- कॉप-29 का समापन जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए साल 2035 तक 300 अरब डॉलर की वित्तीय मदद की प्रतिबद्धता के साथ हुआ। यह रकम विकासशील देशों की ओर से मांगे गए 1.3 ट्रिलियन डॉलर से काफी कम है।
- इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए महत्वाकांक्षी कार्रवाइयों और व्यापार के खिलाफ एकतरफा उपायों पर जोरदार बहस देखी गई। हालांकि, सभी पक्ष पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6 पर सहमत हुए, जिससे कार्बन मार्केट को प्रभावी रूप से चलाया जा सके।
- हालांकि, कॉप की प्रक्रिया की आलोचना इस आधार पर की गई कि यह सार्थक नतीजे नहीं दे पाया। बड़े नेताओं ने इस पर चिंता जताई और कुछ नेताओं ने तुरंत सुधार की मांग की।
अजरबैजान के बाकू में जलवायु वार्ता रविवार सुबह संपन्न हो गई, जिसमें कई देशों की आपत्तियों के बावजूद, विकासशील देशों को 2035 तक 300 अरब डॉलर की वित्तीय मदद देने का समझैता हुआ।
कॉप-29 को ‘फाइनेंस कॉप’ के नाम से भी जाना जा रहा है। यहां ऐसे समय में जलवायु वित्त पर समझौते को आखिरी रूप देने की उम्मीद थी, जब देश 2025 में पेश किए जाने वाले राष्ट्रीय स्तर पर तय योगदान (एनडीसी) के तीसरे दौर की तैयारी कर रहे हैं। हालांकि, महत्वाकांक्षी एनडीसी को आग बढ़ाने में मददगार जलवायु वित्त पर समझौता, तय समय से कई घंटे देरी से चली गहन वार्ता के बावजूद अपने मकसद में बहुत पीछे रह गया।
जलवायु वित्त पर नए सामूहिक तय किए गए लक्ष्य (एनसीक्यूजी) को आखिरी रूप देने के लिए जलवायु वित्त पर बातचीत तीन सालों से चल रही थी। इसमें विकासशील देशों के सबसे बड़े समूह जी-77 और चीन ने हर साल 1.3 ट्रिलियन डॉलर की मदद देने की मांग की थी। इसके लिए उत्सर्जन में कमी और जलवायु के हिसाब से ढलने (एडेप्टेशन) में मदद के लिए विकसित देशों से अनुदान या रियायती कर्ज के रूप में लगभग 600 अरब डॉलर शामिल हैं।
वैसे तो कॉप-29 समझौता 1.3 ट्रिलियन डॉलर के लक्ष्य को स्वीकार करता है। लेकिन, यह साल 2035 तक इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सिर्फ विकसित देशों के बजाय इसकी जिम्मेदारी सामूहिक वैश्विक कोशिशों पर डाल देता है। विकसित देशों ने सालाना महज 300 अरब डॉलर जुटाने पर सहमति जताई और वह भी 2035 तक। यह नई प्रतिबद्धता सार्वजनिक, निजी, द्विपक्षीय, बहुपक्षीय और वैकल्पिक स्रोतों के मिले-जुले रूप से पूरी होने की उम्मीद है, जैसा कि आखिरी समझौते में उल्लेख किया गया है।
इस फैसले की कइयों ने आलोचना की है, क्योंकि इसमें पर्याप्त फंड नहीं था और इसे आखिरी रूप देने का तरीका भी सही नहीं था। भारतीय वार्ताकार चांदनी रैना ने समझौते को अपनाए जाने के बाद आखिरी पूर्ण सत्र के दौरान अपनी निराशा जताई। उन्होंने कहा, “हम इसे अपनाए जाने (समझौता) का कोई भी फैसला लिए जाने से पहले बयान देना चाहते थे; हालांकि, यह सब पहले से तय स्क्रिप्ट के मुताबिक हुआ। हम इससे बेहद निराश हैं। जो अनुचित तरीका अपनाया गया, हम उसका पूरी तरह से विरोध करते हैं।” उनके बयान पर पूर्ण सत्र के हॉल में मौजूद प्रतिनिधियों ने जोरदार तालियां बजाईं।
रैना ने प्रस्तावित रकम की आलोचना करते हुए इसे “ऊंट के मुंह में जीरा” बताया और इस बात पर जोर दिया कि यह महत्वाकांक्षी एनडीसी में मदद करने और जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ढलने से जुड़ी जरूरतों को पूरा करने में अपर्याप्त है। उन्होंने कहा, “भारत लक्ष्य प्रस्ताव को इसके मौजूदा स्वरूप में स्वीकार नहीं करता है।”
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने भी इसी तरह की चिंता जताई। उन्होंने कहा, “मुझे उम्मीद थी कि हम जिस बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं, उसका सामना करने के लिए वित्त और जलवायु परिवर्तन से पार पाने के मामलों में ज्यादा महत्वाकांक्षी नतीजे मिलेंगे।”
कार्बन मार्केट, बॉर्डर एडजस्टमेंट और मिटिगेएशन
जलवायु वित्त के अलावा, कॉप-29 में कई मुद्दों पर जोरदार बहस हुई, जिनमें पेरिस समझौते का अनुच्छेद 6 भी शामिल है। यह अनुच्छेद द्विपक्षीय और संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की ओर से प्रबंधित ढांचों के जरिए कार्बन व्यापार को नियंत्रित करता है। साथ ही, जलवायु परिवर्तन से पार पाने (मिटिगेशन) से जुड़े कार्यक्रमों और ग्लोबल स्टॉकटेक (जीएसटी) जैसे महत्वाकांक्षी कार्यों और एकतरफा व्यापार तंत्रों पर केंद्रित है।
शनिवार देर रात, कॉप-29 में हिस्सा लेने वाले पक्षों ने पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6 के तहत कार्बन बाजार को चालू करने के लिए समझौता किया। यह समझौता साल 2015 में इसके शुरू होने के लगभग एक दशक बाद हुआ था। हालांकि, विशेषज्ञों ने इस समझौते की आलोचना भी की है। वैश्विक कार्बन मार्केट पर नीति विशेषज्ञ ईसा मुल्डर ने टिप्पणी की, “दुर्भाग्य से, अनुच्छेद 6 की खामियों को ठीक नहीं किया गया है। “उन्होंने नए ढांचे में जवाबदेही की कमी की ओर इशारा किया। अनुच्छेद 6 ने कॉप-29 के पहले दिन भी सुर्खियां बटोरीं, जब अनुच्छेद 6.4 के तहत संयुक्त राष्ट्र की अगुवाई वाली कार्बन ट्रेडिंग प्रणाली को नियंत्रित करने वाले दो नियमों को विवादास्पद रूप से मंजूरी दी गई थी और इसे बाकू में वार्ता के लिए अहम उपलब्धि के तौर पर पेश किया गया था।
कॉप-29 में जलवायु परिवर्तन से पार पाने से जुड़ी महत्वाकांक्षी उम्मीदों और एकतरफा व्यापार उपायों पर पुरजोर बहस हुई। विकासशील देश पार पाने (मिटिगेशन) से जुड़े काम के नाम पर “अनुचित” एकतरफा व्यापार उपायों – जैसे कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (सीबीएएम) को अपनाने के उभरते रुझानों पर चर्चा करना चाहते थे। यह उपाय यूरोपीय संघ के देशों में आयात पर कार्बन कर लगाता है। हाल के सालों में, कई देशों ने ऐसे उपायों को अपनाया है, जिससे विकासशील देशों ने कॉप-29 में इन पर चर्चा की मांग की।
छह नवंबर को बेसिक समूह (ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, चीन और भारत) का प्रतिनिधित्व करते हुए चीन ने कॉप एजेंडे में जलवायु परिवर्तन से संबंधित पाबंदी वाले एकतरफा उपायों को शामिल करने का प्रस्ताव पेश किया। यह प्रस्ताव तीन विवादास्पद मुद्दों में से एक बन गया, जिसने बाकू जलवायु वार्ता के शुरुआती दिन आठ घंटे के एजेंडे वाले विवाद को जन्म दिया। हालांकि, अध्यक्ष ने इसे एजेंडे से बाहर रखा, लेकिन इसने इस मुद्दे पर आगे विचार करने का भरोसा दिया। भारत ने भी वार्ता प्रक्रिया के दौरान एकतरफा व्यापार उपायों से संबंधित मुद्दों को बार-बार उठाया।
यह मुद्दा आखिरकार 24 नवंबर को ग्लोबल स्टॉकटेक (जीएसटी) पर संयुक्त अरब अमीरात वार्ता के आखिरी मसौदे में सामने आया, जिसमें कहा गया कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के नाम पर एकतरफा उपायों का नतीजा मनमाना या अन्यायपूर्ण भेदभाव नहीं होना चाहिए। जीएसटी दस्तावेज को अगले दौर की वार्ता के लिए टाल दिया गया है, एक वार्ताकार ने नाम न बताने की शर्त पर इसे अहम उपलब्धि बताया।
कॉप-29 में एक और विवादास्पद मुद्दा 2023 में दुबई में जीएसटी के नतीजे के बाद विकसित देशों द्वारा पार पाने के महत्वाकांक्षी उपायों पर जोर देना था, जिसमें जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल कम करना भी शामिल था। हालांकि, सऊदी अरब और उसके सहयोगी कॉप-29 में जीएसटी वार्ता पर प्रगति को रोकने में कामयाब रहे। समूह का असर जी-20 में भी दिखाई दिया जब बाकू जलवायु वार्ता के दौरान जी-20 की ओर से जारी विज्ञप्ति में “जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने” का उल्लेख नहीं किया गया।
हालांकि, जी-20 घोषणापत्र में दुबई समझौते का समर्थन किया गया और महत्वाकांक्षी जलवायु कार्रवाई पर प्रकाश डाला गया, इसने जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने का सीधा संदर्भ देने से परहेज किया। यह ऐसा फैसला था जिसने कॉप-29 में ध्यान खींचा। जीएसटी वार्ता अब 2025 में जर्मनी के बॉन और ब्राजील के बेलेम में जारी रहेगी।
आखिरकर, रविवार की सुबह सभी पक्ष या तो महत्वाकांक्षी जलवायु वित्त या मिटिगेशन से जुड़े कामों पर अपनी शिकायतें लेकर अपने-अपने देश रवाना हो गए।
संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन के कार्यकारी सचिव साइमन स्टील ने कार्यक्रम के समापन के अवसर पर कहा, “किसी भी देश को वह सब कुछ नहीं मिला जो वह चाहता था और हम बाकू से बहुत सारा काम करके विदा हो रहे हैं।”
भरोसे का संकट
जब चांदनी रैना ने आखिरी पूर्ण अधिवेशन के दौरान कॉप-29 में अपनाए जाने की प्रक्रिया की आलोचना की, इसे “पहले से तय” बताया और इसे कम होते भरोसे और सहयोग का संकेत बताया, तो ऐसी चिंताएं जताने वाली वह अकेली नहीं थीं। बाकू में दो हफ्ते तक चली वार्ता में कई बार वॉकआउट, टोका-टाकी और बातचीत की पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठाए गए।
शुक्रवार शाम को तय समय पर समापन के बावजूद, विकसित देशों ने आखिरी दिन तक जलवायु वित्त के आंकड़े रोके रखे, जिससे आखिरी क्षण में अराजकता की स्थिति पैदा हो गई। शुक्रवार को, उन्होंने सभी स्रोतों से 250 अरब डॉलर का प्रस्ताव रखा, जिसे विकासशील देशों ने तुरंत अस्वीकार कर दिया। कार्यक्रम स्थल पर मौजूद प्रतिनिधियों और नागरिक समाज के प्रतिनिधियों के बीच निराशा साफ देखी जा सकती थी। जलवायु न्याय की मांग करने वाले जलवायु कार्यकर्ताओं ने अमेरिका के जलवायु दूत जॉन पोडेस्टा को भी परेशान किया।
फिर शनिवार को विकसित देशों ने अपने प्रस्ताव को बदलकर इसे 300 अरब डॉलर कर दिया, लेकिन यह प्रस्ताव छोटे द्वीपीय देशों और कम विकसित देशों (एलडीसी) की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाया, जिसके कारण कुछ समय के लिए वॉकआउट हुआ। शनिवार देर रात को इसी आंकड़े के साथ आखिरी मसौदा पेश किया गया और कुछ ही घंटों के भीतर इसे अपना लिया गया, क्योंकि कॉप-29 के अध्यक्ष मुख्तार बाबायेव ने देशों द्वारा अपनी आपत्तियां सामने रखने से पहले ही इस समझौते को मंजूरी दे दी गई।
एशिया सोसाइटी पॉलिसी इंस्टीट्यूट में चाइना क्लाइमेट हब के निदेशक ली शुओ ने कहा, “मुश्किल वाले आखिरी घंटों के दौरान, जलवायु न्याय को बड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ा। इसका नतीजा आर्थिक मदद देने वाले देशों और दुनिया के सबसे कमज़ोर देशों के बीच दोषपूर्ण समझौता है। इस कॉप प्रक्रिया को बाकू से आगे देखने की ज़रूरत है।”
इससे पहले, कॉप की प्रक्रिया को व्यापक आलोचना का सामना करना पड़ा था। वैज्ञानिकों, एडवोकेसी और नीति बनाने वालों ने सभी पक्षों के नाम एक खुले पत्र पर हस्ताक्षर किए, जिसमें तुरंत सुधारों का आह्वान किया गया। इसमें संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून और यूएनएफसीसीसी के पूर्व कार्यकारी सचिव साइमन स्टील शामिल थे। इन्होंने दलील दी कि भविष्य में सुरक्षित जलवायु के लिए जरूरी बड़े बदलाव को हासिल के लिए मौजूदा ढांचा अपर्याप्त है।
यह पत्र कॉप-29 में जीवाश्म ईंधन की पैरवी करने वाले लोगों की बड़ी मौजूदगी की रिपोर्ट और अजरबैजान के राष्ट्रपति इल्हाम अलीयेव के विवादास्पद बयान के बाद लिखा गया था, जिसमें उन्होंने तेल और गैस को “भगवान का उपहार” बताया था।
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एनसीक्यूजी से संबंधित आखिरी फैसला जिस तरह से लिया गया, उससे ये चिंताएं और बढ़ गई हैं। एनसीक्यूजी को अपनाने को एक तरह से गलत बताते हुए, सबसे कम विकसित देशों (एलडीसी) ने कहा, “यह नतीजा हास्यास्पद है। यह संकट पैदा करने वालों के छद्म हितों की रक्षा के लिए दुनिया के सबसे गरीब और सबसे कमजोर लोगों की जरूरतों की बलि देता है।”
मार्शल द्वीप समूह के लिए जलवायु दूत टीना स्टेग ने कहा, “ऐसा लगता है कि देश यह भूल गए हैं कि हम सब यहां क्यों आए हैं – इसका उद्देश्य जीवन बचाना है। हमें इस अहम प्रक्रिया में फिर से भरोसा बहाल करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए।” यह द्वीप जलवायु के मामले में सबसे ज्यादा संवेदनशील देशों में से एक है।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 25 नवंबर, 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: कॉप-29 के अध्यक्ष की ओर से आयोजित बैठक के दौरान कमरे का दृश्य। बाकू जलवायु वार्ता का समापन 300 अरब डॉलर के जलवायु वित्त समझौते के साथ हुआ। IISD-ENB | माइक मुज़ुराकिस द्वारा ली गई तस्वीर।