- वर्तमान में जैव-विविधता वित्त (बायो डायवर्सिटी फाइनेंस) काफी हद तक सरकारी एजेंसियों और निजी परोपकारी संस्थाओं के धन पर निर्भर है।
- भारत में जैव-विविधता वित्त के तहत आय-व्यय के अंतर को मापने और इस अंतर को पाटने के लिए कार्यप्रणाली विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है।
- साल 2018 में किए गए सबसे हालिया अनुमान के मुताबिक़ 2030 तक भारत के जलवायु परिवर्तन कार्यों को पूरा करने के लिए कम से कम 2.5 ट्रिलियन डॉलर की आवश्यकता होगी।
जैव-विविधता के संरक्षण के लिए पूंजी जुटाना और उसका प्रबंधन करना जैव विविधता वित्त या बायो डायवर्सिटी फाइनेंस है। यह संरक्षण वित्त के जैसे व्यापक विषय के तहत आता है, जिसका उद्देश्य भूमि, पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का लम्बे समय तक संरक्षण के लिए आर्थिक सहयोग देना है।
वर्तमान में जैव-विविधता वित्त काफी हद तक सरकारी एजेंसियों और निजी परोपकारी संस्थाओं के धन पर निर्भर है। हालांकि, अब विभिन्न प्रकार के फंडर्स (सार्वजनिक, निजी और गैर-लाभकारी), फंडिंग के प्रकार (ऋण, अनुदान, कर प्रोत्साहन, बाजार तंत्र, आदि के माध्यम से) और फंडिंग के पैमाने (स्थानीय, राज्य, राष्ट्रीय) पर ध्यान दे रहे हैं। इसमें पर्यटन से संबंधित कर/शुल्क, प्रकृति के लिए ऋण की अदला-बदली, संरक्षण ट्रस्ट फंड और पर्यावरण सेवाओं के लिए भुगतान जैसे वित्त-तंत्र शामिल हैं।
वर्तमान में विश्व वन्यजीव-कोष (वर्ल्ड वाइल्ड-लाइफ फंड) और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम) जैसे कई संस्थानों द्वारा वैश्विक पहल के रूप में जैव-विविधता का वित्त-पोषण (फाईनेंसिंग) किया जा रहा है। जैव विविधता वित्त की पहल करने वाला यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम, ‘नेचर पॉजिटिव इकोनॉमी’ के स्थायी वित्तीय समाधान लिए विभिन्न देशों के साथ काम करता है, जिससे न केवल जैव विविधता की रक्षा हो सकती है बल्कि इससे जैव-विविधता फले-फूलेगी भी।
जैव-विविधता वित्त की अहमियत का कारण
साल 2015-2017 के आंकड़ों के आधार पर आर्गेनाईजेशन फॉर इकॉनमिक क्वाप्रेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) द्वारा वैश्विक जैव-विविधता वित्त-2020 की रिपोर्ट के अनुसार, जैव-विविधता संरक्षण के लिए वैश्विक वित्तीय सहायता प्रतिवर्ष 78-91 बिलियन डॉलर है। इसमें सार्वजनिक घरेलू व्यय ($67.8 बिलियन प्रतिवर्ष), अंतर्राष्ट्रीय सार्वजनिक व्यय ($3.9-9.3 बिलियन प्रतिवर्ष), और निजी व्यय ($6.6-13.6 बिलियन प्रतिवर्ष) शामिल हैं। हालाँकि, सरकारें जैव विविधता के लिए हानिकारक परियोजनाओं पर 500 बिलियन डॉलर से अधिक खर्च करती हैं, जो कि संरक्षण के लिए किए गए खर्च से लगभग 5 से 6 गुना अधिक है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी), वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और इकोनॉमिक्स ऑफ लैंड डिग्रेडेशन द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किए गए स्टेट ऑफ फाइनेंस फॉर नेचर रिपोर्ट-2021 में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता और भूमि क्षरण को कम करने के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए 2050 तक 4.1 ट्रिलियन डॉलर के वित्तीय अंतर को पाटना होगा। यदि साल 2020 के आधार पर देखा जाए, तो वित्त की वर्तमान स्थिति केवल 133 बिलियन डॉलर है, जिसमें से 86% सार्वजनिक वित्त-पोषण (पब्लिक फाईनेंसिंग) के माध्यम से और 14% निजी वित्त-पोषण (प्राइवेट फाईनेंसिंग) के माध्यम से है।
प्रकृति आधारित समाधानों से जैव-विविधता के संरक्षण के लिए मिलने वाले धन और इसके लिए आवश्यक धन के बीच भारी अंतर को देखते हुए, जैव विविधता को फाइनेंस की तत्काल आवश्यकता है और यह बहुत महत्वपूर्ण है।
भारत में जैव-विविधता वित्त की स्थिति
भारत में वर्तमान में जैव विविधता वित्त के तहत आय-व्यय के अंतर को मापने और इसे पाटने के लिए कार्यप्रणाली विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है। इस अंतर को पाटने के लिए, राष्ट्रीय स्तर पर जैव विविधता संरक्षण को मुख्यधारा के विकास और क्षेत्रीय योजनाओं से जोड़कर संरक्षण के प्रयासों की लागत और इसके प्रभावशीलता में सुधार के विकल्पों का पता लगाया जा रहा है।
भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा प्रकाशित जैव-विविधता व्यय समीक्षा-2018, के अनुसार वर्ष 2012-13 और 2016-17 के बीच 24 केंद्रीय मंत्रालयों और 29 विभागों की 116 योजनाओं से लगभग 20,000 करोड़ रुपये (2.64 मिलियन डॉलर) संरक्षण से मद में व्यय किया गया। जबकि भारत की राष्ट्रीय जैव विविधता कार्य योजना को लागू करने के लिए एक समय अवधि के लिए लगभग 90,000 करोड़ रुपये ($12 बिलियन) वार्षिक की आवश्यकता है। साल 2018 के एक अनुमान के मुताबिक़ 2030 तक भारत के जलवायु परिवर्तन कार्यों को पूरा करने के लिए कम से कम 2.5 ट्रिलियन डॉलर की आवश्यकता होगी। रिपोर्ट में भारत में जैव विविधता वित्त के सामने आने वाली चार प्रमुख समस्याओं को भी रेखांकित किया गया है। वाह्यता (एक्सटार्नली), खोज लागत (सर्च-कास्ट), सूचना-विषमता (इन्फोर्मेशन सिमेंट्री) और मापनीयता (स्कैलबिलिटी)। बाह्यता यानि वाणिज्यिक या व्यावसायिक इकाईयों द्वारा किए जाने वाले पर्यावरणीय नुकसान की भारपाई। खोज लागत का अर्थ उन परेशानियों से है जिसका सामना निवेशक निवेश करने के लिए जैव विविधता से संबंधित ढंग की परियोजनाओं की तलाश करते समय करते हैं। सूचना-विषमता यानि स्पष्टता की कमी जैसे कि कौन सी गतिविधियाँ ‘जैव-विविधता’ के लिए फायदेमंद’ हैं। मापनीयता यानि स्केलेबिलिटी जिसके तहत परियोजनाओं की लागत से संबंधित मुद्दों को देखा जाता है, क्योंकि बहुत कम परियोजनाएं 5 मिलियन डॉलर से अधिक की लगती हैं, जो बड़े संस्थागत निवेशकों के लिए बाधक होती हैं।
साल 2020 के दौरान किए गए एक अन्य अध्ययन में महाराष्ट्र में जैव-विविधता के लिए धन के स्रोतों के बारे में पाया गया कि भारत में जैव-विविधता की वित्तीय व्यस्था में स्पष्ट नीतियों और रोड-मैप का अभाव है। कई सरकारी संस्थान जैव-विविधता के बड़े कार्यक्रमों के साथ वित्तपोषण को निर्देशित करते हैं, लेकिन धन का सही उपयोग सुनिश्चित करने के लिए कोई समन्वय या व्यवस्थित ट्रैकिंग व्यवस्था नहीं है।
टेरी स्कूल ऑफ एडवांस स्टडीज की एक छात्रा, निवेदिता कृष्णमूर्ति, जैव-विविधता की अपनी जिला-स्तरीय परियोजना के वित्तपोषण के बारे में बताते हुए कहती हैं, “मैंने अन्य स्त्रोतों के बजाय केंद्र की दो योजनाओं के माध्यम से जैव विविधता-संरक्षण के लिए फंडिंग पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया। एक कृषि विभाग, जिसके पास सबसे अधिक जैव विविधता से संबंधित योजनाएं हैं। दूसरा ग्रामीण विकास विभाग, जिसने जैव-विविधता की परियोजनाओं में सबसे अधिक राशि का निवेश किया है।”
वह बताती हैं कि तथ्य यह है कि इन दोनों स्रोतों से जैव-विविधता संरक्षण पर भारी मात्रा में पैसा लगाया जाता है। और जैसा कि शायद वन विभाग से उम्मीद की जा सकती है, पर ऐसा नहीं है। ये दोनों स्रोत अच्छे हैं लेकिन उतने अच्छे नहीं है।
यह देखना उत्साहजनक है कि कृषि और ग्रामीण विकास दोनों के योजनाओं के दायरे में जैव-विविधता संरक्षण को शामिल किया गया है और इनकी गतिविधियों के सकारात्मक परिणाम हैं, जैसे कि जल संसाधनों में सुधार और ग्रामीण-आय में बढ़ोतरी। हालांकि, यह भी स्पष्ट है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) जैसी योजनाओं द्वारा वृक्षारोपण अभियान को बेहतर ढंग से प्रबंधित किया जा सकता है।
कृष्णमूर्ति कहती हैं, “इसके अलावा, जैव विविधता संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण परियोजनाओं को विभिन्न प्रकारों से बांटने के तरीके व्यक्तिपरक और अस्पष्ट हैं। इसके अलावा, यह मापना मुश्किल है कि क्या किसी परियोजना के मद में लगाए धन का वास्तव में सही ढंग से उपयोग किया जा रहा है या नहीं, यह अपने आप में एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है।”
आगे की राह
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (NIFPP) के जैव-विविधता वित्त पर एक वर्किंग पेपर के अनुसार, भारत में जैव-विविधता संरक्षण के वित्तीय अंतर को पाटने के लिए सतत विकास के लक्ष्यों को पाने की दिशा में केंद्र सरकार के उठाए गए कदम एक महत्वपूर्ण तरीका है। हालाँकि, भारत में जैव विविधता वित्त को अभी भी स्पष्ट नीतिगत तरीके से लागू करने और विभिन्न सरकारी विभागों के बीच बेहतर समन्वय की आवश्यकता है ताकि धन को व्यय करने के तरीके में बेहतर सुधार हो सके।
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जामिया मिलिया इस्लामिया के एक प्रोफेसर और जैव-विविधता के सहयोगी सदस्य नंदन नॉन का कहना है, “भारत में जैव विविधता के वित्त पर एकत्र की गई अधिकांश जानकारी वास्तव में जारी किए गए धन के बारे में है, न कि खर्च किए गए धन के बारे में। अक्सर दोनों में बहुत बड़ा अंतर होता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी ख़ास परियोजना के लिए कुछ धनराशि आवंटित की जाती है, लेकिन धनराशि जारी करने की स्वीकृति बहुत देर से आती है, इस स्थिति में पूरे फंड को दी गई समय सीमा के भीतर खर्च करना व्यावहारिक रूप से असंभव है। यदि उस धन को दी गई समय सीमा के भीतर, जिसे वित्तीय वर्ष कहा जाता है, खर्च नहीं किया जाता तो उस परियोजना के लिए धन अब उपलब्ध नहीं रहता है।”
नॉन का समूह वर्तमान में जैव-विविधता संरक्षण के उपायों पर वास्तविक व्यय का निर्धारण करने के लिए डेटा एकत्र करने में लगा हुआ है। यह डेटा यह समझने में बेहद सहायक होगा कि जैव विविधता संरक्षण के लिए कौन सी योजनाएं सबसे अच्छा काम करती हैं।
इन कदमों के अलावा, एनआईएफपीपी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सामाजिक क्षेत्र और विकास परियोजनाओं की मुख्य-धारा में जैव विविधता को जोड़ने साथ-साथ कॉर्पोरेट सामाजिक ज़िम्मेदारी योजनाओं के तहत फंड के रूप में भारत में जैव विविधता वित्त के लिए बहुत बड़ी संभावना है।
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बैनर तस्वीरः पेड़ों के भीतर छिपता हुआ हाथी। भारत की राष्ट्रीय जैव-विविधता कार्य योजना को लागू करने के लिए 12 अरब डॉलर वार्षिक का अनुमान लगाया गया है। तस्वीर- एस गोपीकृष्ण वारियर/मोंगाबे