- सरकारी समर्थन के बावजूद, ज़्यादा मजदूरी और कम प्रभावशीलता के कारण किसान नैनो यूरिया के इस्तेमाल को लेकर संशय में हैं।
- भारत में कृषि क्षेत्र यूरिया पर बहुत अधिक निर्भर करता है, जिससे समय के साथ पर्यावरण और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव बढ़ते जा रहे हैं।
- आईफॉरेस्ट (iForest) की एक रिपोर्ट यूरिया की खपत को कम करने, नाइट्रोजन उपयोग दक्षता को बढ़ाने और पर्यावरणीय क्षति को कम करने के उद्देश्य से ग्रीन यूरिया मिशन की वकालत करती है।
जब 2021 में उर्वरक की कमी के चलते किसान हताश हो गए और सोशल मीडिया पर ट्रकों से उर्वरक की बोरियां लूटने के वीडियो वायरल होने लगे, तब मध्य प्रदेश के एक किसान ने एक अलग रास्ता अपनाया। मुकेश मीणा ने पारंपरिक उर्वरक की होड़ से हटकर नैनो यूरिया के साथ प्रयोग करने का फैसला किया। नैनो तकनीक पर आधारित यह तरल उर्वरक एक स्थानीय दुकान पर उपलब्ध था। उन्होंने अपने 65 एकड़ के गेहूं के खेत में से 12 एकड़ के लिए 48 बोतलें खरीदीं और नवंबर से मार्च तक पांच महीनों के रबी फसल चक्र में तीन बार अनुशंसित मात्रा में इसका छिड़काव किया। हालांकि, इस प्रयोग से कई अप्रत्याशित चुनौतियां उनके सामने आयीं, जिससे यह साफ हो गया कि नई कृषि तकनीकों को अपनाना कितना जटिल हो सकता है।
सामने आई नई चुनौतियों से हारकर मीणा ने इसका इस्तेमाल करना बंद कर दिया क्योंकि फसल पर यूरिया डालने के लिए मजदूरी बहुत ज्यादा आ रही थी। उन्होंने बताया, “एक एकड़ खेत में पारंपरिक यूरिया का छिड़काव करने के लिए सिर्फ एक मजदूर ही काफी होता है, लेकिन उतनी ही जगह पर नैनो यूरिया का स्प्रे करने के लिए कम से कम चार से पांच मजदूर चाहिए।” उन्होंने आगे कहा, “हर मजदूर 400 रुपए लेता है। कुल मिलाकर प्रति एकड़ नैनो यूरिया स्प्रे करने में तकरीबन 2,000 रुपए का खर्च आता है। जबकि नैनो यूरिया की कीमत और सब्सिडी वाले पारंपरिक यूरिया की कीमत लगभग बराबर है। नैनो यूरिया से जुड़ा श्रम खर्च ही एक बड़ी समस्या है।” अन्य किसान भी श्रम लागत और इसकी प्रभावशीलता पर सवाल उठा रहे हैं। भोपाल जिले के खजूरी कला के मिश्रीलाल राजपूत ने सब्जियों के अपने खेत में नैनो यूरिया का इस्तेमाल किया है। उनका दावा है कि पारंपरिक यूरिया एक बार लगाने पर ही काफी अच्छी फसल हो जाती है, लेकिन उतनी ही उपज पाने के लिए उन्हें नैनो यूरिया तीन बार लगाना पड़ता है, जिससे उर्वरक का खर्च तीन गुना हो जाता है।
रासायनिक वैज्ञानिक रमेश रलिया ने नैनो यूरिया का आविष्कार किया था और इसे भारतीय किसान उर्वरक सहकारी लिमिटेड (इफको) का समर्थन प्राप्त है। इफको एक बहुराज्यीय सहकारी समिति है जो उर्वरक बनाने और उसे बढ़ावा देने का काम करती है। यह तरल उर्वरक फसलों की नाइट्रोजन की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाया गया है। पारंपरिक दानेदार यूरिया को सीधे जमीन में डाला जाता है, जबकि नैनो यूरिया को सीधे फसल पर छिड़का जाता है। इसके बेहद छोटे कण पौधों की कोशिकाओं में घुसकर पोषक तत्व पहुंचाते हैं। यह यूरिया 500 मिलीलीटर की बोतलों में उपलब्ध है और सरकार का दावा है कि इससे फसल उत्पादकता 8% तक बढ़ सकती है।
इफको ने 2023 में नैनो यूरिया के लिए पेटेंट प्राप्त कर लिया है और सरकार भी इस उर्वरक के इस्तेमाल को बढ़ावा दे रही है। 2021 में, IFFCO ने सार्वजनिक क्षेत्र की उर्वरक कंपनियों के साथ एक समझौता ज्ञापन (MoU) पर हस्ताक्षर किए ताकि तकनीक का आदान-प्रदान हो सके और उत्पादन बढ़ाया जा सके। पिछले साल 30 जुलाई को, रसायन और उर्वरक राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने राज्यसभा को बताया कि देश में छह नैनो यूरिया संयंत्र स्थापित हो चुके हैं, जिनकी कुल वार्षिक क्षमता 26.62 करोड़ बोतलें हैं। सरकार अन्य सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों (पीएसयू) को भी अतिरिक्त नैनो यूरिया संयंत्र स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है।

हालांकि, मुकेश मीणा और मिश्रीलाल राजपूत जैसे किसानों के अनुभव नैनो यूरिया के बारे में सरकारी दावों से अलग हैं। वहीं रिसर्च पारंपरिक यूरिया की तुलना में नैनो यूरिया के उपयोग के मिले-जुले परिणामों की बात कहती है।
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू) के सीनियर सॉइल केमिस्ट राजीव सिक्का नैनो यूरिया पर कई अध्ययनों का हिस्सा रहे हैं। उन्होंने दावा किया कि चावल और गेहूं जैसी फसलों में अधिकतम तना-बढ़ने की अवस्था (बुआई के 30 दिन बाद) और फूल आने से पहले की अवस्था (बुआई के करीब 50 दिन बाद) में दो 500 मिलीलीटर की बोतलें स्प्रे करने से पारंपरिक दानेदार यूरिया की जरूरत 50% तक कम हो सकती है। आमतौर पर किसान प्रति एकड़ दो बोरी पारंपरिक यूरिया डालते हैं और इफको ने सुझाव दिया था कि नैनो यूरिया से यह आधी हो सकती है। हालांकि, सिक्का के तीन साल के रिसर्च (जिसमें चावल और गेहूं जैसी फसलें शामिल हैं) एक अलग ही तस्वीर सामने लाते हैं। नतीजे बताते हैं कि नैनो यूरिया इस्तेमाल करने पर चावल और गेहूं की पैदावार में लगातार करीब 20% की कमी आती है। इसके अलावा, इन फसलों में प्रोटीन की मात्रा 13-20% तक कम हो गई। सिक्का ने बताया कि पैदावार में कमी लगातार बढ़ती गई, क्योंकि मिट्टी में कम नाइट्रोजन डाली गई जिससे धीरे-धीरे नाइट्रोजन की कमी होती गई।
इसके अलावा, सिक्का नैनो यूरिया के वित्तीय पहलुओं पर भी प्रकाश डालते हैं। पैंतालीस किलो पारंपरिक यूरिया की एक बोरी की कीमत 265 रुपए है, जबकि नैनो यूरिया की 500 मिलीलीटर की बोतल 250 रुपए में मिलती है। नैनो यूरिया लगाने के लिए किसानों को हर बार दो बोतलें चाहिए, जिससे 500 रुपए का खर्च आता है और इसे स्प्रे करने के लिए कम से कम तीन मजदूरों की जरूरत होती है, जिससे 1500 रुपए का और खर्च होता है। वहीं पारंपरिक यूरिया लगाने के लिए मजदूरों पर ज्यादा खर्च नहीं करना पड़ता है।
सिक्का भारत में नैनो यूरिया के विकास की कहानी भी बताते हैं। साल 2019 में इफको (जिसने नैनो यूरिया विकसित किया था) ने रिसर्च परीक्षणों के फंड के लिए पीएयू से संपर्क किया था। लेकिन खराब परिणामों के बाद, इफको ने मूल नैनो यूरिया (जिसमें 4% नाइट्रोजन था) का उत्पादन बंद कर दिया। बाद में, उन्होंने “सुपर नैनो” पेश किया, जिसमें 8% अधिक नाइट्रोजन था, लेकिन परिणाम समान ही रहे और इसे भी बंद कर दिया गया। इस साल, इफको ने एक नया उत्पाद “नैनो प्लस” लॉन्च किया है, जिसमें 20% नाइट्रोजन होने का दावा किया गया है। नैनो प्लस यूरिया के ट्रायल अभी चल रहे हैं।
पर्यावरण और अर्थव्यवस्था पर असर
1960 के दशक में, भारत को खाद्यान्न की भारी कमी का सामना करना पड़ा और अपनी बढ़ती आबादी के लिए उसे अनाज के आयात पर निर्भर होना पड़ा। विलियम और पॉल पैडॉक की “फेमिन 1975 – अमेरिका डिसिज़न: हू विल सर्वाइव?” किताब में देशों को तीन श्रेणियों में बांटा गया था: ‘वॉकिंग वुंडेड’, ‘जिन्हें भोजन मिलना चाहिए’, और ‘जिन्हें बचाया नहीं जा सकता’। भारत को तीसरी श्रेणी में रखा गया था। हालांकि, कुछ ही सालों में, हरित क्रांति की शुरुआत के साथ, भारत की स्थिति में एक नाटकीय बदलाव आया। भूमि सुधारों के साथ-साथ, देश की कृषि उच्च उपज वाली फसल किस्मों पर निर्भर हो गई, जो रासायनिक उर्वरकों के प्रति ज्यादा प्रतिक्रियाशील थीं। हार्वर्ड केनेडी स्कूल में प्रकाशित सिड रविनटोला के पेपर ‘रीडिजाइनिंग इंडियाज यूरिया पॉलिसी’ में इस नीतिगत बदलाव का विस्तृत विवरण दिया गया है। किताब में यह भी बताया गया है कि भारत ने उर्वरकों के लिए सब्सिडी कैसे शुरू की। 1970 के दशक में वैश्विक तेल संकट के कारण खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ गई थीं और इस संकट के चलते भारत सरकार ने 1977 से उर्वरक निर्माताओं को सब्सिडी देना शुरू किया।
देश में यूरिया के बढ़ते इस्तेमाल में सब्सिडी की अहम भूमिका रही है। पिछले साल 30 जुलाई को जारी दिल्ली स्थित थिंक टैंक आईफॉरेस्ट (iforest) के एक अध्ययन में हाल के दशकों में यूरिया की खपत और सब्सिडी में वृद्धि पर प्रकाश डाला गया है। यूरिया की खपत 1980-81 में 6.2 मिलियन मीट्रिक टन से बढ़कर 2022-23 में 35.7 मिलियन मीट्रिक टन हो गई है, जो लगभग चार दशकों में पांच गुना से भी अधिक की वृद्धि है। इसके साथ ही यूरिया सब्सिडी भी लगभग 340 गुना बढ़ गई, जो पांच बिलियन रुपए से बढ़कर 1686.92 बिलियन रुपए हो गई है। साल 2023 में सरकार ने कहा कि 45 किलो यूरिया की बोरी का अधिकतम खुदरा मूल्य 242 रुपए है जबकि बैग की वास्तविक लागत लगभग 2200 रुपए आती है, जिसे सरकार किसानों के लिए सब्सिडी देती है और उर्वरक कंपनियों को भुगतान करती है।
रिपोर्ट इस बात पर जोर देती है कि यूरिया पर यह अत्यधिक निर्भरता असहनीय स्तर तक पहुंच गई है। नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटैशियम के लिए आदर्श पोषक तत्व अनुपात 4:2:1 है, लेकिन 2022-23 में वास्तविक अनुपात बिगड़ कर 11.8:4.6:1 हो गया था। इससे साफ पता चलता है कि नाइट्रोजन का इस्तेमाल फास्फोरस और पोटैशियम की तुलना में बहुत अधिक हो रहा है।

हालांकि, डाली गई सारी नाइट्रोजन फसलों तक नहीं पहुंचती है। खेतों में डाले गए यूरिया का करीब दो-तिहाई हिस्सा पर्यावरण में चला जाता है, जिससे गंभीर पर्यावरणीय चुनौतियां पैदा होने लगी हैं, इसमें पानी और हवा का प्रदूषण, साथ ही मिट्टी का क्षरण भी शामिल है। आईफॉरेस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, नाइट्रोजन के कारण हुए जल प्रदूषण को साफ करने की लागत सालाना लगभग 30 अरब डॉलर आंकी गई है, जो यूरिया उद्योग के कारोबार के बराबर है।
रिपोर्ट कहती है कि भारत के कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का 4.3% अब यूरिया के उत्पादन और कृषि में इसके इस्तेमाल से जुड़ा है। यूरिया का उत्पादन पूरी तरह से जीवाश्म ईंधनों पर निर्भर है, जिससे काफी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं। यूरिया के इस्तेमाल से खेतों में निकलने वाला नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है जिसका वार्मिंग प्रभाव CO2 से 300 गुना ज्यादा है। N2O ओज़ोन परत को भी नुकसान पहुंचाता है और मानवीय गतिविधियों से निकलने वाला सबसे बड़ा ओज़ोन-क्षरण करने वाला पदार्थ (ओडीएस) बन गया है।
हालांकि यूरिया के बढ़ते इस्तेमाल से जुड़ी पर्यावरणीय और आर्थिक लागतें काफी अधिक हैं, इसके बावजूद, इससे उपज में वृद्धि नहीं हुई है। आईफॉरेस्ट की रिपोर्ट बताती है कि पिछले 40 सालों में प्रति यूनिट नाइट्रोजन उर्वरक की खाद्यान्न उत्पादन दर आधी से भी कम हो गई है। 1980-81 में यह 35.2 मीट्रिक टन प्रति मीट्रिक टन थी, जो घटकर 2022-23 में 16.3 मीट्रिक टन प्रति मीट्रिक टन रह गई।
भारत का यूरिया पर ज्यादा निर्भर होना ऊर्जा सुरक्षा और कूटनीति के मामले में भी उसे कमजोर बनाता है। 2022-23 में, 84% यूरिया आयातित प्राकृतिक गैस से बनाया गया और लगभग 21% यूरिया सीधे आयात किया गया था।
फरवरी में पेश की गई एक स्थायी समिति की रिपोर्ट ने आयात पर इस निर्भरता को एक महत्वपूर्ण समस्या बताया और उर्वरक विभाग से यूरिया उत्पादन में आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम उठाने और कमी को दूर करने का आग्रह किया था।
आईफॉरेस्ट के अध्यक्ष और सीईओ चंद्र भूषण, यूरिया के ज्यादा इस्तेमाल को लेकर चिंता व्यक्त करते हैं, क्योंकि यह असहनीय स्तर तक पहुंच गया है और खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रहा है। इसके अलावा, इस क्षेत्र की बढ़ती निर्भरता आयातित प्राकृतिक गैस पर देश की ऊर्जा सुरक्षा के बारे में गंभीर सवाल उठाती है।
इन समस्याओं के समाधान के लिए सरकार ने कई पहलें की हैं, जैसे कि जैविक उर्वरकों को बढ़ावा देना, सल्फर-लेपित यूरिया (यूरिया गोल्ड) को लेकर आना और नैनो यूरिया का उत्पादन करना। सरकार अन्य पहलों के साथ 2025-26 तक यूरिया के आयात पर निर्भरता को कम करने के लिए नैनो यूरिया संयंत्रों पर भी निर्भर है।
यूरिया का उपयोग धीरे-धीरे कम करें
यूरिया के अत्यधिक उपयोग के वित्तीय और पर्यावरणीय बोझ को देखते हुए, सरकार इसके उपयोग को कम करने की कोशिश कर रही है। 2017 में, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मन की बात संबोधन के दौरान किसानों से 2022 तक यूरिया की खपत को आधा करने का आह्वान किया था।
विशेषज्ञों का कहना है कि यूरिया से छुटकारा पाना महत्वपूर्ण है, लेकिन आसान नहीं है। देश को रासायनिक उर्वरकों पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए एक क्रमिक प्रक्रिया अपनानी होगी। जी.बी. पंत एग्रीकल्चर एवं टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी में पर्यावरण विज्ञान के एमेरिटस प्रोफेसर वीर सिंह कहते हैं, “यूरिया का इस्तेमाल नाइट्रोजन की आपूर्ति के लिए किया जाता है, जो एंजाइमेटिक प्रक्रियाओं के माध्यम से नाइट्रेट में परिवर्तित हो जाता है। इससे गंभीर समस्याएं हो सकती हैं, जैसे पानी में नाइट्रेट संदूषण, जो विभिन्न बीमारियों से जुड़ा है और ओजोन परत पर नाइट्रस ऑक्साइड का प्रभाव।
चंद्र भूषण यूरिया निर्माण को डीकार्बोनाइज करने और भारतीय कृषि को सुविधाजनक बनाने और उत्पादकता को बढ़ाने के लिए प्रमुख रणनीतियों के रूप में इसकी खपत को अनुकूलित करने की महत्वपूर्ण आवश्यकता पर जोर देते हैं।

आईफॉरेस्ट रिपोर्ट में एक ग्रीन यूरिया मिशन अपनाने का प्रस्ताव है, जिससे भारत खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है, सब्सिडी का बोझ कम कर सकता है, पर्यावरणीय लागत कम कर सकता है, और छोटे किसानों को बेहतर समर्थन दे सकता है। ग्रीन यूरिया में उत्पादन प्रक्रिया के लिए सौर और पवन जैसी नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग किया जाता है।
रिपोर्ट में बताया गया है कि यूरिया उत्पादन में हाइड्रोजन का उपयोग होता है और तेल रिफाइनरियों के बाद हाइड्रोजन का दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता होने के बावजूद, भारत के ग्रीन हाइड्रोजन मिशन में यूरिया क्षेत्र प्राथमिकता नहीं है। मिशन का लक्ष्य 2030 तक पांच मिलियन मीट्रिक टन ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन करना है। आईफॉरेस्ट रिपोर्ट के मुताबिक, ग्रीन हाइड्रोजन यूरिया उत्पादन का सबसे प्राकृतिक और सबसे सस्ता तरीका है।
रिपोर्ट में ग्रीन यूरिया मिशन को भारत के नेशनल ग्रीन हाइड्रोजन मिशन से जोड़ने का प्रस्ताव है, जिसका लक्ष्य 2050 तक यूरिया को ग्रीन यूरिया में बदलना है।
प्रस्तावित ग्रीन यूरिया मिशन के लिए, आईफॉरेस्ट रिपोर्ट ने मध्य-सदी तक कुछ विशिष्ट लक्ष्य रखे हैं, जिनमें गैर-रासायनिक खेती का क्षेत्रफल 30% बढ़ाना, नाइट्रोजन उपयोग क्षमता में 30% सुधार करना, और नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों में यूरिया का अनुपात 30% कम करना शामिल है।
अगर ये लक्ष्य पूरे कर लिए जाते हैं, तो रिपोर्ट का अनुमान है कि 2050 तक यूरिया की खपत आधी हो सकती है, आयात पर निर्भरता समाप्त हो सकती हैं, सब्सिडी 65% तक कम हो सकती हैं, और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 64% की कमी आ सकती है। रिपोर्ट का दावा है कि अगले 25 वर्षों में ग्रीन यूरिया मिशन को लागू करने से आर्थिक और पर्यावरणीय लाभ लगभग एक ट्रिलियन डॉलर के करीब होंगे।
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जब सिक्का से पूछा गया कि यूरिया पर निर्भरता कैसे कम की जाए, खासकर जब नैनो यूरिया समान उपज नहीं दे रहा है, तो उन्होंने कहा, “नाइट्रोजन बचाने के लिए हमने कई तरीके सुझाए हैं। उदाहरण के लिए, सूर्यमुखी जैसे हरे खाद वाली फसलें, जो वातावरण से नाइट्रोजन सोखती हैं। चावल की बुवाई करने से पहले इसे मिट्टी में मिलाने पर 50% नाइट्रोजन बचाई जा सकती हैं। किसान दो फसलों के बीच ऐसे तरीके इस्तेमाल कर सकते हैं। इसके अलावा और भी कई तरीके हैं।”
हालांकि, अंतिम लक्ष्य धीरे-धीरे यूरिया के इस्तेमाल को कम करना होना चाहिए। उन्होंने कहा कि इस बदलाव में नैनो यूरिया जैसी तकनीकों को शामिल करना आवश्यक है, जो यूरिया की खपत को कम करती हैं।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 13 अगस्त 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: मध्य प्रदेश के सीहोर जिले के भांडेली गांव के किसान मुकेश मीणा के खेत में सोयाबीन की फसल में कीटनाशकों का छिड़काव करते मजदूर। तस्वीर- मुकेश मीणा