- कर्नाटका के एक छोटे से गांव कोक्करेबेल्लूर में हर साल प्रवासी स्पॉट-बिल्ड पेलिकन और पेंटेड स्टॉर्क (जांघिल या ढोक) आते हैं। इन पक्षियों का यहां आना इंसानों और पक्षियों के सह-अस्तित्व का शानदार उदाहरण पेश करता है।
- कम्युनिटी रिजर्व का स्टेटस मिलने के बावजूद स्थानीय लोगों को डर है कि इन पक्षियों की संख्या कम हो सकती है। इनका मानना है कि शहरीकरण और अस्थिर मौसम की परिस्थितियों के चलते इन पक्षियों पर खतरा मंडरा रहा है।
- वन विभाग के प्रयासों और ग्रामीणों की ओर से गांव के कम्युनिटी रिजर्व का स्टेटस बचाए रखने की कोशिशों के बावजूद कई चुनौतियां सामने आ रही हैं। अब पक्षियों की बीट का खाद के रूप में इस्तेमाल करने जैसी पारंपरिक आदतें कम होती जा रही हैं और युवाओं में संरक्षण को लेकर रुचि न होने से तमाम समस्याएं सामने आ रही हैं।
दिसंबर का महीना है और कोक्करेबेल्लूर गांव में सुबह-सुबह चमकदार सूरज निकला होने के बावजूद ठंड अपने चरम पर है। साल 2017 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत कम्युनिटी रिजर्व घोषित किया गया यह छोटा सा गांव कोक्करेबेल्लूर या कोकरेबेल्लूर, इंसानों और जानवरों के सहअस्तित्व के लिए बहुत मशहूर है। कर्नाटका की राजधानी बेंगलुरु से लगभग 90 किलोमीटर दूर स्थित मद्दूर जिले के इस गांव में लगभग 1500 लोग रहते हैं।
कोक्करेबेल्लूर का अर्थ है ‘सफेद सारस का छोटा सा गांव’। यहां कोक्करे का मतलब है सफेद सारस और बेल्लूर का मतलब है गांव। हर साल यहां सैकड़ों स्पॉड-बिल्ड पेलिकन (Pelecanus philippenis) और रंग-बिरंगे सारस (Mycteria leucocephala) उड़कर गांव में आते हैं और पेड़ों के साथ-साथ पूरा आसमान रंगीन हो जाता है। ये पक्षी जोड़े बनाते हैं, घोंसले तैयार करते हैं, अंडे देते हैं और अपने बच्चों को पालते हैं।
इमली के पेड़ के बीच में से आती सूरज की किरणों के बीच से झांकते हुए वन रक्षक लोकेश पी कहते हैं, “मैंने 90 घोंसले गिने हैं, 180 पक्षी आ चुके हैं। अब ये फरवरी तक आते रहेंगे।” बता दें कि इन्हीं इमली के पेड़ों पर स्पॉट बिल्ड पेलिकन तेजी से अपना बसेरा बना रहे हैं। IUCN की रेड लिस्ट में ‘संकट के निकट’ श्रेणी में रखे गए इन पक्षियों की अनुमानित संख्या 20 हजार से भी कम है। 2006 के अनुमान के मुताबिक, इन प्रजातियों के प्रजनन करने वाले पक्षी भारत, श्रीलंका, कंबोडिया और संभवत: थाईलैंड जैसे चुनिंदा देशों तक ही सीमित हैं। इनकी जनसंख्या को लेकर किसी निश्चित स्टडी की कमी के चलते 2006 के अनुमान से ही पता चलता है कि भारत में इनकी संख्या लगभग 5 हजार थी और संरक्षण में इजाफा किए जाने के चलते इनकी संख्या बढ़ भी रही थी।
पंखों वाले पक्षियों पर बदलते मौसम की मार
लोकेश का दिन उन जगहों पर जाने के साथ शुरू होता है जहां ये पक्षी अपना घोंसला बना रहे होते हैं। लोकेश ऐसा इसलिए करते हैं जिससे पक्षियों की संख्या गिनी जा सके। उनके पास अपनी एक अलग ही कहानी है। लोकेश कहते हैं, “हर साल पक्षियों की संख्या कम होती जा रही है।” कोक्करेबेल्लूर के स्थानीय निवासी लोकेश पिछले 17 सालों से कर्नाटका के वन विभाग के साथ वन रक्षक के तौर पर काम कर रहे हैं। लोकेश समझ चुके हैं कि इन पक्षियों को सर्दियों में स्थिर मौसम चाहिए। हल्की बारिश या ज्यादा धूप से उनके घोंसले और अंडे सड़ जाते हैं। वह बताते हैं कि इस सीजन (अक्टूबर से मार्च के बीच) में 20 घोंसलों को उनमें रहने वाले पक्षियों ने छोड़ दिया था। इसमें से 13 में दोबारा पक्षी आ गए और घोसलों को फिर से बना लिया। लोकेश इसका कारण बताते हैं कि इस साल की सर्दियां थोड़ी गर्म रहीं और शुरुआत में कई बार बेमौसम बरसात भी हुई।
एक आम धारणा है कि पक्षियों की संख्या तेजी से कम हो रही है। वाइल्ड लाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया की PhD स्कॉलर अक्षिता महापात्रा इस धारणा को चुनौती देती हैं। अक्षिता ने इसी गांव में पांच साल तक पक्षियों के संसाधनों के बंटवारे का अध्ययन किया है। उनका कहना है कि ऐसे दावों को साबित करने के लिए पर्याप्त सर्वे करने और डेटा जुटाने की आवश्यकता है। वह कहती हैं, “बिना कई सालों के सतत डेटा के यह कहना सही नहीं है कि पक्षियों की संख्या कम हो रही है।”
अक्षिता के रिकॉर्ड के मुताबिक, हर साल औसतन 500 स्पॉट बिल्ड पेलिकन और 2000 रंगीन सारस कोक्करेबेल्लूर में आते हैं। साल 2023 में 400 पेलिकन और 2000 सारस आए वहीं, 2022 में 300 पेलिकन और 1500 सारस आए थे।
मौजूदा समय में इन पक्षियों के बारे में सूचना और उनके प्रवास के रूट को लेकर बेहद कम जानकारी है। अक्षिता महापात्रा की रिसर्च में दिलचस्प जानकारी सामने आई है। अक्षिता ने पिछले साल बचाए गए दो पेलिकन (एक वयस्क और एक नाबालिग) को टैग किया और इसी से समझ आया कि सामान्य तौर पर ये दोनों गांव के आसपास के 100 किलोमीटर दायरे में रहे जबकि आम धारणा यह है कि इनका बड़े स्तर पर विस्थापन होता है।
कई अन्य जलीय पक्षी जैसे कि ब्लैक क्राउन्ड नाइट हेरोन्स, लिटिल एग्रेट और लिटिल कोरमोरैंट्स भी कोक्करेबेल्लूर में घोंसले बनाते हैं लेकिन इनकी संख्या कम होती हैं। IUCN की रेड लिस्ट में शामिल रंगीन सारस को भी ‘संकट के निकट’ श्रेणी में रखा गया है और यह इकलौती ऐसी प्रजाति है जो यहां पर स्पॉट बिल्ड पेलिकन के आसपास घोंसला बनाते हैं। लोकेश कहते हैं, “पेलिकन बड़े पक्षी हैं। जब ये आसपास होते हैं तो अन्य छोटे पक्षी आसपास के पेड़ों पर घोंसला नहीं बनाते हैं। रंगीन सारस थोड़ा बाद में आते हैं जब मौसम थोड़ा गर्म हो चुका होता है और ये पेलिकन की तुलना में ज्यादा तापमान झेल सकते हैं।”
दो महीने बाद, फरवरी में लोकेश ने हमें फोन पर सूचना दी कि कोक्करेबेल्लूर में लगभग 1000 रंगीन सारस आ चुके हैं।
जिन पेड़ों पर पक्षियों के घोंसले संरक्षित किए जाते हैं, उनके आसपास भी नए पेड़ नहीं लगाए जा रहे हैं। ऐसे में यह चिंता का विषय है कि आने वाले समय में इन पक्षियों के लिए यहां अनुकूल माहौल नहीं रह जाएगा। कम बारिश के चलते पास के मांड्या जिले में मौजूद कृष्णा राज सागर डैम से गांव के टैंक में पानी की सप्लाई कम होती है जो कि मछली खाने वाले पेलिकन के जिंदा रहने के लिए बेहद जरूरी है। अक्षिता महापात्रा की रिसर्च के मुताबिक, इस गांव के आसपास 25 किलोमीटर के दायरे में 18 बड़े जलाशय मौजूद हैं। लोकेश के मुताबिक, गांव के आसपास बेंगलुरु-मैसूर हाइवे समेत कई अन्य निर्माण कार्यों के चलते पक्षियों का आना-जाना प्रभावित होता है। वह कहते हैं, “अगर यहां पर पर्याप्त पानी और खाना ही नहीं होगा तो वे पास की सैंक्चरी जैसे कि रंगनाथिट्टू में चले जाएंगे। फिर वे वहां नहीं आएंगे।”
शिकायत नहीं करते ग्रामीण; यहां गंभीर मुद्दा है संरक्षण
जैसे-जैसे मौसम अपने चरम पर पहुंचता है तो गांव में मौजूद इमली (Tamarindus india), गूलर (F. religiosa, F. bengalensis), बबूल (Acacia nilotica) और भारतीय टुलिप (Thespesia populnea) के पेड़ों पर पक्षियों को घोंसले लगाते देखा जा सकता है। छोटे पेड़ बड़े पक्षियों और उनके घोंसलों को संभाल नहीं सकते हैं। कई बार इन पक्षियों के बच्चे घोंसलों से गिर जाते हैं और उन्हें चोट लग जाती है। कई बार यह चोट काफी गंभीर भी होती है। गांववालों का पक्षियों के साथ यह पुराना संबंध ज्यादातर पक्षियों को बचा लेता है।
शोभा और उनके परिवार के चार सदस्य अपने घर के आसपास घोंसले लगा रहे पक्षियों पर लगातार नजर रखते हैं। घर के पास के पेड़ों से गिरने वाले पक्षियों और उनकी गंदगी से आने वाली तेज बदबू के बावजूद शोभा और उनके 13 साल के बेटे कौशिक की पक्षियों को बचाने की भूमिका पर कोई असर नहीं पड़ता है। शोभा कहती हैं, “अक्सर स्कूल से लौटने के बाद मेरा बेटा पक्षियों पर नजर रखता है। पेड़ों से गिरने वाले पक्षियों के बच्चों को बचाने के लिए जाल लगाए गए हैं। अगर इन जाल पर पक्षियों के बच्चे गिर जाते हैं तो वह उन्हें उठा लेता है और उन्हें ठीक करने की कोशिश करता है। हम लोकेश को फोन कर देते हैं।”
लोकेश का फोन अक्सर जागरूक ग्रामीणों के कॉल की वजह से बजता रहता है। ये लोग लोकेश को इन घटनाओं की सूचना देते हैं क्योंकि पेट्रोलिंग के दौरान कई बार लोकेश की नजर से ये पक्षी बच जाते हैं। घायल पक्षियों के लिए वन विभाग गांव में ही एक बाड़ा चलाता है। पिछले साल लोकेश ने 30 पेलिकन और रंगीन सारस को ठीक किया जो कि चोटिल हो गए थे। वह कहते हैं, “जो पक्षी ठीक हो जाते हैं और उनमें दोबारा उड़ पाने की ताकत आ जाती है, तो हम उन्हें छोड़ देते हैं।”
गांववालों का मानना है कि पक्षियों के साथ उनका संबंध कई सदियों से पारस्परिक रहा है। पुराने लोग बताते हैं कि साल 1917 में फैली प्लेग की बीमारी के चलते लोगों को शिम्शा नदी का किनारा खाली करना पड़ा था और ये लोग यहां आकर बस गए थे। आश्चर्यजनक तरीके से पक्षी भी यहीं चले आए जबकि यहां खाने-पीने की चीजें और जलाशय बहुत कम थे। हालांकि, इस मामले को अक्षिता महापात्रा बिल्कुल भी असामान्य नहीं मानती हैं। उनका कहना है कि अक्सर बड़े जलीय पक्षी अंडे देने के लिए इंसानी बस्तियों के आसपास रहते हैं ताकि उनके अंडे और बच्चे गिद्ध और चील जैसे बड़े पक्षियों से सुरक्षित रह सकें।
गांव के लोग इन पक्षियों को अपनी बेटियों की तरह मानते हैं जो हर साल अपने पैतृक घरों को लौट आते हैं और अपने बच्चों को जन्म देते हैं। लोकेश के मुताबिक, यही वजह है कि इनकी देखरेख करने को लोग अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। इनका यह भी मानना है कि पक्षियों की मौजूदगी अच्छी किस्मत लेकर आता है और उनका न आना बुरे वक्त को दावत देता है। नब्बे के दशक में इन पक्षियों की स्टडी करने के लिए यहीं रह चुके मैसूर के नेचुरलिस्ट मनु के. कहते हैं कि यह बात काफी हद तक सही भी है। वह उस समय को याद करते हैं जब राज्य सरकार ने गांव के आसपास के जलाशयों की डीसिल्टिंग करवाई थी। इसका नतीजा यह हुआ कि पानी की कमी हो गई और पेलिकन और सारस उस साल गांव से दूर ही रहे। इसके बाद सूखा पड़ा, गांव की खेती को बहुत नुकसान हुआ और इस सबके चलते दंगा भी हुआ। इसके बाद से गांववालों का भरोसा इन पक्षियों में और मजबूत हुआ और वे इन पक्षियों को अपने जंतर की तरह मानने लगे।
पक्षियों की बीट से फसलें उगा रहे हैं किसान
मनु ने उस समय हेजारले बालागा (पेलिकन के दोस्त) नाम से युवाओं का एक संगठन बनाया था जिसने गांव के लोगों में पक्षियों की सुरक्षा और पेड़ों से गिरने वाले पक्षियों के बच्चों को बचाने के प्रति जागरूकता और जिम्मेदारी का भाव पैदा किया था। अब यह संगठन लगभग खत्म हो चुका है। हेजारले बालागा ने पक्षियों को बचाया, घायल पक्षियों के लिए एक नर्सरी बनाई और गांव के स्कूलों में भी संरक्षण से जुड़े पाठ पढ़ाए।
हेजारले बालागा के इकलौते बचे सदस्य बी लिंगेगौड़ा ने साल 1994 में घायल पक्षियों के लिए एक नर्सरी बनाने के लिए अपनी 2500 वर्ग फीट जमीन दे दी। वह मौजूदा पीढ़ी के पक्षियों के प्रति रुझान में कमी को लेकर चिंता जताते हैं। वह कहते हैं, “बड़े पेड़ों की संख्या कम होने के चलते पक्षियों की संख्या कम हो गई है। अब भी ये पक्षी पुराने पेड़ों पर घोंसले लगाते हैं क्योंकि किसी ने नए पेड़ लगाए ही नहीं हैं।”
लोकेश याद करते हैं कि उनके पिता जो कि किसान थे, वह पक्षियों की बीट का इस्तेमाल खाद के तौर पर करते हैं। वह कहते हैं, “सभी किसान इसका इस्तेमाल करते थे और अब की तरह उस समय दुकान से खरीदी जाने वाली खादों पर निर्भरता बहुत कम हुआ करती थी।” इस खाद को गुआनो कहा जाता है और एस समय पर इसकी पौष्टिकता के चलते इसे सफेद सोना कहा जाता था। यह खाद मछली खाने वाले पक्षियों की बीट से बनती है और इसमें नाइट्रोजन और फॉस्फोरस भरपूर होती है। कोक्करेबेल्लूर के किसान उन पेड़ों के आसपास एक गड्ढा खोद देते हैं जिन पर पेलिकन और रंगीन सारस के घोंसले होते हैं। इन गड्ढों में पक्षियों की बीट के साथ-साथ झील की गाद लाकर डाल दी जाती है जिससे ये दोनों आपस में मिलकर अच्छी खाद तैयार करती हैं। समय के साथ-साथ यह परंपरा कम होती गई क्योंकि काम करने वाले लोग कम हो गए और मजदूरी के लिए ज्यादा पैसे देने पड़ते थे। वहीं, रासायनिक खाद सस्ती भी पड़ने लगी।
वन विभाग की ओर से पेड़ों और प्रवासी पक्षियों के संरक्षण का काम इस गांव में दो दशक पहले हुआ था। अब गांव के लोग उतने सक्रिय तरीके से पक्षियों को बचाने और उन्हें बसाने का काम नहीं करते हैं। हालांकि, वे वन विभाग का सहयोग करते हैं और आपात स्थितियों में आगे बढ़कर मदद करते हैं। साल 2017-18 परजीवी संक्रमण की वजह से 70 पेलिकन की मौत हो गई थी, उस समय भी लोगों ने वन विभाग की मदद की थी।
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संरक्षण के प्रयासों में स्थानीय लोगों को सम्मिलित करने और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए वन विभाग ने उन लोगों को मुआवजा देना शुरू किया है जिनके पास ऐसे बड़े पेड़ होते हैं जिन पर पक्षी घोंसले लगाते हैं। पक्षियों के आने के समय में ही इमली तैयार होती है ऐसे में इमली के बड़े पेड़ के मालिक को 3,000 रुपये सालाना का मुआवजा दिया जाता है। वहीं, गूलर के पेड़ वालों को 1,500 रुपये का मुआवजा दिया जाता है क्योंकि इसकी पत्तियां जानवरों के लिए चारे का भी काम करती हैं। लोकेश इसे समझाते हैं, “पक्षियों की बीट की वजह से पेड़ों की पत्तियां कड़ी हो जाती हैं और खाने लायक नहीं रह जाते हैं। ऐसे में किसानों को इस मौसम में कहीं और से चारे का जुगाड़ करना पड़ता है।” वहीं, अन्य पेड़ों जैसे कि इंडियन टूलिप पेड़ों के मालिकों को 750 रुपये का मुआवजा दिया जाता है।
वन विभाग गांव के उन लोगों को सौर ऊर्जा के कनेक्शन देकर उनकी सहायता करती है जिनके पास ये पेड़ होते हैं। इसके अलावा, गांव के चौराहों पर कंक्रीट के बेंच भी लगवाए जा रहे हैं। वह आगे कहते हैं, “हमने पेड़ों के बदले 71 घरों को मुआवजा दिया है। हमने सौर ऊर्जा कनेक्शन भी दिया है।” इसके अलावा, हम शोभा के परिवार की तरह उन परिवारों को मदद देने के बारे में सोच रहे हैं जिनके पास पेड़ नहीं हैं (और वे मुआवजे के योग्य नहीं होते हैं) लेकिन वे संरक्षण के प्रयासों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
कम्युनिटी रिजर्व का दर्जा मिले होने के बावजूद इस गांव में पर्यटन की रफ्तार नहीं बढ़ रही है। मनु याद करते हैं कि वन विभाग ने 90 के दशक में बेहतर सड़कों और मूलभूत ढांचों की शुरुआत की ताकि पर्यटकों को बुलाया जा सके। अब इस गांव में सिर्फ एक सूचना केंद्र है जो गांव के बीच में बसा हुआ है और यह लोगों को पक्षियों और गांववालों के साथ उनके संबंधों के बारे में बताता है।
हो सकता है कि यह सच न लगे लेकिन लोकेश इस गांव में जानवरों और इंसानों के सहअस्तित्व के बारे जैसा मजबूत तर्क देते हैं वह असंभव जैसा लगता है। वह कहते हैं, “आमतौर पर ये पक्षी मछली खाते हैं और इनसे फसलों को कोई नुकसान नहीं होता है। अगर इन पक्षियों ने इंसानों को आर्थिक नुकसान पहुंचाया होता तो उनकी मौजूदगी को इतने लंबे समय तक बर्दाश्त नहीं किया जाता।”
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बैनर तस्वीर: कर्नाटक के कोक्करेबेल्लूर गांव में एक लड़की ने अपने कपड़े सूखने को डाले हैं और पास के पेड़ों पर रंगीन सारस और पेलिकन ने अपने घोंसले बना रखे हैं। शिम्शा नदी के किनारे मौजूद इस गांव में हर साल औसतन 500 पेलिकन और 2000 रंगीन सारस आते हैं और घोंसला लगाते हैं। तस्वीर- अभिषेक एन. चिन्नप्पा/मोंगाबे।