाने वाले सामान की कीमत 30 से रुपये से लेकर 3000 या या उससे अधिक भी हो सकती है।
कचरे के उत्पादन के मामले में भारत दुनिया के शीर्ष 10 देशों में शामिल है। द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टीईआरआई) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में सालाना 62 मीट्रिक टन (मिलियन टन) से अधिक कचरा पैदा होता है। इस कुल कचरे में से केवल 43 मीट्रिक टन को ही इकट्ठा किया जाता है, जिसमें से 12 मीट्रिक टन को निपटान से पहले उपचारित किया जाता है। बाकि बचे 31 मीट्रिक टन को वेस्टयार्ड में फेंक दिया जाता है। भारत में, कचरा संग्रहण, परिवहन, उपचार और निपटान के लिए अपर्याप्त बुनियादी ढांचा पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य दोनों के लिए एक बड़ी चिंता का विषय बन चुका है। भारतीय केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) ने हाल ही में अनुमान लगाया है कि 2030 तक देश में वार्षिक कचरा उत्पादन 165 मीट्रिक टन तक बढ़ जाएगा।
सरकार कचरे को कम करने, रीयूज और रीसाइक्लिंग के सिद्धांतों के जरिए एक सर्कुलर इकोनॉमी को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कई तरह की नीतियां बनाती रही है। लेकिन भांगा मेला जैसे मेले सदियों से रीसाइकल वस्तुओं की क्षमता बेहतर तरीके से सामने लाते रहे हैं।
मेले में किसे नुकसान और किसे फायदा
पास के गांव संग्रामपुर के रहने वाले इस्माइल मोल्ला (72) बचपन से ही मेले में भाग लेते आ रहे हैं। पहले वह अपने पिता के साथ आते थे, जो खासतौर पर कोलकाता के घरों से इकट्ठा की गई टूटी लकड़ी की कुर्सियां, पुराने छत के पंखे, कांच की बोतलें और लोहे के टुकड़ों को बेचने के लिए स्टॉल लगाया करते थे। वह कहते हैं, “अब मैं पुराने फोन, रेडियो, मिक्सर, ग्राइंडर, पुरानी किताबें और जो कुछ भी शहरों से इकट्ठा करता हूं, उसे ही बेचता हूं।” मेले में तीसरी पीढ़ी के फेरीवाले के रूप में, मोल्ला ने अपने दादा और पिता के समय से यहां काफी बदलाव होते देखा है। उन्होंने नोट किया कि कई नए विक्रेताओं में वो बात नहीं है, जो पिछली पीढ़ियों के फेरीवालों की विशेषता थी। वह अफसोस जताते हुए कहते हैं, ”मेले का अब व्यवसायीकरण हो गया है और बहुत से लोग इससे उतना भावनात्मक जुड़ाव नहीं रखते हैं।”
मोहम्मद अली पुरानी सीडी और फोनोग्राफ रिकॉर्ड बेचने में माहिर हैं। वह मेले की खासियत बताते हुए कहते हैं कि यह एकमात्र ऐसा मेला है जो टूटी, फेंकी गई या पुरानी वस्तुओं का जश्न मनाता है। अली में कहा, “अगर ऐसे और मेले होते, तो हम उनमें भी भाग लेते।”
फेरीवालों के बीच कहीं न कहीं एक डर भी है। उनके मुताबिक मेले में कारोबार अब धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। कोविड-19 महामारी के बाद से तो ये आशंका ओर बढ़ गई है। पुरानी किताबों, खिलौनों और हारमोनिका और जलतरंग (एक ताल वाद्य) जैसे संगीत वाद्ययंत्रों से भरे अपने स्टॉल के पीछे बैठे मोहम्मद अली शेख (62) निराश नजर आ रहे हैं। वह कहते हैं कि स्टाल की वजह से प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। कीमतों को कम करना उनकी मजबूरी हो गई है। प्राचीन चीजों को बेचने वालों को अब ज्यादा फायदा हो रहा है क्योंकि इस समय बाजार में उनकी खासी मांग है। शेख याद करते हुए बताते हैं कि पहले वह पुराने म्यूजिक सिस्टम को 700 से 1000 रुपये के बीच में बेचते थे। लेकिन अब इसे महज 400 रुपये में बेचना पड़ रहा है। उनका दोस्त मोल्ला भी ऐसी ही परेशानियों से जूझ रहे हैं। पिछले साल पुराने मोबाइल फोन उन्होंने 300 रुपए में बेचे थे। मगर इस साल 100 रुपये से ज्यादा कीमत नहीं मिल रही है। शेख कारण बताते हुए कहते हैं, “हम अच्छे खरीदारों को आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं। हालांकि मेले में काफी लोग आते हैं, लेकिन उनमें से सभी गंभीर खरीदार नहीं होते हैं, जिसका असर हमारे मुनाफे पर भी पड़ता है। इसके अलावा, संपन्न ग्राहक प्राचीन वस्तुओं को पसंद करते हैं।”
एक समय था जब मेला विदेशियों को आकर्षित करता था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। विक्रेताओं के अनुसार, इन दिनों ज्यादातर खरीदार या तो स्थानीय ग्रामीण होते हैं या फिर प्राचीन वस्तुओं का शौक रखने वाले लोग।
प्राचीन वस्तुओं के प्रति खासतौर पर युवाओं का लगाव काफी ज्यादा है। कुछ फेरीवाले को इससे काफी फायदा हो रहा हैं और वे भांगा मेले में पर्याप्त मुनाफा कमा रहे हैं। बकर अली शेख (47) और आबिद हुसैन अली (25) दोनों अपने माल की बढ़ती लोकप्रियता और आयोजन में मिल रहे आकर्षक रिटर्न से काफी खुश हैं। आबिद ने कहा, “पिछले साल ही, मुझे 50,000 रुपये से ज्यादा का मुनाफा हुआ था। अभी दो दिन पहले, मुझसे कोलकाता के एक खरीदार ने 12,000 रुपये का सामान खरीदा था। आबिद प्राचीन घड़ियों, पीतल की वस्तुओं और चीनी मिट्टी की गुड़िया को बेचते है। इस सामान को वह मुख्य रूप से कोलकाता के विभिन्न स्थानों से इकट्ठा करते हैं।
विक्रेताओं के अनुसार, शहरी क्षेत्रों के युवाओं की इस मेले में दिलचस्पी बढ़ी है। कोलकाता में प्राचीन वस्तुओं के क्यूरेटर सौविक मुखर्जी 2005 से मेले में भाग ले रहे हैं। अपने संग्रह को बढ़ाने के लिए वह हर साल यहां आते हैं। पिछले कुछ सालों में उन्हें मेले में कुछ अमूल्य खजाने मिले हैं और वे इसे संग्रहकर्ताओं के लिए स्वर्ग मानते हैं।
कार्निवल जैसा माहौल
हर गुजरते साल के साथ स्टॉल की संख्या बढ़ती जा रही है। इसलिए राज्य सरकार ने इस प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने के लिए कदम आगे बढ़ाया है, ताकि हर विक्रेता को मेले में भाग लेने का अवसर मिल सके। दक्षिण बिष्णुपुर ग्राम पंचायत और मंदिर बाजार पंचायत समिति ने संयुक्त रूप से यह निर्णय लिया कि विक्रेताओं को अब एक स्टॉल के लिए 500 रुपये देने पड़ेंगे। मेले की लोकप्रियता का फायदा उठाते हुए, खाने, पानी और चाय के स्टॉल जैसे कई अन्य दुकानें भी अब मैदान पर नजर आने लगीं हैं। मेले को एक जीवंत कार्निवल जैसे माहौल में बदल दिया गया है। इसकी बढ़ती लोकप्रियता और आगंतुकों की बड़ी आमद के कारण, इस साल इस आयोजन की निगरानी के लिए 500 नागरिक सुरक्षा गार्ड और पुलिस कर्मियों को तैनात किया गया था।
कोलकाता से पहली बार आए सॉफ्टवेयर इंजीनियर अतुल अपूर्व (32) सस्ती कीमतों पर उपलब्ध पुरानी और प्राचीन वस्तुओं की बेजोड़ विविधता पर हैरानी जताते हैं। वह कहते हैं, “मैंने 1952 की पुरानी फोटो निगेटिव का एक सेट मात्र 50 रुपये में खरीदा था और एक प्राचीन पॉकेट घड़ी महज 500 रुपये में। मैं अगले साल फिर से आउंगा।”
मेले से भावनात्मक रूप से जुड़े इस्माइल मोल्ला याद करते हुए बताते हैं कि पहले मेला कई मायनों में बेहतर हुआ करता था। उन्होंने कहा, “पुराने समय में स्टॉल कम होते थे और हम अपनी वस्तुओं को बेचने के लिए एक-दूसरे पर निर्भर थे। जब एक विक्रेता अपना माल बेच देता था तो दूसरा विक्रेता स्टॉल में अपना समान रख देता था, और वो भी बिना पैसे के लेनदेन के। मुझे उस प्यार की याद आती है। फिर भी यह मेला मेरे लिए सदैव एक परिवार की तरह रहेगा। मैं अपनी आखिरी सांस तक इसमें भाग लेता रहूंगा, भले ही इसके लिए मुझे नुकसान उठाना पड़े।”
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
बैनर तस्वीर: भांगा मेले में अपने स्टॉल पर इस्माइल मोल्ला। मोल्ला बचपन से ही अपने पिता के साथ मेले में जाते रहे हैं। मेले से उनका गहरा भावनात्मक संबंध है। तस्वीर- जॉयमाला बागची/मोंगाबे