- एक नए आपदा जोखिम सूचकांक में पाया गया है कि मध्य केरल का आठ फीसदी हिस्सा “उच्च” या “बहुत उच्च” आपदा जोखिम वाले क्षेत्र में आता है।
- अध्ययन में आपदा जोखिम बीमा को बढ़ाने का सुझाव दिया गया है ताकि लोग और व्यवसाय आपदा के बाद अपनी जिंदगी को फिर से पटरी पर ला सकें।
- शोधकर्ताओं ने 12 प्रमुख संकेतकों पर भरोसा किया और सूचकांक को तैयार करने के लिए जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) के नए फ्रेमवर्क का सहारा लिया है।
मध्य केरल के तट पर आपदा जोखिम का आकलन करने वाले एक नए अध्ययन में कहा गया है कि तटीय सुरक्षा, जल निकासी में सुधार और प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली जैसे उपायों के अलावा, घरों के बीमा को बढ़ावा देना “व्यक्तियों और व्यवसायों को आर्थिक सुरक्षा और सहायता दे सकता है। लोगों को आपदा के बाद उबरने और अपने जीवन को फिर से पटरी पर लाने में इससे खासी मदद मिलेगी।”
केरल का तट तटीय कटाव, चक्रवात और तूफानी लहरों सहित कई खतरों के प्रति संवेदनशील है। इस साल मार्च में, अलाप्पुझा, तिरुवनंतपुरम, कोल्लम और त्रिशूर जिलों में कई घर और सड़कें तेज लहरों और तेज हवाओं के कारण जलमग्न हो गई, जिससे इन क्षेत्रों को हाई अलर्ट पर रखा गया है।
पिछले महीने नेचुरल हैजर्ड्स जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र में अलाप्पुझा, एर्नाकुलम और त्रिशूर जिलों के तटों के साथ 190 किलोमीटर लंबे क्षेत्र के जोखिम प्रोफाइल का आकलन किया गया। यह क्षेत्र “बंदरगाहों, समुद्री व्यापार और पर्यटन के विस्तार से प्रेरित सबसे तेजी से बढ़ते क्षेत्रों में से एक है।” केरल के मध्य तट को इसलिए भी चुना गया क्योंकि यहां उत्तर और दक्षिण की तुलना में सबसे ज्यादा खतरनाक घटनाएं होती हैं, हर 10 किलोमीटर के हिस्से पर 12 ऐसे मामले हैं।
अध्ययन में पाया गया कि पुन्नपरा (अलपुझा जिला), अंबलप्पुझा (अलपुझा), चेल्लानम (एर्नाकुलम) और कुझुपिल्ली (एर्नाकुलम) बहुत “उच्च जोखिम वाले क्षेत्र हैं। उच्च जनसंख्या घनत्व, उच्च निर्मित क्षेत्र, समुद्र के जलस्तर का अचानक से बढ़ना, और ज्यादा वर्षा जैसे कारक इन क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं।”
समाचार रिपोर्टों के अनुसार 2018 और 2019 में राज्य में आई बाढ़ ने लगभग सात लाख घरों को नुकसान पहुंचाया था। इनके पुनर्निर्माण पर सरकार को लगभग 1,800 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े थे, जबकि बीमा दावों की राशि लगभग 1,000 करोड़ रुपये के आसपास ही थी। तब विशेषज्ञों ने कहा था कि राज्य में बीमा की पहुंच बहुत कम लोगों के पास है। सरकार द्वारा घरों के पुनर्निर्माण के लिए भुगतान की गई राशि, आवास और बस्तियों को हुए कुल 6,410 करोड़ रुपये (64 अरब रुपये) के नुकसान और क्षति का केवल एक छोटा सा हिस्सा थी।

जोखिम सूचकांक में संवेदनशीलता और जोखिम
शोधकर्ताओं ने जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC) द्वारा पेश किए गए नए फ्रेमवर्क का इस्तेमाल करके एक आपदा जोखिम सूचकांक बनाया। यह सूचकांक तीन कारकों खतरा, संवेदनशीलता और जोखिम को एक साथ मिलाकर किसी क्षेत्र में आपदा के जोखिम का आकलन करते हैं। इसमें खतरे को उन घटनाओं के रूप में परिभाषित किया गया है जो जान-माल का नुकसान, स्वास्थ्य पर बुरा असर, और पर्यावरण को नुकसान पहुंचा सकते हैं। तो वहीं संवेदनशीलता को सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय कारकों के रूप में परिभाषित किया गया है. यह बताता है कि किसी क्षेत्र या समूह के लोग किसी खतरे के प्रभावों का सामना करने के लिए कितने संवेदनशील हैं। तो जोखिम को लोगों, आजीविका, बुनियादी ढांचे, पारिस्थितिक तंत्र और संपत्तियों के रूप में परिभाषित किया गया है जो प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो सकते हैं।
केरल यूनिवर्सिटी ऑफ फिशरीज एंड ओशन स्टडीज में पीएचडी कर रहे पेपर के सह-लेखक संजय बालचंद्रन ने कहा, “जोखिम का आकलन करने के लिए इस तरह के फ्रेमवर्क का इस्तेमाल करने का फायदा यह है कि यह न सिर्फ संभावित खतरों को देखता है, बल्कि संभावित प्रतिकूल प्रभावों और नुकसानों को भी दर्शाता है। इसलिए यह सिर्फ किसी खतरे के होने की संभावना या किसी क्षेत्र की संवेदनशीलता को देखने की तुलना में अधिक समग्र तस्वीर सामने रखता है।”
सूचकांक तैयार करने के लिए अध्ययन में तीनों श्रेणियों को शामिल करने वाले बारह तरह के संकेतकों इस्तेमाल किया गया था। इनमें तटरेखा में बदलाव की दर, चक्रवाती तुफानों के रास्तों से निकटता, तूफानी लहरों की ऊंचाई, समुद्री लहरों की घटनाओं की संख्या, वर्षा की तीव्रता, समुद्र जलस्तर में वृद्धि, जनसंख्या घनत्व और भूमि उपयोग और आवरण, ऊंचाई, ढलान, समुद्री लहरों की औसत ऊंचाई और जल निकासी प्रणाली शामिल थे।

परिणाम बताते हैं कि अध्ययन क्षेत्र का आठ फीसदी हिस्सा “उच्च” और “बहुत उच्च” जोखिम वाले क्षेत्रों में आता है, जबकि बाकी मध्यम, निम्न और बहुत कम जोखिम वाले क्षेत्र हैं। उदाहरण के लिए, एर्नाकुलम के कुझुपिल्ली को “उच्च कटाव, बहुत अधिक आबादी, इसके प्रमुख भूभाग पर निर्मित इमारतें और हल्की ढलानों के कारण उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में गिना गया है।”
पेपर कहता है, “एर्नाकुलम का आधे से ज्यादा हिस्सा, अलपुझा का दक्षिणी हिस्सा और दक्षिणी त्रिशूर के कुछ हिस्से मध्यम जोखिम वाले क्षेत्र में आते हैं। इसका मतलब है कि इन क्षेत्रों में आपदा आने की संभावना तो है, लेकिन “उच्च” या “बहुत उच्च” जोखिम वाले क्षेत्रों की तुलना में यहां जोखिम कम है। लेकिन यह क्षेत्र आपदा के खतरे से बाहर नहीं है और भविष्य में यहां प्रतिकूल घटनाएं हो सकती हैं।”
संजय बालचंद्रन ने कहा, “हमने अपना विश्लेषण केवल केरल के मध्य तट तक ही सीमित रखा है क्योंकि यह एक नया तरीका है। हमें इस बात की जानकारी नहीं है कि केरल में जोखिम का आकलन करने के लिए इस तरह के सूचकांक का उपयोग पहले कभी किया गया है। फिलहाल इसे केरल के पूरे तटरेखा के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।”
तटों को बचाने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे तरीके ही बने समस्या
भारतीय तट पर तटरेखा परिवर्तन के राष्ट्रीय आकलन के अनुसार, 1991 से 2016 तक केरल के लगभग 45% तटों का क्षरण हुआ है। राष्ट्रीय पृथ्वी विज्ञान अध्ययन केंद्र (NCESS) के पूर्व वैज्ञानिक के.वी. थॉमस का कहना है कि तटों के क्षरण का एक बड़ा कारण रेत खनन और ज्वारीय प्रवेश द्वारों (जो समुद्र को लैगून से जोड़ते हैं) पर बंदरगाह बनाने की गतिविधियां हैं। उन्होंने कहा, “बंदरगाह निर्माण और रेत खनन से ज्वारीय प्रवेश द्वार की गतिशीलता बदल जाती है, जिससे तटों का अस्थिर होना शुरू हो जाता है और समुद्र तट खत्म होने लगते हैं।” उन्होंने आगे कहा, “क्षरण से निपटने के लिए हमने समुद्री दीवारें बनाना शुरू कर दिया, लेकिन इन दीवारों से तलछट की गतिशीलता बदल गई, जिससे समस्या और बढ़ गई।”
केरल को तटों के क्षरण के अलावा, समुद्री जल स्तर में वृद्धि, तूफानी लहरें, चक्रवात और भारी बारिश से भी खतरा है। कटाव और अन्य आपदाओं से बचाव के लिए तटरेखा के कम से कम 310 किलोमीटर हिस्से पर समुद्री दीवारें बनाई गई हैं, लेकिन लंबे समय में ये दीवारें अप्रभावी साबित हुई हैं।
शोध पत्र में कहा गया है, “जोखिम को कम करने का सबसे अच्छा तरीका है कि निचले इलाकों या बाढ़ वाले क्षेत्रों में इमारतों और अन्य संपत्तियों के विकास को कम किया जाए या फिर पूरी तरह से रोक दिया जाए। बायो-शील्ड वृक्षारोपण, समुद्र तटों को मजबूत बनाना और रेत के टीलों का पुनर्स्थापन/संरक्षण जैसी सॉफ्ट इंजीनियरिंग तटीय सुरक्षा तकनीकों को लागू करने से तटीय क्षेत्रों पर ऊंची लहरों और कटाव के प्रभाव को कम किया जा सकता है।”

शोध पत्र में आपदाओं के बाद आर्थिक सहायता देने के लिए बीमा का उपयोग करने का सुझाव दिया गया है। अध्ययन के मुताबिक, बीमा का किफायती होना एक चुनौती है क्योंकि “ज़्यादातर बीमा उत्पाद अमीर और मध्यम वर्ग के उपभोक्ताओं के लिए बनाए गए हैं, जिससे कम आय वाले घरों के लिए कवरेज में एक बड़ा अंतर रह जाता है।” इसलिए शोधकर्ता इस अंतर को पाटने के लिए सार्वजनिक जागरूकता बढ़ाने और “उचित प्रीमियम वाले किफायती और अनुरूप बीमा उत्पाद” बनाने की सलाह देते हैं।
केरल सरकार ने अपनी 2022-2027 की पंचवर्षीय योजना में बीमा कंपनियों के साथ मिलकर काम करने की योजना बनाई है ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग अपने घरों का आपदा बीमा करवा सकें।
केरल सरकार अपनी चौदहवीं पंचवर्षीय योजना (2022-2027) में आपदा गृह बीमा के उपयोग को बढ़ाने में मदद करने के लिए बीमा कंपनियों के साथ सहयोग करने पर विचार कर रही है। 2021 में गठित एक रिस्क ट्रांसफर मैकेनिज्म कमेटी ने सुझाव दिया कि सरकार को बीमा प्रणाली को बेहतर बनाने के लिए एक नया नियामक निकाय बनाना चाहिए।
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हालांकि, सभी विशेषज्ञ इस बात से सहमत नहीं हैं कि आपदा की स्थिति में बीमा सबसे बेहतर उपाय साबित होगा। थॉमस कहते हैं, “मछुआरे समुदाय तटों और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के रक्षक हैं। वे कटाव जैसी समस्याओं के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। लेकिन अन्य समुदाय आवासीय क्षेत्र और पर्यटन के लिए इस भूमि का अधिग्रहण कर रहे हैं। बीमा इन व्यवसायी लोगों के लिए उपयोगी हो सकता है जो इसे वहन कर सकते हैं और पहले से ही भूमि अधिग्रहण के लिए निवेश कर रहे हैं। लेकिन मछुआरे समुदाय के मामले में, यह राज्य और उन लोगों का कर्तव्य बना जाता है, क्योंकि उन्होंने ही समुद्र तट को नुकसान पहुंचाया है, इसलिए आपदा आने पर सुरक्षा और सहायता का दायित्व भी उन्हीं का होना चाहिए।”
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 10 मई 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: केरल का एक समुद्र तट। तस्वीर– पीडीपीक्स/विकिमीडिया कॉमन्स