- कश्मीर का क्रिकेट से गहरा नाता रहा है। इस क्षेत्र में 19वीं सदी से बल्ला बनाने का भरा-पूरा इतिहास रहा है और इस विधा का स्थानीय अर्थव्यवस्था और संस्कृति में अहम योगदान है।
- कश्मीर के बल्ला उद्योग को इसे बनाने के लिए असली लकड़ी की पहचान में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इससे गुणवत्ता को बनाए रखने में दिक्कत आती है। सीमित संसाधनों और लकड़ी की अलग-अलग किस्मों और प्रजातियों के इस्तेमाल ने अंतरराष्ट्रीय बाजार में यहां के बल्लों की प्रतिस्पर्धा को कम कर दिया है।
- बल्ला उद्योग से जुड़े लोग सरकार से हस्तक्षेप की मांग मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि जिस लकड़ी से बैट बनाया जाता है उसकी तस्करी रोकी जाए। अपर्याप्त वृक्षारोपण की समस्या दूर की जाए। साथ ही, बड़े पैमाने पर पौधारोपण के लिए सही भूमि की पहचान करना और मांग को बढ़ावा देने जैसी पहल उद्योग की स्थिरता और विकास के लिए अहम हैं।
भारत में क्रिकेट की शुरुआत एक सदी से भी पहले हुई थी। जैसे-जैसे देश में यह खेल लोकप्रिय होता गया, बल्ला उद्योग भी आगे बढ़ने लगा। अब, बल्ला बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाले कश्मीरी विलो में फिर से दिलचस्पी बढ़ रही है। हाल ही में क्रिकेट टूर्नामेंट में इसका इस्तेमाल किया गया है। मास्टर-ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर ने भी फरवरी में दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले के संगम इलाके में बल्ला बनाने वाले एक कारखाने का दौरा किया। उनके दौरे ने अपनी गुणवत्ता के लिए मशहूर कश्मीरी विलो और इससे बनने वाले बल्ले के बारे में चर्चाओं को फिर से हवा दे दी।
हालांकि, क्रिकेट बैट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन ऑफ कश्मीर के प्रवक्ता फवजुल कबीर के अनुसार यह स्थापित उद्योग कई चुनौतियों का सामना कर रहा है। उनके मुताबिक यह उद्योग सीधे और परोक्ष तौर पर डेढ़ लाख कश्मीरियों को रोजगार देता है। वे नीति बनाने वालों से इन चुनौतियों पर ध्यान देने की मांग करते हैं। सबसे बड़ा मसला बल्ले की गुणवत्ता है जो इस्तेमाल की जाने वाली लकड़ी में एकरूपता की कमी के चलते अलग-अलग हो सकती है। कश्मीर में बल्ला बनाने वालों और विलो उत्पादकों को अक्सर सही विलो की पहचान करने में मुश्किल आती है। सीमित संसाधनों के साथ, वे विलो की कुछ खास किस्मों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन उन्हें यह पता नहीं होत है कि वे बल्ले के लिए उपयुक्त हैं या नहीं। बल्ला बनाने के लिए हल्की, मजबूत लकड़ी की जरूरत होती है और जिससे गगनचुंबी शॉट लगाए जा सकें। इंग्लिश विलो बैट की तुलना में कश्मीरी विलो में मानकीकरण की कमी है। इससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी कीमत कम हो जाती है।
कश्मीरी विलो बैट और इंग्लिश विलो बैट दोनों ही एक ही विलो पेड़ सैलिक्स अल्बा से बनाए जाते हैं। वैसे तो यह पेड़ पूरी दुनिया में पाया जाता है, लेकिन इसे उगाने के लिए सबसे अच्छी जगहें कश्मीर और इंग्लैंड हैं। पेड़ के भौतिक गुण इस बात पर निर्भर करते हैं कि यह कहां स्थित है, क्योंकि बारिश, मिट्टी के पोषक तत्व और नमी जैसे भौतिक पर्यावरणीय कारकों में अंतर होता है।
बल्ला बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाने पर पेड़ की गुणवत्ता का आकलन उसके वजन, शॉक को कम करने की क्षमता, ताकत, सीधे दाने होने और आसानी से नहीं टूटने के आधार पर किया जाता है। कैरुलिया या ‘क्रिकेट बैट विलो‘, सैलिक्स अल्बा की एक किस्म है और यह क्रिकेट बैट के लिए सबसे बेहतरीन है। कश्मीरी शोधकर्ताओं ने पाया है कि कश्मीर में उगाए जाने वाले कैरुलिया के गुणों की तुलना करने पर यह ब्रिटेन में उगाए जाने वाले कैरुलिया के बराबर है। हालांकि, ब्रिटेन में मानकीकृत लकड़ी के साथ उद्योग ज्यादा संगठित है और इसलिए इसकी गुणवत्ता की ज्यादा गारंटी होती है।
कश्मीर में विलो की अन्य किस्मों या प्रजातियों से कैरुलिया को अलग करने के बारे में कम जागरूकता की वजह से कश्मीर में बल्ला बनाने वाले कभी-कभी ऐसे विलो का इस्तेमाल करते हैं जिसमें बल्ला बनाने के लिए जरूरी गुण नहीं होते हैं।
इस मसले को सुलझाने करने के लिए शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (SKUAST-कश्मीर) में वानिकी संकाय ने 2021 में किसानों और स्थानीय बल्ला बनाने वालों को असली क्रिकेट बैट विलो (सैलिक्स अल्बा वर कैरुलिया) की पहचान करने और जागरूकता बढ़ाने में मदद के लिए एक परियोजना शुरू की।
ऐतिहासिक जड़ें और गुणवत्ता संबंधी चिंताएं
विलो ऐसे पेड़ या झाड़ियां होती हैं जिन्हें भरपूर रोशनी की जरूरत होती है और ये गीली मिट्टी की स्थितियों में पनपते हैं। काट कर आसानी से लगाए जा सकने वाले विलो को किसी उर्वरक की ज़रूरत नहीं होती। ये खराब और कमजोर मिट्टी में भी उर्वरता पैदा करते हैं और वन्यजीवों, ख़ास तौर पर पक्षियों और कीड़ों के लिए बहुत अहम होते हैं।
कश्मीर में विलो को “वीर” के नाम से जाना जाता है। यहां इसकी 23 अलग-अलग प्रजातियां हैं। विलो के पेड़ अलग-अलग ज़रूरतों को पूरा करते हैं, जिनमें कागज़ उत्पादन, फ़र्नीचर क्राफ्टिंग, जलावन और सबसे खास क्रिकेट का बल्ला बनाना है।
कश्मीर में बल्ला बनाने का इतिहास 19वीं सदी से शुरू होता है। तब सियालकोट (अब पाकिस्तान का हिस्सा) के उद्योगपति अल्लाह बख्श ने बिजबेहरा के हलमुल्ला में बल्ला बनाने का कारखाना लगाया था। शुरुआती मांग इस क्षेत्र में तैनात ब्रिटिश सेना के अधिकारियों की ओर से आई थी, जिनके पास इंग्लैंड से आयातित तकनीकी जानकारी थी। स्थानीय लकड़ी पर आधारित इस उद्योग का विस्तार कश्मीर घाटी में सैकड़ों विनिर्माण इकाइयां लगने के साथ हुआ, खासकर अनंतनाग और पुलवामा जिलों में।
साल 2014 में एक शोधपत्र में बताया गया था कि कश्मीर में बल्ला बनाने वाली करीब 195 इकाइयां हैं। इनमें हर साल 15 लाख बल्ले बनाने की क्षमता है। साल 2025 तक दुनिया भर में इनकी मांग चालीस लाख तक पहुंचने का अनुमान है। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट टूर्नामेंटों में इस्तेमाल किए जाने के बाद कश्मीर में बनाए गए बल्लों की मांग में उछाल देखा गया है।
कबीर ने बताया कि एक दशक पहले कश्मीर में सालाना ढाई लाख बल्ले बनाए जाते थे। फिलहाल कश्मीर में सालाना तीस लाख बल्ले बनते हैं। यह एक दशक में पंद्रह गुना बढ़ोतरी को दिखाता है।
फ़वजुल कबीर ने कहा, “हमारी कंपनी अब हर महीने करीब तीन हजार बल्ले बनाती है। 2021 में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (ICC) से प्रमाणन प्राप्त करने वाली कश्मीर की पहली कंपनी बनने के बाद, हमने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कश्मीरी बल्लों को प्रदर्शित किया है। इन बल्लों का इस्तेमाल भारत की मेजबानी में आयोजित पुरुष क्रिकेट विश्व कप 2023 में किया गया था। अफगानिस्तान की टीम ने भी कश्मीरी विलो का इस्तेमाल किया था। तब से मांग बढ़ी है। कश्मीर ने 2021 में पैंतीस हजार, 2022 में एक लाख पैंतीस हजार और 2023 में एक लाख पंचानवे हजार बल्ले निर्यात किए।”
वानिकी संकाय में प्रोफेसर और प्रमुख परवेज अहमद सोफी ने कहा, “हालांकि, बेहतर बाजार के बावजूद कश्मीरी बल्ले राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अच्छी कीमत पाने के लिए संघर्ष करते हैं। एक बल्ले के लिए ज्यादा से ज़्यादा 1,000 रुपये से 3,000 रुपये ($18.5 से $55.5) तक मिलते हैं। वहीं, दुनिया भर में इंग्लिश विलो के एक बल्ले की कीमत $220 से $450 है।”
सोफी कहते हैं, “मुख्य समस्या बल्ले की गुणवत्ता है, क्योंकि कश्मीर में असली विलो से बने बल्ले की पहचान हमेशा से धुंधली रही है। संसाधनों की कमी के कारण बल्ला बनाने वाले पक्के तौर पर बल्ले विलो का इस्तेमाल कर रहे हैं।” वे बल्ले के लिए विलो के चयन के बारे में अनिश्चितता का जिक्र करते हैं, क्योंकि सबसे सही प्रजातियों की पहचान करने को लेकर कम जागरूकता है। वे कहते हैं, “क्रिकेट बैट बनाने के लिए विलो या यहां तक कि चिनार की अलग-अलग (अनुपयुक्त) प्रजातियों के इस्तेमाल ने जागरूकता की कमी के कारण कश्मीर में स्थापित क्रिकेट बैट उद्योग को बदनाम कर दिया है। उच्च गुणवत्ता वाले कच्चे माल की कमी ने औद्योगिक चिंताओं को बढ़ा दिया है और देश की क्षेत्रीय सीमाओं से परे क्रिकेट बैट के बड़े पैमाने पर मार्केटिंग का अवसर सीमित कर दिया है।”
विलो की गुणवत्ता को बेहतर बनाना
जम्मू और कश्मीर सरकार से वित्तीय सहायता प्राप्त करके, SKUAST कश्मीर में वानिकी संकाय ने 2021 में पूरे कश्मीर क्षेत्र में विलो प्रजाति की पहचान करने के लिए व्यापक सर्वेक्षण किया जो बल्ला बनाने के लिए सबसे सही है। कैरुलिया की सैलिक्स अल्बा किस्म को बल्ला बनाने के लिए सबसे सही किस्म के रूप में पहचाना गया है। अधिकारियों की ओर से साझा किए गए क्षेत्रों के अनुसार, पूरे कश्मीर में पहचाने गए विलो उगाने वाले अहम इलाकों में पुलवामा, गंदेरबल का शालेबुग क्षेत्र और सोपोर शामिल थे।
सोफी ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “आनुवांशिक रूप से बेहतर जर्मप्लाज्म को वैज्ञानिक तौर पर बढ़ाया गया और पहचाने गए सैलिक्स अल्बा से लकड़ी के नमूने एकत्र किए गए। केरुलिया (क्रिकेट बैट विलो) को भी एकत्र किया गया और अलग-अलग लकड़ी के गुणों के लिए इंस्टीट्यूट ऑफ वुड साइंस एंड टेक्नोलॉजी, बेंगलुरु (IWST) में परीक्षण किया गया। प्रचारित सामग्री/जर्मप्लाज्म को आगे और बढ़ाने के लिए संबंधित हितधारकों (बल्ला बनाने वाली इकाइयां) के बीच बांटा गया। इसके अलावा, IWST में परीक्षण किए गए नमूनों ने भी इस कश्मीरी बैट विलो की लकड़ी के गुणों को अंग्रेजी विलो के बराबर दिखाया। “ यह इस दावे का सबूत है कि कश्मीरी विलो बैट अंग्रेजी विलो बैट जितना ही अच्छा है।
वानिकी संकाय की ओर से उपलब्ध कराए गए आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, संबंधित हितधारकों के बीच पांच हजार से ज्यादा गुणवत्ता वाले पौधों की सामग्री बांटी गई। सोफी ने कहा, “उगाई गई इस किस्म के सबसे अच्छे क्लोन का जर्मप्लाज्म पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है, जिससे पर्याप्त गुणवत्ता वाले कच्चे माल की आपूर्ति हो सके। इसके अलावा, इस किस्म के बागानों को गहन प्रबंधन के तहत नहीं उगाया जाता है, इसलिए हमेशा सुधार और पहचान खत्म होने संभावना बनी रहती है।”
वैज्ञानिक ने बताया कि सैलिक्स अल्बा के बागानों को किसी भी वैज्ञानिक तौर पर तय फसल समय-सीमा का पालन किए बिना अंधाधुंध तरीके से उगाया और प्रबंधित किया जाता है। सोफी ने कहा, “इस तरह, मिलने वाली लकड़ी की गुणवत्ता घटिया होती है, जिससे क्लेफ्ट की लागत कम हो जाती है। इसके अलावा, क्रिकेट बैट विलो के बागानों को बढ़ावा देने के लिए किसानों को प्रोत्साहन, जैसे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य, इनपुट सब्सिडी वगैरह नहीं दी जाती है।”
अनंतनाग जिले के सेथर गांव के 50 साल के स्थानीय उत्पादक फिरोज अहमद रेशी ने बताया कि पेंसिल और प्लाईवुड उद्योगों के उदय के साथ ही चिनार के पेड़ों की लोकप्रियता में भी उछाल आया। विलो पेड़ों की तुलना में बहुत तेजी से परिपक्व होने वाले चिनार के पेड़ स्थानीय उत्पादकों के लिए पसंदीदा विकल्प बन गए। इस बदलाव के कारण चिनार के बागान बहुत हो गए, जिससे विलो के पेड़ खेतों की मेड़ तक सिमट गए। रेशी ने बताया, “असली क्रिकेट बैट विलो (कैरुलिया) के पौधों को परिपक्व होने में लगभग 10 से 12 साल लगते हैं, जबकि सैलिक्स अल्बा की अन्य किस्मों के लिए 20 से 25 साल लगते हैं। अगर वे सफलतापूर्वक बढ़ते हैं, तो फायदा अच्छा होगा और लकड़ी अंतरराष्ट्रीय गुणवत्ता वाला बल्ला बनाने के लिए उपयुक्त होगी।”
रेशी ने दो कनाल (एक कनाल 0.125 एकड़ का होता है) जमीन पर कैरुलिया के लगभग 50 पौधे लगाए हैं। उन्होंने कहा, “अब तक, हमने देखा है कि इन पौधों की वृद्धि दर सामान्य विलो (कैरुलिया किस्म के अलावा) की तुलना में तीन गुना तेज है। इसके अलावा, शाखाओं के आड़ा-तिरछा बढ़ने की बजाय सीधे लंबवत बढ़ने की उम्मीद है, जिससे एक ही जगह पर ज्यादा पेड़ लगाए जा सकेंगे। जहां हम एक कनाल में 30 पेड़ लगाते थे, अब हम 50 लगा सकते हैं। अगर सफल रहे, तो इससे हमारी उपज 50% तक बढ़ जाएगी।”
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उन्होंने बताया कि इंग्लैंड में विलो के एक पेड़ की कीमत पांच से दस लाख रुपये तक हो सकती है। रेशी ने कहा, “फिलहाल, कोई पारंपरिक कश्मीरी विलो पेड़ पचास हजार से सत्तर हजार रुपये या सात सौ से आठ सौ प्रति क्यूबिक फीट बिकता है। अगले पांच सालों में, अगर असली क्रिकेट बैट विलो सफल होता है, तो इसकी कीमत लगभग दो लाख रुपये तक पहुंच सकती है। इससे ज्यादा से ज्यादा उत्पादक विलो की खेती करने के लिए प्रोत्साहित होंगे। विलो की खेती को बढ़ावा देने के लिए ज़्यादा पौधे और प्रोत्साहन उपलब्ध कराने में सरकारी मदद की ज़रूरत है।”
सरकारी हस्तक्षेप की जरूरत
जीआर8 स्पोर्ट्स के मालिक फवजुल कबीर ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि एक सदी से भी ज़्यादा समय से यह उद्योग कश्मीर का अभिन्न अंग रहा है। “हालांकि, पिछले 30 सालों में सरकारी जमीन पर विलो के पेड़ बड़े पैमाने पर नहीं लगाए गए हैं, जिसके चलते आपूर्ति कम हो रही है। इसके अलावा, कई लोग जो विलो उगाते थे, उन्होंने पेंसिल और प्लाईवुड उद्योगों में इसकी बढ़ती मांग के कारण पोपलर उगाना शुरू कर दिया है। पोपलर लगभग 7 से 12 साल में परिपक्व होता है, जबकि विलो का पेड़ लगभग 20 से 25 साल लेता है। विलो के पेड़ों की तुलना में पोपलर के पेड़ों पर फायदा भी बेहतर है।”
उन्होंने तस्करी से जुड़े मुद्दे पर बात की और कहा, “कश्मीर के बाहर विलो क्लेफ्ट की तस्करी का मुद्दा है। ऐसे निर्यात पर प्रतिबंध लगाने वाले मौजूदा कानूनों के बावजूद, तस्करों और अधिकारियों के बीच मिलीभगत से अवैध व्यापार को बढ़ावा मिलता है, जिससे स्थानीय आपूर्ति में भारी कमी आती है। इससे ना सिर्फ स्थानीय उद्योग को खतरा है, बल्कि इस पर निर्भर हजारों लोगों की आजीविका भी संकट में है।”
इस समस्या से निपटने के लिए साल 2001 में सख्त नियम लागू किए गए, जिसके तहत विलो प्रसंस्करण कश्मीर के भीतर ही किया जाना अनिवार्य किया गया, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था सुरक्षित हो सके। कबीर ने कहा, “फिर भी, तस्करी बेरोकटोक जारी है, जिसमें हर महीने 60 से 65 ट्रकों की संख्या चिंताजनक है, जो 180,000 से 220,000 विलो के टुकड़ों को चोरी-छिपे ले जा रहे हैं। यह अवैध व्यापार विलो के खेतों के शोषण को बढ़ावा देता है और कश्मीर में विलो के पेड़ों के धीरे-धीरे खत्म होने में योगदान देता है।”
कबीर ने कहा कि SKUAST-कश्मीर के वैज्ञानिकों ने इस बात पर जोर दिया है कि बेहतर किस्म पारंपरिक विलो किस्मों की तुलना में कम समय में नतीजे दे सकती है। उन्होंने कहा, “अगर ऐसा होता है, तो यह अपने आप लोकप्रिय हो जाएगा और हम देखेंगे कि इसकी खेती के तहत ज्यादा रकाब आ जाएगा। साथ ही, हमारे पास पेड़ों की सालाना मांग सत्तर हजार है, जो सिर्फ बल्ला बनाने वालों की जरूरतों को पूरा करने के लिए है। तस्करी वाले हिस्से को छोड़कर, यह दो लाख पेड़ों के बराबर है। इस प्रकार, पौधों का मौजूदा वितरण किसी भी अहम प्रभाव को बनाने में बहुत कम है। जबकि हम आदर्श किस्म की पहचान से खुश हैं, सरकार को पौधों की संख्या बढ़ानी चाहिए और व्यापक वृक्षारोपण अभियान शुरू करना चाहिए।“
कबीर ने बताया कि सरकार के लिए बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण के लिए सही जमीन की पहचान करना अहम है। उन्होंने कहा, “हमारे पास कश्मीर में 9,150 हेक्टेयर आर्द्रभूमि उपलब्ध है। सरकार को खेती के लिए उन आर्द्रभूमि का इस्तेमाल करना चाहिए। मान लीजिए कि इन चिन्हित क्षेत्रों में बेहतरीन क्रिकेट विलो उगाया जाता है। उस स्थिति में, यह ना सिर्फ विलो की नियमित आपूर्ति की गारंटी देगा बल्कि यह भी पक्का करेगा कि प्रसंस्करण के बाद उत्पादित विलो क्लेफ्ट अंतरराष्ट्रीय मानकों को पूरा करते हैं, जिससे बल्ला बनाने वालों को अपने उत्पादों को अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचने के लिए जरूरी बढ़ावा मिलेगा।”
सोफी ने जोर देकर कहा, “हमने सरकार को सुझाव दिए हैं, जिसमें विलो के बागानों के लिए भूमि आवंटन का आग्रह किया गया है, खास तौर पर विलो के विकास के लिए अनुकूल नमी वाली स्थितियों में। निर्यात प्रोत्साहन योजनाओं, मांग बढ़ाने और खराब प्रदर्शन करने वाली इकाइयों में जान डालने की जरूरत है, जिन्हें प्राथमिकता के आधार पर सरकारी एजेंसियों द्वारा प्रबंधित किया जाना चाहिए और उनकी निगरानी की जानी चाहिए।“
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 5 जून 2024 प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण के लिए सही जमीन की पहचान करना और मांग को बढ़ावा देने जैसी पहलें कश्मीर के बल्ला उद्योग को बनाए रखने और इसके विकास के लिए अहम हैं। तस्वीर सौजन्य: फवजुल कबीर।