- सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम के फंड का बड़ा हिस्सा धूल से निपटने पर खर्च किया गया है।
- वायु प्रदूषण के खतरनाक स्तर की रिपोर्ट करने वाले शहरों की संख्या बढ़ रही है। यह औद्योगिक गतिविधियों, कचरे को जलाने और परिवहन से होने वाले प्रदूषण पर ध्यान देने की जरूरत की ओर इशारा कर रहा है।
- कार्यक्रम की प्रगति का निर्धारण कई मैट्रिक्स और रैंकिंग प्रणालियों की वजह से जटिल हो जाता है क्योंकि ये एक-दूसरे के साथ तालमेल नहीं रखती हैं।
साल 2019 में जब राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम या नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम शुरू किया गया था, तो इसने भारत के कुछ सबसे प्रदूषित शहरों के लिए बड़े लक्ष्य निर्धारित किए थे। वायु प्रदूषण की सांद्रता को कम करना, वायु प्रदूषण की निगरानी और पूर्वानुमान को बढ़ाना और प्रदूषण स्रोत का पता लगाने के लिए अध्ययन करना इसके कुछ लक्ष्य थे। लेकिन पांच साल से ज़्यादा समय बीत जाने के बाद भी, न सिर्फ कई शहर अपने लक्ष्यों को पूरा करने में पीछे हैं, बल्कि इस दौरान ये शहर वायु प्रदूषण को कम करने के ज्यादातर उपाय, जहरीली गैसें उत्सर्जित करने के लिए जिम्मेदार उद्योगों और संस्थाओं को भी इन सालों में अनदेखा करते रहे हैं।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की एक रिपोर्ट से पता चला है कि कार्यक्रम के तहत फंड का बड़ा हिस्सा धूल से निपटने के लिए किए गए कार्यों पर खर्च किया गया। इन कार्यों में सड़कें बनाना, गड्ढों को ढकना, मैकेनिकल स्वीपर और पानी के छिड़काव करने वाले यंत्रों का इस्तेमाल आदि शामिल है। उद्योगों से होने वाले जहरीले उत्सर्जन को नियंत्रित करने पर एक प्रतिशत से भी कम खर्च किया गया और 10,566.47 करोड़ रूपए में से लगभग 40 प्रतिशत फंड का इस्तेमाल नहीं हो सका है।
“ब्रीदिंग हियर इज इंजूरियस टू योर हेल्थ” किताब की लेखिका और वायु प्रदूषण के बारे में जागरूकता फैलाने वाले गैर-लाभकारी संगठन केयर फॉर एयर की सह-संस्थापक ज्योति पांडे लवकारे ने कहा, “इसका मतलब है कि समस्या से निपटने के लिए कोई गंभीरता नहीं है।” वह आगे कहती हैं, “सिर्फ धूल-मिट्टी हटाने पर पैसा खर्च करना और प्रदूषण फैलाने वालों पर कार्रवाई न करना- मतलब साफ है कि प्रदूषण को कम करने के लिए कोई ईमानदार प्रयास नहीं किया गया है। धूल कुछ ही घंटों में हवा में वापस आ जाती है; यह जनता के पैसे की पूरी बर्बादी है, बिल्कुल स्मॉग टावरों की तरह।”
राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) के तहत जिन 131 शहरों को शामिल किया गया था, वे 2011 से 2015 के बीच लगातार पांच साल तक राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानकों को पूरा नहीं कर पाए थे। पांच साल बाद भी, इनमें से ज्यादातर शहर 2017 के स्तर की तुलना में वायु प्रदूषण की सांद्रता को 20-30% कम करने के एनसीएपी के लक्ष्य को पूरा करने में नाकाम रहे हैं। हाल ही में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि 2014 से 2021 तक वायु प्रदूषण में आई अधिकांश कमी तेज हवाओं और मौसम संबंधी अन्य कारकों के कारण हुई है।

हालांकि, इस कार्यक्रम को 2026 तक बढ़ा दिया गया है जिसमें प्रदूषण की सांद्रता को 40% तक कम करने का नया लक्ष्य है। सीएसई की रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि अगर कार्यक्रम के डिजाइन में बड़े बदलाव नहीं किए गए तो परिणाम “अच्छे” नहीं रहेंगे। रिपोर्ट की लेखिका और सीएसई में रिसर्च और एडवोकेसी की कार्यकारी निदेशक अनुमिता रॉयचौधरी ने कहा, “इस कार्यक्रम को लागू करना कई तरह के मापदंडों और ऐसे सिस्टम की वजह से मुश्किल है जो धूल जैसे बड़े कणों (PM10) को कम करने पर ज्यादा जोर देता है। जबकि जरूरत ज्यादा हानिकारक PM2.5 कणों पर ध्यान देने की है। इसका मतलब है कि उद्योग, परिवहन और जलने से होने वाले अन्य प्रदूषण पर कार्रवाई की जाए।
उद्योग और ट्रांसपोर्ट की अनदेखी
हर साल, इंडो गंगा मैदान अक्टूबर और जनवरी के बीच वायु प्रदूषण से घिर जाता है, क्योंकि खराब मौसम और भौगोलिक परिस्थितियों के बावजूद पटाखे फोड़े जाते हैं और पराली जलाई जाती है। नतीजा यह होता है कि पूरे इलाके में घनी धुंध छा जाती है, जो PM2.5 कणों से भरी होती है। उनकी मात्रा 400 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से भी ज्यादा तक पहुंच जाती है। अध्ययनों के अनुसार, इस वायु प्रदूषण के संपर्क में आना, लगभग 12 साल की जीवन प्रत्याशा कम करने के बराबर है।
हालांकि, सीजनल स्पाइक्स या किसी ख़ास मौसम में होने वाली बढ़ोतरी के बावजूद, इंडो गंगा मैदान में वायु प्रदूषण का उच्च स्तर बना हुआ है। इस साल की शुरुआत में जारी ‘सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर’ द्वारा किए गए विश्लेषण में पाया गया कि वायु प्रदूषण के खतरनाक स्तर की रिपोर्ट करने वाले शहरों की संख्या बढ़ी है। ये वो शहर हैं जो एमसीएपी द्वारा कवर नहीं किए गए थे।
औद्योगिक गतिविधियां, अपशिष्ट जलाना और गाड़ियों का धुआं हवा को लगातार प्रदूषित कर रहा है, जिससे सामान्य प्रदूषण बढ़ जाता है। लवाकरे कहती हैं, “यही जगहें हैं जिन पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है और अगर इन पर ध्यान से काम किया जाए, तो वायु प्रदूषण को कम करने में ये सबसे ज्यादा प्रभावी होंगे।”
सीएसई की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के वायु प्रदूषण के एक चौथाई से ज्यादा हिस्से के लिए ट्रांसपोर्ट जिम्मेदार है, फिर भी एनसीएपी के फंड का केवल 13% हिस्सा इनसे होने वाले उत्सर्जन पर खर्च किया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है, “यहां तक कि जिन राज्यों ने सड़कों पर वायु प्रदूषण मापने के लिए प्रस्ताव दिए हैं, उनकी शहर योजनाओं में भी यह आगे नहीं बढ़ सकता है, क्योंकि सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने अभी तक केंद्रीय नियमों को जारी नहीं किया है। पुराने भारी वाहनों को हटाने की कोई रणनीति नहीं है, जो वाहनों की कैटेगरी में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाते हैं।”
ईंधन संयोजन पर PM2.5 और अन्य हानिकारक प्रदूषकों के उत्सर्जन को कम करने के लिए वर्तमान BS-6 इंजन उत्सर्जन मानकों को 2020 में संशोधित किया गया था। लेकिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में किए गए एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि बीएस-6 मानक वाले वाहन, अनुमति से कहीं ज्यादा प्रदूषण उत्सर्जित करते हैं। तिपहिया वाहनों, निजी कारों, टैक्सी, हल्के मालवाहक वाहनों और बसों में के लिए नाइट्रोजन ऑक्साइड (NOx) का उत्सर्जन प्रमाणित सीमा से क्रमशः 3.2 गुना, 2 गुना, 4 गुना, 4.9 गुना, 14.2 गुना और 1.5 गुना ज्यादा पाया गया। पिछले 10 सालों में, दिल्ली में परिवहन से होने वाले उत्सर्जन में अन्य स्रोतों की तुलना में सबसे अधिक वृद्धि हुई है।
रॉयचौधरी ने कहा, “इस क्षेत्र से उत्सर्जन को कम करने के लिए इलेक्ट्रिक वाहन, चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर, पुराने वाहनों को हटाना और पैदल चलने वालों और सार्वजनिक परिवहन की सुविधाओं में सुधार करना जरूरी है, लेकिन शहरों में इन पहलुओं पर कोई प्रगति नहीं दिख रही है। वह बताते हैं, “एनसीएपी को वाहनों के विद्युतीकरण की मांग को मजबूत करना और मौजूदा ईवी योजनाओं को तेज करना चाहिए, लेकिन वर्तमान रूप में एनसीएपी ऐसा नहीं कर रहा है।”
भारत में काम करने वाली प्रमुख ऑटो कंपनियां इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाने में हिचक रही हैं। मारुति सुजुकी ने कथित तौर पर इंटरनल कम्बस्चन इंजन (ICE) वाहनों के लिए लंबे समय तक सहायता देने के लिए सरकार पर दबाव डाला, जबकि टोयोटा और होंडा ने बैटरी इलेक्ट्रिक वाहनों की तुलना में ICE-संचालित हाइब्रिड वाहनों के समर्थन के लिए पैरवी की। लॉबिंग के रुझानों और जलवायु लक्ष्यों के साथ उनके सामंजस्य पर नजर रखने वाले वैश्विक थिंक-टैंक इन्फ्लुएंस मैप के अनुसार, महिंद्रा और टाटा मोटर्स ने बैटरी इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ाने का सबसे अधिक समर्थन किया है।
इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाने में सरकारी सहायता भी अहम भूमिका निभाती है। भारत में इलेक्ट्रिक और हाइब्रिड वाहनों के तेजी से अपनाने और विनिर्माण (फेम-II) योजना के दूसरे चरण की समाप्ति के बाद इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री में गिरावट आई है। सीएसई के अनुसार, वायु प्रदूषण के लिए आवंटित फंड को फेम जैसी ज्यादा प्राथमिकता वाली योजनाओं से जोड़ने की जरूरत है।
दूसरी ओर, उद्योगों से निकलने वाले उत्सर्जन पर अभी भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है और रिपोर्टिंग बहुत कम है। पर्यावरण नियमों में ढील से उद्योगों को फायदा हुआ है। उदाहरण के लिए, थर्मल पावर प्लांटों को उत्सर्जन मानकों को पूरा करने की समय सीमा 2017 से 2022 के बीच तीन बार बढ़ाई गई थी। हालिया अधिसूचना के अनुसार, गंभीर रूप से प्रदूषित शहरों से 10 किलोमीटर के दायरे में आने वाले थर्मल पावर प्लांटों को उत्सर्जन मानकों को पूरा करने की समयसीमा 31 दिसंबर, 2025 तक है, जबकि अन्य सभी पावर प्लांटों को दिसंबर 2026 तक समय दिया गया है।
प्रगति के परस्पर विरोधी मैट्रिक्स
एनसीएपी के तहत शामिल 131 “प्रदूषण-अनुपालन” वाले शहरों में से 82 शहरों को पर्यावरण मंत्रालय से और 46 शहरों को 15वें वित्त आयोग से फंड मिला है। मंत्रालय से मिला फंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के जरिए और वित्त आयोग से मिला फंड राज्य वित्त मंत्रालयों और शहरी स्थानीय निकायों के जरिए पहुंचाया जाता है।

एनसीएपी के तहत वायु गुणवत्ता सुधार के लिए फंड, PM10 स्तर को कम करने के प्रदर्शन से जुड़ा है, लेकिन इन दोनों चैनलों के लिए सफलता के मापदंड अलग-अलग हैं, जिससे तुलना करना मुश्किल हो जाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के पास क्षमता निर्माण, वायु प्रदूषण के स्रोतों का पता लगाना, निगरानी नेटवर्क, जनता तक पहुंच, और सड़क की धूल, कचरे, वाहनों और उद्योगों पर नियंत्रण जैसी 258 बातों की सूची है। शहरों को हर तिमाही इन मापदंडों का उपयोग करके अपनी प्रगति की रिपोर्ट PRANA नामक डैशबोर्ड पर देनी होती है।
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पन्द्रहवें वित्त आयोग से फंड पाने वाले शहरों को भी कणों (पार्टिकुलेट मैटर) को कम करने और वायु गुणवत्ता सूचकांक में “अच्छे” दिनों की संख्या बढ़ाने में प्रगति दिखानी होती है। सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (CREA) के विश्लेषक सुनील दाहिया ने कहा, “इन विभिन्न मापदंडों में कोई तालमेल या पारदर्शिता नहीं है।” “PRANA पोर्टल केवल हमें बताता है कि प्रदूषण का स्तर पहले क्या था और अब क्या है, लेकिन यह प्रदूषण के स्रोतों की लिस्ट या यह नहीं बताता कि शहरों ने वायु प्रदूषण में कमी कैसे हासिल की है।”
साल 2022 में, मंत्रालय ने वायु प्रदूषण को कम करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में लागू नीतियों पर आधारित एक रैंकिंग सिस्टम, स्वच्छ वायु सर्वेक्षण (एसवीएस) शुरू किया। सीएसई की रिपोर्ट में पाया गया कि सीपीसीबी की प्रगति के मैट्रिक्स में अच्छा प्रदर्शन करने वाले शहर जरूरी नहीं कि एसवीएस के तहत भी अच्छा प्रदर्शन करें। उदाहरण के लिए, आगरा, दिल्ली, गाजियाबाद, मेरठ और जबलपुर ने 2022 में एसवीएस के तहत आठ क्षेत्रों में नीतियों को लागू करने में अच्छा प्रदर्शन किया, जैसे कि अपशिष्ट जलाना और सार्वजनिक जागरूकता में सुधार करना, लेकिन पीएम 10 प्रदूषण को कम करने के लिए सीपीसीबी के मेट्रिक्स में खराब प्रदर्शन किया।
इससे सबसे अच्छे तरीकों को पहचानना और दो शहरों की प्रगति की तुलना करना और भी मुश्किल हो जाता है। सीएसई की रिपोर्ट कहती है कि प्रदर्शन मूल्यांकन में वायु गुणवत्ता में सुधार से संबंधित उत्सर्जन में कमी का आकलन करने की कोई व्यवस्था नहीं है।
एक नाकाम प्रोजेक्ट को फिर से डिजाइन करना
एनसीएपी की नजर से उद्योगों के उत्सर्जन के छुपे रहने का एक कारण यह है कि उद्योग आमतौर पर शहरों की सीमा के बाहर, नगर निगम की सीमाओं से परे स्थित होते हैं, जो एनसीएपी की कार्ययोजनाओं में शामिल नहीं होते। वायु प्रदूषण प्रबंधन के विशेषज्ञ अधिकारियों से पूरे भौगोलिक क्षेत्र (एयरशेड) पर प्रदूषण को नियंत्रित करने का सुझाव दे रहे हैं, न कि राजनीतिक या प्रशासनिक सीमाओं पर। रॉयचौधरी ने कहा, “धूल नियंत्रण से ध्यान पीएम 2.5 पर केंद्रित करने से, एनसीएपी को अपनी योजनाओं में अधिक व्यापक रूप से कार्य करने के लिए मजबूर करेगा।”

राष्ट्रीय राजधानी और आसपास के इलाकों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम) उन कुछ संस्थाओं में से एक है जो वायु प्रदूषण की सीमा पार करने वाली प्रकृति को पहचानने और दूर करने का प्रयास करती है। साथ ही हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली जैसे इलाकों में निर्देश जारी करती है। सीएसई की रिपोर्ट कहती है कि एनसीएपी के बाकी हिस्सों को “स्थानीय और क्षेत्रीय वायु गुणवत्ता लक्ष्यों को पूरा करने के लिए शहर और राज्य स्तरीय स्वच्छ वायु कार्य योजनाओं के बीच एक मजबूत इंटरफेस की आवश्यकता है।”
एनसीएपी को लागू करने वालों (राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और शहरी स्थानीय निकाय) के पास मानव संसाधन और मोटिवेशन की कमी है। दिल्ली नगर निगम के सहयोग से क्लाइमेट ट्रेंड्स द्वारा किए गए सर्वे में पाया गया कि ज्यादातर कर्मचारियों को एनसीएपी के बारे में जानकारी नहीं थी, उन्हें लगता था कि वे कार्रवाई करने के लिए सक्षम नहीं हैं और उन्हें अपने काम में प्रेरणा नहीं मिल रही थी।
एनसीएपी के फंड में से सिर्फ 6.24% हिस्सा ही इन विभागों की क्षमता बढ़ाने में लगा है। दाहिया कहते हैं कि अभी के एनसीएपी में इतनी ढील है कि प्रदूषण फैलाने के लिए जिम्मेदार लोग या संस्था अपना काम जैसे चल रहा है वैसा ही चलते रहने दे सकते हैं। उन्होंने कहा, “दरअसल, नियम बनाने वाले उद्योगों को उत्सर्जन मानकों का पालन न करने के लिए और वक्त देकर उन्हें रिवार्ड दे रहे हैं।” उन्होंने आगे कहा, “जमीनी स्तर पर एनसीएपी कर्मचारियों के लिए अतिरिक्त बोझ साबित हो रहा है। पर्याप्त लोग नहीं हैं और मौजूदा कर्मचारियों को इन नियमों को लागू करने का प्रशिक्षण भी नहीं दिया गया है।”
रॉयचौधरी के मुताबिक, वायु प्रदूषण को कम करने के लिए इस कार्यक्रम में पीएम 2.5 के स्तर को कम करने और प्रदूषण के स्रोतों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रोत्साहन दिए जाने चाहिए। इसके लिए पूरे कार्यक्रम में बड़ा बदलाव करना पड़ सकता है, जिसमे स्रोत तक पता लगाए जा सकने वाले वैज्ञानिक लक्ष्य निर्धारित करना, आंकड़ों की रिपोर्टिंग में पारदर्शिता लाना, अलग-अलग मापदंडों को एक जैसा बनाना, और पर्यावरण कानूनों को बिना देरी के लागू करना शामिल है।
रॉयचौधरी ने कहा, “हम चाहते हैं कि इस कार्यक्रम में अब पीएम 2.5, नाइट्रोजन ऑक्साइड, ओजोन, और दूसरे प्रदूषकों को मिलाकर देखना चाहिए और सिर्फ हवा में धूल के स्तर के बजाय वायु गुणवत्ता में सुधार को ट्रैक करना चाहिए। इस कार्यक्रम में ये सबसे महत्वपूर्ण सुधार हैं, जिन पर काम करना होगा।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 2 सितंबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: विशेषज्ञ वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए पूरे क्षेत्र (एयरशेड) के आधार पर कार्य करने की सलाह देते हैं। तस्वीर- जीन-एटिने मिन्ह-ड्यू पोइरी, फ्लिकर (CC BY-SA 2.0)