- एक नई रिपोर्ट के मुताबिक भीषण गर्मी के दुष्प्रभावों को कम करने के उपाय बार-बार पड़ने वाली बहुत तेज गर्मी की लंबी अवधि के अनुरूप नहीं हैं।
- यह अध्ययन गर्मी की समस्या से जूझ रहे शहरों में भविष्य में इससे निपटने के उपायों पर किया गया। इसमें पाया गया कि गर्मी के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए लंबी अवधि के उपाय तब बेअसर रहे, जब उनके लिए अलग-अलग विभागों के बीच बेहतर तालमेल की जरूरत थी।
- अलग-अलग विभागों के अधिकारियों के साथ ही जिला और नगरपालिका के प्रशासनिक प्रमुखों के साथ बातचीत से पता चला कि गर्मी से निपटने के लिए सबसे आम उपाय “प्रतिक्रिया (किसी घटना के बाद उठाए जाने वाले कदम) वाले उपाय” थे।
भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) का पूर्वानुमान है कि इस साल गर्मियों में देश के ज्यादातर हिस्सों में तापमान सामान्य से अधिक रहेगा। दिन और रात में ज्यादा तापमान के अलावा, इस साल अधिकांश इलाकों में लू वाले दिन भी अधिक देखने को मिलेंगे।
कई जगहों पर मार्च के मध्य तक सामान्य से ज्यादा तापमान दर्ज किया गया था। ओडिशा के बौध और झारसुगुड़ा में महीने की शुरुआत में ही तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। वहीं, मध्य प्रदेश, गुजरात और तेलंगाना के इलाकों में भी तापमान सामान्य से बहुत अधिक रहा। आईएमडी के अनुमानों में लगातार गंभीर होती चिंताजनक प्रवृत्ति को दिखाया गया है जिस वजह से 2023 और 2024 में रिकॉर्ड तोड़ गर्मी पड़ी थी।
एक नई रिपोर्ट में पाया गया है कि गर्मी को कम करने के उपाय लगातार और लंबी अवधि के लिए पड़ने वाली बहुत ज्यादा गर्मी के परिणामों के साथ तालमेल नहीं रख पा रहे हैं। इसके बजाय, उपाय अंतरिम समाधानों पर केंद्रित हैं जो मुख्य रूप से सेहत पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को ध्यान में रखते हैं। पर्यावरण अनुसंधान संस्थान ‘सस्टेनेबल फ्यूचर्स कोलैबोरेटिव’ (एसएफसी) के विजिटिंग फेलो और रिपोर्ट के प्रमुख लेखक आदित्य वलियाथन पिल्लई बताते हैं, “इस नजरिए में बड़ी खामी यह है कि जब आप कम अवधि वाले कदम उठाते हैं, तो इस तरह के उपाय लगातार बड़े होते खतरे से निपटने की जद्दोजहद कर रहे होते हैं।”
एसएफसी, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और बर्कले स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के शोधकर्ताओं ने दर्जनों सरकारी अधिकारियों का साक्षात्कार लिया। इसका मकसद यह पता लगाना था कि भविष्य में गर्मी का सामना करने वाले मुख्य शहरों में गर्मी से निपटने के लिए किस तरह से उपाय किए जाते हैं। उन्होंने पाया कि गर्मी के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए लंबी अवधि के कदम तब बेअसर हो जाते हैं जब उनके लिए अलग-अलग विभागों के बीच तालमेल बिठाना होता है।
प्रतिक्रिया वाले उपायों पर ध्यान
आपदा प्रबंधन, स्वास्थ्य, श्रम और शहरी नियोजन विभागों के अधिकारियों के साथ-साथ जिला और नगर निगम के प्रशासनिक प्रमुखों के साथ साक्षात्कार से पता चला कि गर्मी से निपटने के लिए सबसे आम उपाय “प्रतिक्रिया वाले उपाय” थे। इनमें श्रमिकों के लिए काम के घंटे बदलना, ओरल रिहाइड्रेशन नमक और पानी की उपलब्धता बढ़ाना, लू के मरीजों के लिए अस्पताल के वार्डों का फिर से इस्तेमाल करना और अस्थायी कूलिंग सेंटर बनाना शामिल है।

इन तरीकों का व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाता है। जलवायु परिवर्तन और मानव स्वास्थ्य पर राष्ट्रीय कार्यक्रम द्वारा 5,690 स्वास्थ्य सुविधाओं के एक अलग मूल्यांकन सर्वेक्षण में पाया गया कि 2024 में, ज्यादातर स्वास्थ्य सुविधाओं ने बहुत ज्यादा गर्मी के दुष्प्रभावों का मुकाबला करने के लिए ऐसे उपायों को अपनाया था।
लेकिन जैसे-जैसे भीषण गर्मी आम होती जा रही है, अधिकारी पेड़ों को जंगल समझने की भूल कर सकते हैं। एसएफसी की रिपोर्ट कहती है, “हालांकि स्वास्थ्य प्रणाली के डिजाइन में ये सुधार बेहद अहम हैं, लेकिन इन्हें लंबी अवधि में विनाशकारी लू के दुष्प्रभावों को कम करने के बजाय उनके हिसाब से ढल जाने के लिए डिजाइन किया गया है।”
शोधकर्ताओं ने नौ मुख्य शहरों सूरत, मुंबई, मेरठ, फरीदाबाद, कोटा, दिल्ली, ग्वालियर, लुधियाना और बेंगलुरु में काम करने वाले 88 सरकारी अधिकारियों का साक्षात्कार लिया। इन शहरों में देश की शहरी आबादी के 11 प्रतिशत (42.7 करोड़) लोग रहते हैं। साथ ही, अनुमान है कि इन शहरों के लिए मॉडल किए गए परिदृश्यों के मुताबिक ज्यादा तापमान वाले सबसे अधिक दिन होंगे। ऐसा तब होता है, जब वैश्विक औसत सतही तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाता है।
रिपोर्ट में पाया गया कि गर्मी को कम करने के इरादे से स्वास्थ्य क्षेत्र में लंबी अवधि के ज्यादा फैसले लिए गए हैं। इस वजह से “अन्य अहम क्षेत्रों में लंबी अवधि में गर्मी संबंधी चिंताओं को मुख्यधारा में लाने में बहुत सुस्ती बरती गई।” उदाहरण के लिए, ज्यादातर शहरों ने स्वास्थ्य कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने और मौत पर नजर रखने की जानकारी दी। ये ऐसे कदम हैं जो लंबी अवधि में क्षमता को बेहतर बनाने में मदद करते हैं। लेकिन अन्य कदम – जैसे कि ऑटोमेटिक मौसम केंद्र स्थापित करना, शहरों के कुछ क्षेत्रों के बहुत ज्यादा गर्म हो जाने (अर्बन हीट आइलैंड) के बारे में जानकारी जुटाने, खतरे का आकलन करना और सरकारी कर्मचारियों को प्रशिक्षित करना – चार या उससे कम शहरों में देखे गए।
इन कदमों के स्वास्थ्य क्षेत्र की ओर झुके होने की वजह यह है कि इसका असर गर्मी से होने वाली बीमारियों और मौतों के रूप में दिखाई देता है। पिल्लई कहते हैं, “नौकरशाही काफी हद तक पिछली आपदाओं से प्रेरित है, इसलिए अगर लोग मरते हैं, तो नीति के जरिए इस पर ध्यान दिया जाता है। इसमें समस्या यह है कि उपाय पिछले इतिहास पर आधारित होते हैं और इसमें भविष्य पर विचार नहीं किया जाता है।”

सूरत में शहरी स्वास्थ्य और जलवायु लचीलापन उत्कृष्टता केंद्र (UHCRCE) के तकनीकी निदेशक डॉ. विकास देसाई कहती हैं कि खतरे की पहचान करना खास तौर पर अहम है, क्योंकि इससे अधिकारियों को संकट आने पर बहुत कम अवसर के भीतर काम करने में मदद मिल सकती है। वह कहते हैं, “संकट की आशंका में हर साल तैयारी की जानी चाहिए, ना कि सिर्फ बड़े अधिकारियों से निर्देश जारी होने के बाद, क्योंकि वे बहुत देर से आ सकते हैं।” उन्होंने आगे कहा, “नए निर्माण होने के साथ शहर के भीतर हीट आइलैंड वाले इलाके हर साल बदल सकते हैं। उन बदलावों को लगातार दर्ज करना होगा, ताकि लंबी अवधि में योजना का ध्यान कमजोर वर्ग की आबादी पर हो।”
खतरे का आकलन करने और अर्बन हीट आइलैंड के बारे में जानकारी जुटाने में कमी की वजह से लंबी अवधि में गर्मी के प्रबंधन वाले समाधान गलत दिशा की तरफ मुड़ गए। उदाहरण के लिए, सर्वेक्षण किए गए अधिकांश शहरों में (लुधियाना को छोड़कर) वृक्षारोपण सौंदर्यीकरण के लिए किया गया था ना कि गर्मी से बचाव के लिए। रिपोर्ट में कहा गया है, “अगर वृक्षारोपण को गर्मी से बचाव को ध्यान में रखकर डिजाइन किया गया होता, तो पेड़ शहर के सबसे गर्म, सबसे घने और आमतौर पर सबसे गरीब क्षेत्रों में लगाए जाते, जहां छाया बहुत कम होती है। शायद अर्बन हीट आइलैंड की जानकारी की दलील के साथ।”
स्थानीय प्रशासकों के पास भविष्य में पड़ने वाली गर्मी परिदृश्यों के जलवायु अनुमानों तक पहुंच नहीं थी, जिससे उनकी कल्पनाएं सीमित हो गई कि गर्मी की स्थिति बिगड़ने पर शहर कैसा दिखेगा। 42 प्रशासकों में से महज दो ने जलवायु अनुमानों तक पहुंच होने की जानकारी दी। देसाई कहती हैं, “शहरों को योजना बनाने के लिए तापमान और आर्द्रता के रुझान, स्थानीय रुझान और स्वास्थ्य नतीजों को देखने की जरूरत है।”
हीट एक्शन के लिए बेहतर मदद जरूरी
सर्वेक्षण किए गए शहरों में गर्मी से निपटने के लिए सबसे आम तरीका बड़े अधिकारियों द्वारा जारी दिशा-निर्देश और सुझाव थे। साक्षात्कार में शामिल 70 फीसदी से ज़्यादा लोगों ने कहा कि उन्होंने लू से पहले या बहुत ज़्यादा गर्मी के दौरान आमतौर पर राज्य सरकार, आपदा प्रबंधन या स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा जारी किए गए निर्देशों पर काम किया।
हालांकि, निर्देशों में तय छोटी अवधि के काम जीवनरक्षक हैं। इनमें आमतौर पर हीट एक्शन प्लान (एचएपी) की तरह लंबी अवधि की रणनीतियों पर ध्यान नहीं दिया जाता है। रिपोर्ट में पाया गया कि एचएपी – बहुत ज्यादा गर्मी के लिए तैयारियां करने के मकसद से रूपरेखा प्रदान करने वाले दस्तावेज का हीट एक्शन को तय करने में “मामूली प्रभाव” था, क्योंकि “वे कमजोर रूप से संस्थागत हैं.”

पिल्लई कहते हैं, “आमतौर पर आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ही गर्मी की फाइल रखते हैं और इसलिए वे आने वाली लू के लिए निर्देश दे पाते हैं। लेकिन वे अन्य विभागों के रोजाना के कामकाज को अपने हाथ में नहीं ले सकते या शहरीकरण, पानी, बिजली के लिए योजनाओं पर निर्देश देना शुरू नहीं कर सकते हैं जो लंबे समय में मददगार हो सकते हैं।”
एसएफसी के अध्ययन में शामिल नहीं रहे, लेकिन लैंगिक एकीकरण के साथ सूरत के लिए हीट एक्शन प्लान तैयार करने वाले देसाई कहती हैं कि योजनाओं को इस पर ठीक से विचार करना चाहिए कि खतरे वाली आबादी (गर्भवती महिलाएं, पांच साल से कम उम्र के बच्चे और बुज़ुर्ग) अपना ज्यादातर समय घर के अंदर बिताते हैं। वे कहती हैं, “घर को गर्मी से बचने के लिए पर्याप्त आरामदायक बनाने की जरूरत है। जब ये समूह गरीब या प्रवासी होते हैं, तो वे ज्यादा बेबस होते हैं। गर्मी को कम करने की योजनाओं में ऐसे कारकों पर विचार करने की जरूरत है और यह रातों-रात नहीं किया जा सकता।”
एसएफसी की रिपोर्ट में कहा गया है कि हीट एक्शन प्लान को लागू करने में अक्सर प्रतिस्पर्धी हितों, आधी-अधूरी टाउन प्लानिंग या अपर्याप्त तकनीकी क्षमता और समन्वय की कमी होती है। सरकारी अधिकारियों ने शहरी संदर्भों में गर्मी को कम करने की योजना बनाने में भूमि की कमी को बाधा के रूप में बताया। रिपोर्ट में पाया गया कि “अनौपचारिक बस्तियों, खुले स्थानों पर अतिक्रमण, खुले स्थानों का तेजी से इमारतें खड़ी होना और फ्लैट बनने से भूमि की उपलब्धता पर दबाव बढ़ रहा था, जिससे जलवायु के हिसाब से ढलने के साथ सार्वजनिक चीजों के लिए जमीन की उपलब्धता कम हो गई।”
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने हीट एक्शन प्लान तैयार करने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं, लेकिन राज्यों और शहरों के लिए ऐसा करने का कोई कानूनी आदेश नहीं है। लुधियाना और ग्वालियर में तो एचएपी ही नहीं है। एसएफसी रिपोर्ट में साक्षात्कार किए गए शहरी नियोजन और शहरी विकास प्राधिकरणों में से एक-चौथाई ने शहरी नियोजन और उप-नियमों में गर्मी को प्राथमिकता देने के लिए बड़े कदम उठाने में कानूनी आदेश की कमी को बाधा बताया।
पिल्लई कहते हैं, “कानून से सब कुछ हल नहीं होगा, लेकिन लागू करने वाली एजेंसियां ऐसी स्थिति में हैं जहां उनके पास कम तकनीकी क्षमता है और तालमेल सबसे बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है।” उन्होंने आगे कहा, “बिना किसी कानूनी कारण के सभी क्षेत्रों में लगातार और असरदार तालमेल बनाना बहुत मुश्किल है। कानूनी आदेश अधिकारियों को काम करने के लिए प्रेरित कर सकता है।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 27 मार्च, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: रेहड़ी वाले और दिहाड़ी मजदूर बढ़ती गर्मी से सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वाले तबकों में से एक हैं। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY SA 4.0) के जरिए अवात्रावा की तस्वीर।