- राष्ट्रीय समुद्र प्रौद्योगिकी संस्थान ने पिछले दिनों अंडमान सागर में गहरे समुद्र में परीक्षण कर खनन करने की संभावना तलाशी है।
- हालांकि, अंतर्राष्ट्रीय समुद्रतल प्राधिकरण ने अभी तक वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए खनन संहिता को आखिरी रूप नहीं दिया है, लेकिन अन्वेषण लाइसेंसधारक अंतर्राष्ट्रीय जल में खनन करने का परीक्षण कर रहे हैं।
- पर्यावरण पर दुष्प्रभाव का हवाला देते हुए गहरे समुद्र में खनन का विरोध भी बहुत तेज हो गया है।
इस साल अक्टूबर में राष्ट्रीय समुद्र प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईओटी) ने अंडमान सागर में समुद्र तल से पॉलीमेटेलिक नोड्यूल्स हासिल करने के लिए सफल अन्वेषणात्मक खनन परीक्षण किया। यह महासागर में संसाधनों की खोज और उनके दोहन के लिए टेक्नोलॉजी के विकास के लिए काम करने वाला संगठन है।
यह परीक्षण भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) के सर्वे और भारत के एक्सक्लूसिव आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) के भीतर पॉलीमेटेलिक नोड्यूल्स की पहचान के बाद किया गया। भारत सरकार के पास समुद्र में संसाधनों के लिए इस क्षेत्र का अन्वेषण करने का अधिकार है, जो लगभग 200 समुद्री मील तक फैला हुआ है। इस क्षेत्र में बंगाल की खाड़ी और अंडमान सागर में अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और लक्षद्वीप सागर में लक्षद्वीप द्वीप समूह शामिल हैं।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अधीन एनआईओटी के वैज्ञानिकों ने इस जगह के लिए खास तौर पर डिजाइन की गई वराह-3 नामक मशीन का इस्तेमाल किया। एनआईओटी में गहरे समुद्र में खनन करने वाली टीम के वरिष्ठ वैज्ञानिक ने बताया, “ऐसी मशीन विकसित की गई है जो अंडमान सागर की कठोर परिस्थितियों का सामना कर सकती है, क्योंकि यह चट्टानी क्षेत्र है, जो गहरे मैदान में पाई जाने वाली नरम मिट्टी से बहुत अलग है और पर्यावरण पर कम से कम दुष्प्रभाव के साथ खनन भी कर सकती है।” वराह-3 का वजन पानी के अंदर छह से सात टन है और इसमें समुद्र तल से दबे हुए नोड्यूल्स को बाहर निकालने के लिए कंघी की तरह का का कलेक्टर तंत्र है।
पॉलीमेटेलिक नोड्यूल क्या हैं?
समुद्र तल में लाखों सालों में आलू के आकार की कई टन चट्टानें बनी हैं, जिन्हें पॉलीमैटेलिक नोड्यूल्स कहा जाता है। इन नोड्यूल में कोबाल्ट, तांबा, निकल और मैंगनीज के अलावा दूसरी धातुएं होती हैं, जो इलेक्ट्रॉनिक्स और इलेक्ट्रिक कारों, सौर पैनलों, पवन टर्बाइन में बैटरी के उत्पादन के लिए अहम हैं। इनसे एनर्जी ट्रांजिशन में मदद मिलती है।
भारत का पिछला परीक्षण मध्य हिंद महासागर में वराह-1 नामक एक अन्य मॉडल के साथ लगभग 5,270 मीटर की गहराई पर किया गया था। वराह-3 को इसी तरह की विद्युत और हाइड्रोलिक प्रणालियों के साथ भारत के ईईजेड में 1,200 मीटर की गहराई पर संचालित किया गया था। इसने 60 मिमी से 120 मिमी तक के आकार के नोड्यूल एकत्र किए।
अगले चरण के रूप में, जीएसआई के सहयोग से खनन के योग्य क्षेत्रों के ज्यादा व्यापक सर्वेक्षण के बाद, एनआईओटी ने 2025 में अंडमान सागर में एक और परीक्षण की योजना बनाई है। गहरे समुद्र में खनन करने वाली टीम के अनुसार, इस कोशिश का उद्देश्य नोड्यूल को इकट्ठा करने और सतह पर लाने के लिए टेक्नोलॉजी और इंजीनियरिंग प्रणाली को साबित करना है।
गहरे समुद्र में खनन में भारत की प्रगति
समुद्र तल में खनन के लिए नियमों बनाने के लिए जिम्मेदार अंतर्राष्ट्रीय समुद्र तल प्राधिकरण (आईएसए) ने अभी तक खनन कोड को आखिरी रूप नहीं दिया है, लेकिन अन्वेषण लाइसेंस वाले देश या पक्ष अंतर्राष्ट्रीय जल में खनन परीक्षण कर रहे हैं। कुछ राष्ट्रीय सरकारें और खनन कंपनियां जल्द से जल्द खनन शुरू करने की योजना बना रही हैं, जिसे अगले कुछ सालों में अंजाम दिया जा सकता है।
आईएसए ने भारत को अन्वेषणात्मक खनन के लिए मध्य हिंद महासागर में 75,000 वर्ग किमी क्षेत्र (दिल्ली के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के आकार का लगभग 50 गुना) उपलब्ध कराया है। पॉलीमेटेलिक नोड्यूल्स का पता लगाने के लिए जीएसआई अंडमान सागर और अरब सागर में एक्सक्लूसिव आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) की भी खोज कर रहा है। उसका कहना है कि और इन चीजों का ज्यादा से ज्यादा पता लगाने के लिए सर्वेक्षण जारी रहेंगे। देश का ‘डीप ओशन मिशन‘ जिसकी अनुमानित लागत 4,077 करोड़ रुपये है, उसके मुख्य घटकों में से एक के रूप में गहरे समुद्र में खनन प्रौद्योगिकियों के विकास के बारे में भी बताता है। और जहां एनआईओटी खनन प्रणाली में सुधार कर रहा है, वहीं खनिज एवं सामग्री प्रौद्योगिकी संस्थान भी पॉलीमेटेलिक नोड्यूल्स से खनिज निकालने की तकनीक पर काम कर रहा है।
एनआईओटी के वैज्ञानिक ने बताया, “भारत की गहरे समुद्र में खनन करने की प्रौद्योगिकी को तेजी से विकसित करने के संबंध में, हमें अभी भी कई चीजें हासिल करनी होगी। हम अध्ययन कर रहे हैं, कॉन्फिगरेशन को ठीक कर रहे हैं और जैसे-जैसे हमें ज्यादा जानकारी मिलती है, हम डिजाइन में सुधार कर रहे हैं और इसे पर्यावरण के अनुकूल और कुशल बना रहे हैं। समुद्र में परीक्षण किए जा रहे हैं और योजना यह है कि नोड्यूल्स को इकट्ठा करने, आकार देने और उन्हें सतह तक लाने के लिए पूरी प्रणाली बनाई जाए। इसके बाद अलग किए गए पानी को वैश्विक मानकों का पालन करते हुए पर्यावरण पर कम से कम दुष्प्रभान के साथ जवाबदेही से निपटाया जाएगा।” टीम को अगले कुछ सालों में ये काम पूरा होने की उम्मीद है।
नए अध्ययन
दुनिया भर में गहरे समुद्र में खनन का विरोध फिलहाल सबसे ज्यादा तेज है। 900 से ज्यादा वैज्ञानिकों और नीति विशेषज्ञों ने समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता पर समुद्र तल के खनन से पड़ने वाले तनाव और दुष्प्रभाव का हवाला देते हुए गहरे समुद्र में खनन पर रोक लगाने की सिफारिश की है।
डीप सी कंजर्वेशन कोएलिशन की सोफिया त्सेनिकली कहती हैं, “महज दो साल के भीतर, 32 देशों ने एहतियाती रोक या स्थगन के लिए अपनी प्रतिबद्धता की घोषणा की है। राज्यों के अलावा, खरबों डॉलर का प्रतिनिधित्व करने वाली वित्तीय संस्थाएं, ऑटोमेकर, बैटरी कंपनियां, मछली पकड़ने वाले समूह, स्वदेशी समुदाय, मानवाधिकार और जलवायु कार्यकर्ता, युवा और सभी क्षेत्रों के अन्य लोग यह पहचान रहे हैं कि हमारी धरती को गहरे समुद्र में खनन की जरूरत नहीं है और वे इस पर रोक लगाने की मांग कर रहे हैं। संदेश बिल्कुल स्पष्ट है: मानवता को प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए।” यह समुद्र में जैव विविधता के संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए काम करने वाले संगठनों का गठबंधन है।
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इस साल की शुरुआत में नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित एक अध्ययन में दावा किया गया था कि प्रशांत महासागर के क्लेरियन क्लिपरटन जोन (सीसीजेड) में पॉलीमेटेलिक नोड्यूल युक्त गहरे समुद्र तल पर डार्क ऑक्सीजन का उत्पादन होता है। कनाडा स्थित द मेटल्स कंपनी द्वारा वित्तपोषित इस अध्ययन का उद्देश्य सीसीजेड में पॉलीमेटेलिक नोड्यूल का खनन करना है, जिसने वैज्ञानिक समुदाय के भीतर बहस शुरू कर दी। स्वतंत्र शोधकर्ताओं और खनन कंपनियों ने अपनी शंका जताई और इसकी आलोचना की। हालांकि, अध्ययन ने यह भी सामने रखा कि हम गहरे समुद्र के बारे में कितना कम जानते और समझते हैं।
इस साल की शुरुआत में प्रकाशित डीप-सी माइनिंग एंड द वॉटर कॉलम नामक पुस्तक पानी के कॉलम में खनन के कामों से निकलने वाले प्लम और कचरे को बहाने के दुष्प्रभाव के बारे में बताती है। इसे डीप-सी माइनिंग कंसल्टेंट और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशनोग्राफी के पूर्व मुख्य वैज्ञानिक राहुल शर्मा ने संपादित किया है। 2022 में प्रकाशित एक अन्य पुस्तक में, शर्मा ने गहरे समुद्र में खनन के संभावित पर्यावरण पर दुष्प्रभाव को रेखांकित किया है, जिसमें समुद्र के बीच में गहराई पर जूप्लैंकटन प्रजातियों की संभावित मौत शामिल है।
पिछले साल करेंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि सीसीजेड क्षेत्र में कुल 88%-92% प्रजातियां अज्ञात हैं। शोधकर्ताओं ने खनन के कारण बेन्थिक पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव और खनन से होने वाले ध्वनि प्रदूषण को सामने रखा है।
हर नए अध्ययन के साथ, वैज्ञानिक इन पारिस्थितिकी तंत्रों के भीतर पहले से अज्ञात प्रजातियों और जटिल अंतर्संबंधों को सामने लाते हैं। कुछ पारिस्थितिकीविदों को चिंता है कि इन क्षेत्रों में खनन से आवास खत्म हो सकते हैं, इससे पहले कि हम यह भी जान सकें कि वहां कौन-से जीव रहते है और इससे पहले कि हम पारिस्थितिकी तंत्र में उनकी भूमिका या मानवता के लिए उनके संभावित फायदों को समझ सकें। त्सेनिकली कहते हैं, “स्वतंत्र वैज्ञानिकों के बीच आम सहमति है कि अगर गहरे समुद्र में खनन जारी रहा, तो गहरे समुद्र की प्रजातियों और पारिस्थितिकी तंत्रों को ना बदले जा सकने वाले और स्थायी नुकसान से बचाने का कोई तरीका नहीं है।”
महासागर का दशक
जैसे-जैसे दुनिया संयुक्त राष्ट्र महासागर दशक (2021-2030) के आधे पड़ाव की ओर बढ़ रही है, गहरे समुद्र में खनन अन्वेषणों के पक्षधर “लोगों और हमारे महासागर को जोड़ने वाले टिकाऊ विकास के लिए परिवर्तनकारी महासागर विज्ञान समाधानों” के मिशन को याद करते हैं। महासागर दशक का उद्देश्य महासागरों और समुद्री संसाधनों का संरक्षण और इनका टिकाऊ इस्तेमाल करना है।
मोंगाबे इंडिया से बातचीत में शर्मा कहते हैं, “कोई भी वैज्ञानिक शोध लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। खनन के पर्यावरण पर दुष्प्रभावों के बारे में जागरूकता बढ़ रही है। इसलिए, प्रौद्योगिकीविद जागरूक हो रहे हैं और ऐसी प्रणालियां डिज़ाइन कर रहे हैं जो पर्यावरण पर दुष्प्रभाव को कम से कम करें। अभी हम प्री-पायलट खनन प्रणालियों का परीक्षण कर रहे हैं और पहले से ही समुद्र तल पर होने वाले संपर्क को कम करने पर जोर दिया जा रहा है। भारत सही दिशा में आगे बढ़ रहा है।”
पारिस्थितिकीविदों की मुख्य चिंताओं में से एक नोड्यूल को सतह पर लाने और छांटने के बाद प्रदूषित पानी को बहाना है। शर्मा कहते हैं, “यह बेहतर है कि प्रदूषित पानी को समुद्र तल के जितना संभव हो सके उतना करीब से डिस्चार्ज किया जाए। डिस्चार्ज ऑक्सीजन कम से कम क्षेत्र से नीचे किया जाना चाहिए, वह गहराई जहां ऑक्सीजन संतृप्ति सबसे कम है, ताकि कई स्तनधारियों और बेंथिक पारिस्थितिकी तंत्रों पर असर ना पड़े।”
हालांकि, वह कहते हैं कि खनन पर रोक का आह्वान “पीछे ले जाने वाला कदम” है । “दुनिया को खुद तय करना होगा कि उसे आने वाले समय के लिए संसाधनों की जरूरत है या नहीं। हालांकि, हमारे पास अभी तक यह डेटा नहीं है कि लंबी अवधि में समुद्री खनन का क्या असर होगा, हमारे पास बेन्थिक प्रभाव अध्ययन और अन्वेषण परीक्षणों के नतीजे हैं। मॉडलिंग सिस्टम का इस्तेमाल लंबी अवधि के वाणिज्यिक खनन के प्रभावों की गणना करने के लिए किया जा सकता है।”
इस बीच, डीएससीसी को हाल ही में आईएसए की बैठकों में अहम बदलाव दिखाई देता है। त्सेनिकली ने कहा, “आईएसए अब अलग-थलग होकर काम नहीं कर रहा है। राष्ट्राध्यक्ष, वैज्ञानिक, स्वदेशी नेता, युवा, अब आईएसएस में आ रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि प्राधिकरण खनन हितों पर एहतियात और विज्ञान को प्राथमिकता दे।” “डीएससीसी जनवरी 2025 में लेटिसिया कार्वाल्हो के अंतर्राष्ट्रीय समुद्र तल प्राधिकरण के नए महासचिव के रूप में कार्यभार संभालने का इंतजार कर रहा है और उम्मीद है कि पारदर्शिता, स्थिरता और विज्ञान मानव जाति की साझा विरासत के लिए जिम्मेदार संस्था के उनके शासन का केंद्र बन जाएगा।” वह नतीजा निकालती हैं।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 18 नवंबर, 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: अन्वेषणात्मक खनन परीक्षण के लिए अंडमान सागर में तैनात वराह-3। तस्वीर सौजन्य: राष्ट्रीय समुद्र प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईओटी)।