- देहरादून के शुक्लापुर के जंगल में वर्ष 2011 में समुदाय की भागीदारी से पानी रोकने के प्रयोग किए गए। करीब 42 हेक्टेयर क्षेत्र में जगह-जगह चेकडैम बनाए गए। एक जलछिद्र को 1-10 हज़ार लीटर तक पानी भरने की क्षमता के साथ तैयार किया गया।
- जंगल में पानी रोकने और भूजल स्तर को बढ़ाने के लिए बनाए गए इन छोटे-छोटे चेकडैम का असर यहां की छोटी आसन नदी पर भी दिखा। छोटी आसन नदी में वर्ष 2010 में 90 लीटर प्रति मिनट पानी बचा था। आज ये 1200 लीटर प्रति मिनट है। भीषण गर्मियों में भी नदी का पानी नहीं रुकता। इसके पानी के चलते 18 गांवों में घराट की वापसी हो गई।
- उत्तराखंड के जंगल इस समय आग की मुश्किल से जूझ रहे हैं लेकिन समुदाय की जागरुकता के साथ जंगल में पानी को रोकने की व्यवस्था और मिट्टी की नमी के चलते शुक्लापुर के नज़दीक के जंगल आग से सुरक्षित हैं।
“पहले यहां गर्मियों में पूरा जंगल जलकर राख हो जाया करता था। यहां लैंटाना की झाड़ियां होती थीं और उनमें आग लग जाया करती थी। ये आग हमारे खेत और फसल तक पहुंच जाती थी। लेकिन जब से यहां पानी रोकने के लिए चाल-खाल बनाई गई है और चेकडैम बनाए गए हैं, हमारा जंगल सुरक्षित और पुनर्जीवित हो चुका है। राज्य में कई जगह जंगल में आग लगी हुई है लेकिन हमारी फसल और हम लोग सुरक्षित हैं,” कहते हैं राकेश सेमवाल जो शुक्लापुर गांव के रहने वाले हैं। यह गांव देहरादून के विकासनगर ब्लॉक में आता है।
शुक्लापुर 46 हेक्टेयर क्षेत्र का वन मॉडल अभी भी हरा-भरा है जबकि उत्तराखंड के कुल वन क्षेत्र (करीब 38,000 वर्ग किलोमीटर) के कई हिस्सों में आग लगी हुई है।
मार्च-अप्रैल के महीने में पर्वतीय क्षेत्र उत्तरकाशी-बागेश्वर से लेकर मैदानी ज़िले देहरादून-हरिद्वार तक के जंगल आग की लपटों से घिरे हुए हैं। उत्तराखंड वन विभाग के मुताबिक एक अक्टूबर 2020 से शुरू फायर सीजन के आंकड़े जंगल की आग की भयावहता को और अधिक स्पष्ट करते हैं। अक्टूबर की शुरुआत से 2 अप्रैल तक जंगल की आग में 4 लोगों ने अपनी जान गंवाई। दो लोग घायल हुए। सात पशुओं की मौत हुई और लगभग दो दर्जन घायल हुए। इस दौरान 1207.88 हेक्टेयर क्षेत्र आग की चपेट में आया।
अब भी है हरा-भरा शुक्लापुर का जंगल
ऐसे समय में देहरादून के आशारोड़ी वन क्षेत्र में आने वाले शुक्लापुर गांव का जंगल शांत है। बढ़ते तापमान का असर यहां के जंगलों पर भी है जैसे जंगल की मिट्टी सूखी तो है लेकिन स्थिति ऐसी नहीं कि आग लगे। जबकि यहां से 30 किलोमीटर दूर कालसी के जंगल आग से जूझ रहे हैं। दूसरी तरफ 40 किलोमीटर दूर मसूरी की पहाड़ियां भी आग से घिरी हुई हैं।
ऐसा इसलिए संभव हो पाया क्योंकि पिछले दस सालों से गांव के लोग इस जंगल को हरा-भरा रखने की कोशिश कर रहे हैं। हिमालयन इनवायरमेंटल स्टडीज़ एंड कंजर्वेशन ऑर्गनाइजेशन (हेस्को) से भी ग्रामीणों को मार्गदर्शन मिला है।
पहले यहां भी वैसे ही आग लगा करती थी जैसे अभी अन्य क्षेत्रों में लगी हुई है। वर्ष 2008-09 तक जंगल की सेहत बिगड़ चुकी थी। “छोटी आसन” के नाम से पुकारी जाने वाली स्थानीय जंगली नदी सूखने की कगार पर पहुंच गई थी। नदी की ऐसी स्थिति हो गयी थी कि लोगों और जंगली जानवरों की प्यास बुझाना तो दूर, जंगल की मिट्टी की नमी भी कम होने लगी थी। नमी कम होने से आग भी आसानी से फैलती थी।
एक छोटे से अनुभव से हुई शुरुआत
“एक दिन अपने खेत से हल्दी की सफ़ाई कर छुटी हुई हल्दी मैंने ऐसे ही सड़क पार जंगल की तरफ फेंक दी। हमने देखा कि उसी जगह पर हल्दी का पौधा पनपा और करीब दो किलो की हल्दी तैयार हुई। फिर हमने सफाई करके वहां छोटे-छोटे पौधे लगाने शुरू किए। छोटे पौधों के लिए जंगल में सफ़ाई करेंगे, झाड़ियां-सूखी पत्तियां हटाएंगे तो बड़े पेड़ अपने आप निखरते हैं,” शुक्लापुर गांव की निवासी सावित्री कुकरेती कहती हैं। इसकी शुरुआत वर्ष 2008 में हुई।
इस घटना से उन्हें और उनके साथ की अन्य महिलाओं को जंगल की बंजर ज़मीन को उपजाऊ बनाने का ख्याल आया।
सावित्री बताती हैं कि जंगल से हो रही मुश्किलों ने हमें जंगल की सफ़ाई के लिए प्रेरित किया। गांव की सब महिलाएं अपने घर और खेत के काम निबटाने के बाद अपने घर के नजदीक के जंगल की सफ़ाई करने लगीं। जंगल के अंदर फैली लैंटाना जैसी खतरनाक झाड़ी हमारे घरों के आगे तक आ गई थी। इसकी वजह से घरों में सांप-बिच्छुओं का खतरा बना रहता। आग का खतरा तो था ही।
शुरुआती दिनों में वन विभाग से उनका टकराव भी होता था। वन कानून के तहत विभाग के लोग स्थानीय लोगों को वन क्षेत्र में प्रवेश से रोकते थे। “हम पौधे लगाते हैं तो जंगलात वालों को लगता है कि हम कहीं ज़मीन कब्जा न कर लें,” मनोरमा कुकरेती बताती हैं जो इसी गांव की रहने वाली हैं।
जंगल से जुड़े शुक्लापुर समेत आसपास के कई छोटे गांवों की मुश्किलों को देख पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर काम कर रही हेस्को संस्था भी सहयोग के लिए आगे आई। संस्था के अध्यक्ष अनिल जोशी ने उत्तराखंड वन विभाग के अधिकारियों से बात की। वन विभाग ने ही इस कार्य के लिए कैंपा (क्षतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण) के तहत बजट की व्यवस्था की। ग्रामीणों को साथ लेकर शुक्लापुर के जंगल में वर्ष 2009 से 2011 में पानी रोकने के प्रयोग किए गए। करीब 46 हेक्टेयर क्षेत्र में जगह-जगह चेकडैम बनाए गए।
अनिल जोशी बताते हैं “महिलाओं की भागीदारी से प्रति एक हेक्टेयर क्षेत्र में करीब साढ़े तीन सौ जल छिद्र बनाए गए। एक जलछिद्र को 1-10 हज़ार लीटर तक पानी भरने की क्षमता के साथ तैयार किया गया। चेकडैम बनाने के लिए आमतौर पर पत्थरों को सीमेंट से जोड़कर घेरबाड़ की जाती है। लेकिन हमने गैबन स्ट्रक्चर का इस्तेमाल किया। इसमें बड़े-बड़े पत्थर लोहे की जाली में बंद कर देते हैं। बारिश के समय तेज़ रफ्तार पानी इनके बीच से होकर गुज़र जाता है जबकि सीमेंट लगाने पर पानी इन्हें पार नहीं कर पाता था और तेज़ बहाव में पत्थरों का जोड़ टूट जाता था।”
वर्ष 2020 में इन चैकडैम की दोबारा मरम्मत की गई। गढ्ढों में जमा गाद और अन्य कचरा हटाया गया। कुछ नए चैकडैम भी बनाए गए। इसके लिए बजट की व्यवस्था वन विभाग की ओर से की गई। हेस्को संस्था से जुड़े विनोद खाती बताते हैं कि एक हज़ार लीटर की क्षमता का पानी रोकने का गैबन स्ट्रक्चर बनाने का खर्च तकरीबन 15 सौ रुपये पड़ता है। इसमें पत्थरों को लाना, तारबाड़ और श्रम की लागत शामिल होती है। चेकडैम की सुरक्षा के लिए उसके किनारे बांस और अन्य फलों के पौधे लगाए गए।
जंगल में पानी रोकने और भूजल स्तर को बढ़ाने के लिए बनाए गए इन छोटे-छोटे चेकडैम का असर यहां की छोटी आसन नदी पर भी दिखा। अनिल जोशी कहते हैं “छोटी आसन नदी में वर्ष 2010 में 90 लीटर प्रति मिनट बचा था। आज ये 1200 लीटर प्रति मिनट है। चरम गर्मियों में भी नदी का पानी नहीं रुकता था। इसके पानी के चलते 18 गांवों में घराट की वापसी हो गई।उत्तराखण्ड में परम्परागत रूप से प्रयुक्त एक प्रकार का जलचालित यंत्र (पनचक्की) को घराट कहते हैं जो गेंहू आदि पीसने के काम आता है।
जलछिद्रों से पानी जुटाना बड़ा प्रयोग है। पानी गढ्ढों में आता है तो नमी बढ़ती है। जंगल में आग नहीं लगती। जो जंगल कभी सूख रहा था अब उसमें साल के नन्हे पौधे खुद-ब-खुद उगने लगे हैं।”
गांव के महिलाओं के साथ काम कर रही हेस्को संस्था से जुड़ी डॉ किरन कहती हैं, “शुक्लापुर समेत डोंकवाला, केशुवाला, सहसपुर, फतेहग्राम, रतनपुर, भुड्डी समेत 18 गांव इस नदी पर निर्भर करते हैं। इन गांवों में 15 घराट चलते थे। पानी कम होने पर वे घराट भी बंद हो गए थे। लोगों की रोज़ी-रोटी बंद हो गई। बल्कि पानी से जुड़े विवाद शुरू होने लगे थे। बरसात के समय नदी में पानी भरता था और मिट्टी बह जाती थी। जबकि गर्मियों में पानी बहुत कम हो जाता था। लेकिन जंगल के उपचार के लिए किए गए पारंपरिक प्रयोगों से जंगल, नदी और उसके किनारे रहने वाले लोगों का जीवन लौटा। पानी पर चलने वाले घराट चलने लगे। लोगों को आजीविका मिली।”