- सूरत का कपड़ा उद्योग कोयला, बिजली और पानी के कुशल इस्तेमाल और नवीन ऊर्जा को अपनाकर अपनी वस्त्र तैयार के तरीकों को बेहतर बना रहा है। इसका मकसद जलवायु परिवर्तन के असर से निपटना और इस उद्योग को पर्यावरण के अनुकूल बनाना है।
- हालांकि, कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी को बेहतर तरीके अपनाकर साफ किया जा रहा है। लेकिन, जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल और कपड़ों से निकलने वाले पेट्रोकेमिकल कचरे का उत्पादन अभी भी समस्या बना हुआ है।
- भाप से जुड़े कामों में लगे मजदूरों को अक्सर ज्यादा गर्मी सहनी पड़ती है, जो गर्मियों के दौरान बहुत ज्यादा हो जाती है।
- डिजिटल प्रिंटिंग जैसी नई टेक्नोलॉजी धरती और मजदूरों की सेहत के लिए ज्यादा सुरक्षित हैं। लेकिन, बहुत ज्यादा लागत और जस्ट ट्रांजिशन संबंधी मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है।
साजिदा शेख की उम्र 45 साल है। वो 17 साल से गुजरात के सूरत जिले के पलसाना में स्थित कपड़ा क्लस्टर गुजरात ईको टेक्सटाइल पार्क में रंगाई के लिए आने वाले कपड़े की गठरियों को सिलने का काम कर रही हैं। वो हर दिन छह किलोमीटर पैदल चलकर पलसाना के पड़ोस में स्थित अपने गांव बालेश्वर से कारखाना आती-जाती हैं। चूंकि यह इलाका नाले के करीब है, इसलिए मानसून के दौरान यहां पैदल चलना लगभग असंभव हो जाता है। वह कहती हैं, “बारिश के दौरान हमें 10-12 दिन की छुट्टी लेनी ही पड़ती है। नाले के पानी की उचित निकासी नहीं होने से पूरे इलाके में पानी भर जाता है।”
शेख जैसे 14 लाख कामगार सूरत में कपड़ा उद्योग से जुड़े हैं। यह खेती के बाद देश में रोजगार मुहैया कराने वाला दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है। लेकिन, इस उद्योग को जलवायु परिवर्तन की मार झेलनी पड़ रही है। इस वजह से कपड़ा बनाने में ऊर्जा और पानी की गहन प्रक्रियाएं भी समस्याओं को बढ़ाती हैं।

कपड़ा कारखानों से निकलने वाला खतरनाक रसायन मजदूरों के एक वर्ग के लिए एक और परेशानी है। शेख कहती हैं, “मेरे गांव के हर घर में कैंसर के मरीज हैं। यहां तक कि मेरे भाई को भी पिछले महीने कैंसर का पता चला था। कभी-कभी हवा में इतनी रासायनिक गंध होती है कि सोना मुश्किल हो जाता है। भले ही हम रोजगार के लिए कपड़ा उद्योग पर निर्भर हैं, लेकिन अब हम जान गए हैं कि इसकी कीमत सेहत से चुकानी होती है।”
सूरत के कपड़ा उद्योग में ज्यादातर सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) शामिल हैं। यह उद्योग कोयले, बिजली और पानी के कुशल इस्तेमाल के साथ विनिर्माण तरीकों में बदलाव करके और नवीन ऊर्जा को अपनाकर जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने की कोशिश कर रहा है। हालांकि, कुछ नई प्रौद्योगिकियां पर्यावरण के हिसाब से बेहतर और सेहत के लिए सुरक्षित हैं, लेकिन उनकी लागत ज्यादा है और उनमें कम लोगों को रोजगार देने की क्षमता है। इससे बदलाव बहुत धीमा हो जाता है।
सूरत का कपड़ा उद्योग
भारत सिंथेटिक कपड़े का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक है। साल 2021 में सूरत में 40 हजार से ज्यादा कपड़ा इकाइयां थीं। इनका कुल सालाना कारोबार 68,000 करोड़ रुपये था। सूरत में हर दिन तीन करोड़ मीटर कच्चा कपड़ा और 2.5 करोड़ मीटर कपड़ा तैयार होता है। सूरत के पांडेसरा, सचिन, कडोदरा और पलसाना के औद्योगिक समूहों में छह लाख पावरलूम और 450 प्रसंस्करण-रंगाई और छपाई यूनिट हैं। 2011 में हुई आखिरी जनगणना के अनुसार, शहर की 55% आबादी उत्तर प्रदेश, बिहार और ओडिशा से आए प्रवासी मज़दूरों की है। इनमें से ज्यादातर कपड़ा उद्योग में लगे हुए हैं।
दूसरी तरफ, दुनिया में उत्सर्जित होने वाली ग्रीनहाउस गैस का अनुमानित दो से आठ प्रतिशत इसी उद्योग से आता है। साथ ही, महासागरों में सालाना जाने वाले माइक्रोप्लास्टिक का नौ प्रतिशत हिस्सा भी यहीं से निकलता है। दुनिया भर में, यह उद्योग हल साल लगभग 215 ट्रिलियन लीटर पानी की खपत करता है। इसमें से छह से नौ ट्रिलियन लीटर पानी सिर्फ कपड़े की रंगाई में लगता है। सूरत में हर दिन 1,800-2,200 टन कचरा निकलता है और इसका लगभग सात प्रतिशत ‘चिंदी‘ (कपड़े के छोटे-छोटे टुकड़े) होता है। सिंथेटिक फाइबर पेट्रो-रसायन उत्पाद है और कचरे को या तो जला दिया जाता है या कपड़ा प्रसंस्करण उद्योगों के बॉयलर में इस्तेमाल किया जाता है।
गुजरात ईको टेक्सटाइल पार्क में जेपी काचीवाला टेक्सटाइल्स प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक धर्मेश सी. काचीवाला कहते हैं, “अंतरराष्ट्रीय ब्रांड की ओर से उत्सर्जन कम करने और पर्यावरण अनुपालन के बेहतरीन तरीकों का पालन करने का दबाव है। बदलाव लाना हमारे हित में है, लेकिन इसमें लगातार साफ-सुथरे ईंधन स्रोतों की कमी और मजदूरों के प्रतिरोध जैसी समस्याएं भी हैं।”

मौसम में बदलाव का असर
वैसे सूरत की भौगोलिक स्थिति खास है। इसके एक तरफ अरब सागर और दूसरी तरफ 94 किलोमीटर ऊपर उकाई बांध है। इस पर खाड़ी और बांध दोनों से बाढ़ का खतरा है। साल 2006 की बाढ़ में तो शहर का तीन-चौथाई हिस्सा डूब गया था। इस आपदा से कपड़ा क्षेत्र को 20 अरब रुपये का नुकसान हुआ था। यह आंकड़ा “सूरत में कपड़ा उद्योग को बाढ़ से होने वाला आर्थिक घाटा और नुकसान” नामक अध्ययन में दिया गया है। इसमें कहा गया है कि समुद्र का जलस्तर एक मीटर बढ़ने से सूरत की 40% जमीन डूब सकती है।
वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआई)-इंडिया में जलवायु कार्यक्रम प्रमुख मेहुल पटेल ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “कपड़ा उद्योग में काम करने वाले, ज्यादातर प्रवासी झुग्गियों में रहते हैं जो खाड़ियों और नदी के किनारों पर बनी हैं। उन्हें ना सिर्फ काम के दिनों का नुकसान होता है, बल्कि पानी से होने वाली बीमारियों का जोखिम भी रहता है। बाढ़ एमएसएमई के बीच कच्चे माल के परिवहन को भी प्रभावित करती है जो कताई, बुनाई और प्रसंस्करण के लिए जरूरी है।” डब्ल्यूआरआई इंडिया अपनी परियोजना ‘लचीले, समावेशी और टिकाऊ उद्यम‘ के हिस्से के रूप में बदलते परिदृश्य से निपटने के लिए सूरत में 50 रंगाई और छपाई एमएसएमई को मदद कर रहा है।
सूरत जैसे शहरों का समुद्र के नजदीक होने का मतलब बहुत ज्यादा आर्द्रता भी है। भारतीय मौसम विभाग का कहना है कि जब सूरत में अधिकतम तापमान 39 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाता है, तो यहां लू चलने की घोषणा हो सकती है। सूरत शहर की जलवायु अनुकूली और लैंगिक आधारित एकीकृत हीट वेव एक्शन प्लान रिपोर्ट बताती है कि 2011-2021 के दशक में तापमान के 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर जाने वाले दिनों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। एक्शन प्लान के मुताबिक, “लू से जुड़ी मुश्किलें मजदूरों की उत्पादकता को कम करती हैं और गरीबी को बढ़ा सकती हैं। हाल के सालों में सूरत में गर्मी के चलते मानव जीवन के लिए जोखिम काफी बढ़ गया है।“
डब्ल्यूआरआई इंडिया के वरिष्ठ कार्यक्रम सहयोगी विश्वजीत पुजारी बताते हैं, “ज्यादातर रंगाई और छपाई यूनिट किराए की बेहद छोटी जगहों से चलती हैं। मज़दूर 12 घंटे की शिफ्ट में काम करते हैं। दोपहर में काम का बोझ चरम पर होता है और तापमान भी। इस समय ज्यादा से ज्यादा मजदूर अंदर होते हैं और सभी मशीनें चालू होती हैं। इसलिए, गर्मी से जुड़ी परेशानियां भी ज्यादा होती हैं।”
एमएसएमई का कहना है कि दोपहर के खाने के समय की अवधि बढ़ाने, शिफ्ट जल्दी शुरू करने, एस्बेस्टस की छतों पर बोरियां लगाने और जहां भी संभव हो वहां वेंट और कूलर लगाने जैसे उपाय किए जा रहे हैं। कचिवाला कहते हैं, “हम बटर मिल्क और कोल्ड-ड्रिंक बांटते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि ज़्यादातर काम गर्मी पर आधारित हैं।”
भाप की समस्या
राम प्रकाश साहू जब जगे हुए होते हैं, तो ज्यादातर समय लूप स्टीमर के पास खड़े होकर बिताते हैं। यहां ताज़े प्रिंट किए गए कपड़े के रंगों को ज्यादा दबाव और तापमान पर भाप से पक्का किया जाता है। वो कहते हैं, “इस गर्मी में दिन में 12 घंटे खड़े रहना आसान नहीं है। गर्मियों के दौरान लोग बेहोश भी हो जाते हैं। पिछले कुछ सालों में मशीनों की संख्या भी बढ़ गई है, जिससे जगह कम हो गई है और यह ज्यादा गर्म भी हो रही है। कोई वेंटिलेशन नहीं है और यहां तक कि छत का पंखा भी गर्म हवा फेंकता है। यह प्रेशर कुकर के अंदर काम करने जैसा है।“
साहू ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “कभी-कभी जब लूप स्टीमर में कपड़ा फंस जाता है, तो हमें मशीन में घुसना पड़ता है। मशीन को बंद कर दिया जाता है और 15-20 मिनट के लिए भाप छोड़ी जाती है। इसके बावजूद, जब हम मशीन में घुसते हैं तो तापमान 150 डिग्री से कम नहीं होता। अगर शरीर का कोई अंग मशीन को छूता है, तो वह जल जाता है।” कपड़ा बनाते समय भाप से जलना, आग और बॉयलर फटना, गर्मी, धूल और खतरनाक रसायनों के संपर्क में आने से फेफड़े और त्वचा संबंधी समस्याएं जैसे काम करने से जुड़े खतरे आम हैं।
और पढ़ेंः रासायनिक या प्राकृतिक? फैशन उद्योग के रंगरेज की उलझन
इन कामों के लिए बहुत ज्यादा भाप की जरूरत होती है। इसके लिए एमएसएमई हर घंटे एक से तीन टन (टीपीएच) क्षमता वाले कोयला आधारित बॉयलर लगाते हैं। छोटे बॉयलरों में ईंधन कुशलता कम होती है, सुरक्षा संबंधी मुद्दे होते हैं, उनके रखरखाव पर ज्यादा ध्यान देना होता है और जहरीली गैसों का उत्सर्जन भी ज्यादा होता है। कचिवाला ने कहा, “अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड चाहते हैं कि हम 2025 तक कोयले का इस्तेमाल बंद कर दें। लेकिन इसके लिए बहुत कम विकल्प हैं। प्राकृतिक गैस बहुत महंगी है। कृषि-ब्रिकेट तभी विकल्प है जब हमें लगातार आपूर्ति मिलती रहे।”
पटेल ने पूरे विश्वास के साथ कहा, “हम बायोमास एग्रीगेटर्स के साथ बातचीत कर रहे हैं। बायोफ्यूल अच्छी कैलोरी वैल्यू दे सकता है, आसानी से उपलब्ध है और हम इसे कुछ उद्योगों में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर इस्तेमाल करेंगे। एक बार यह सफल हो जाए, तो क्लस्टर में दूसरे लोग भी इसे अपना लेते हैं।”

साल 2014 में निजी कंपनी स्टीम हाउस ने सूरत के सचिन क्लस्टर में भारत का पहला कॉमन बॉयलर शुरू किया। कॉमन बॉयलर ओवरहेड पाइपलाइनों के जरिए एक ही प्लांट से कई इकाइयों को भाप की आपूर्ति करते हैं। हाल ही में हुए अध्ययन के अनुसार, बड़े बॉयलर में ईंधन की कुशलता 80-85% (छोटे बॉयलर के लिए 65-70% की तुलना में) होती है।
अहमदाबाद के सेंटर फॉर एनवायरनमेंट एजुकेशन के वरिष्ठ कार्यक्रम निदेशक तुषार जानी बताते हैं, “कॉमन बॉयलर एमएसएमई को संचालन और रखरखाव लागत, ईंधन भंडारण से छुटकारा दिलाता है। वायु प्रदूषण को कम करता है और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और बॉयलर निरीक्षकों को एक ही जगह से निगरानी करने में मदद करता है। अलग-अलग इकाइयों को कोयला ले जाने वाले कई ट्रकों से होने वाले परोक्ष उत्सर्जन को भी बचाया जाता है।” यह संगठन कपड़ा क्षेत्र में सर्कुलरिटी पर काम करते हैं। कॉमन बॉयलर अपने पाइपलाइन नेटवर्क में स्टीम टर्बाइन लगाकर साथ-साथ बिजली का उत्पादन भी करते हैं।
इस साल सचिन स्थित स्टीम हाउस कपड़ा इकाइयों के लिए दो बॉयलर चालू करने वाला है। स्टीम हाउस के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक विशाल एस. बुधिया ने कहा, “ये बॉयलर शहर के कचरे और कपड़ा कचरे से प्राप्त रिफ्यूज डेरिव्ड फ्यूल (आरडीएफ) पर आधारित हैं। जहां छोटे बॉयलरों में ईंधन को पूरा जलाना चुनौती है, वहीं इन बायलर में बहुत ज्यादा नियंत्रित तरीके से जलाना पक्का किया जाता है, ताकि कपड़े वाले कचरे के अंधाधुंध जलने से कोई जहरीला उत्सर्जन ना हो।”
दूसरी तरफ, जगह की कमी भी चुनौती है। सचिन औद्योगिक क्लस्टर के कॉमन एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (सीईपीटी/CEPT) का प्रबंधन करने वाली कंपनी सचिन इंफ्रा एनवायरनमेंट लिमिटेड के चेयरमैन बिनय अग्रवाल कहते हैं कि सरकार को चीन की तरह बड़े टेक्सटाइल पार्क बनाने चाहिए और उन्हें उद्योगों को पट्टे पर देना चाहिए। अग्रवाल कहते हैं, “यहां जमीन इतनी महंगी है कि एमएसएमई को वर्टिकल पर जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। क्रॉस वेंटिलेशन और दिन के उजाले वाली विशाल क्षैतिज इकाइयां ही एकमात्र असली समाधान है।”
इस बीच, केंद्र ने पीएम-मित्र (मेगा इंटीग्रेटेड टेक्सटाइल रीजन एंड अपैरल पार्क) नामक योजना शुरू की है। इसके तहत गुजरात समेत सात राज्यों में मेगा टेक्सटाइल पार्क बनाए जा रहे हैं। सूरत में मित्रा पार्क 1,142 एकड़ में बनाया जा रहा है। अग्रवाल का अनुमान है कि “यह हमारी जरूरत का सिर्फ 20% है। अगर सरकार क्षेत्रफल को पांच गुना बढ़ा दे, तो सूरत में पूरे टेक्सटाइल उद्योग को यहां जगह की जा सकती है।”
पानी बचाना
प्रसंस्करण इकाइयों को रंगाई से पहले कच्चे कपड़े को धोने और फिर छपाई के बाद अधूरे रंगों को हटाने के लिए भी बड़ी मात्रा में पानी की जरूरत होती है। वहीं, रंगाई के लिए मीठे पानी की आवश्यकता होती है, जिससे मीठे पानी के भंडार पर बहुत ज्यादा भार पड़ता है। कचिवाला ने बताया, “अगर पानी भारी है, तो हमें इसे नरम करने के लिए रासायनिक एजेंटों का इस्तेमाल करना होगा। जमीन के भीतर पानी का स्तर नीचे जाने से पानी की गुणवत्ता और मात्रा दोनों पर असर पड़ा है।”
साल 2014 में सूरत भारत का पहला ऐसा शहर बन गया जिसने सीवेज के पानी को रिसायकल करने और कपड़ा उद्योगों को आपूर्ति करने के लिए पानी को साफ करने वाला टेरिटरी संयंत्र लगाया था। सचिन और पांडेसरा जैसे शहर की सीमा के भीतर के समूहों को यह पानी मिलता है, लेकिन बाहरी इलाकों में पाइपलाइनों की ज्यादा लागत के कारण यह पानी नहीं मिलता। अग्रवाल कहते हैं, “यह पानी कपड़ा उद्योग के लिए शुद्ध सोना है, क्योंकि इसमें बोरवेल के पानी और हमारे सीईटीपी में रिसाइकिल किए गए कचरे दोनों की तुलना में कम भारीपन और गंदगी होती है।”
अग्रवाल कहते हैं कि वाई-वाल्व लगाने जैसे छोटे-छोटे बदलावों से पानी की बर्बादी कम होती है और कम गंदगी वाले धुलाई के पानी का फिर से इस्तेमाल होता है। इससे उनके क्लस्टर में पानी की काफी बचत हुई है।
जानी कहते हैं, “सूरत में सीईटीपी की क्षमता भी देश में सबसे ज़्यादा है। वे प्रतिदिन 1,50,000 मिलियन लीटर पानी को साफ करते हैं।” सीईटीपी चलाने के लिए औद्योगिक समूहों ने नवीन ऊर्जा की ओर रुख करना शुरू कर दिया है। अग्रवाल कहते हैं, “हमारे सीईटीपी की बिजली खपत हर महीने 84 लाख यूनिट है, जिसमें से 70 लाख यूनिट पवन ऊर्जा से पूरी की जा रही है।”
जस्ट ट्रांजिशन का क्या?
कुछ एमएसएमई ने रंगाई मशीनों के लिए प्रोग्रामेबल लॉजिक कंट्रोलर (पीएलसी) लगाया है, जो एनर्जी एफिशिएंसी सर्विसेज लिमिटेड द्वारा अनुमोदित ऑटोमेशन तकनीक है। यह ज्यादा उत्पादन देते हुए कम ऊर्जा, भाप, रसायन, पानी और मानव संसाधनों का इस्तेमाल करती है। काचीवाल कहते हैं, “लेकिन मजदूर नई चीजें सीखने में हिचकिचाते हैं, भले ही इससे उनका काम आसान हो जाए। उन्हें लगता है कि नई तकनीकें उनकी नौकरियां छीन लेंगी।”
पांडेसरा के पास स्थित डिजिटल प्रिंटिंग मिल सिद्धि विनायक एंटरप्राइजेज के नरेश माहेश्वरी के अनुसार, डिजिटल प्रिंटिंग एक और ट्रेंड है, जिससे अगले पांच सालों में सूरत के कपड़ा उद्योग में क्रांति आने की उम्मीद है। माहेश्वरी ने मोंगाबे-इंडिया से बात करते हुए बताया, “डिजिटल प्रिंटिंग पारंपरिक स्क्रीन प्रिंटर की तुलना में रंगों और डिजाइनों के मामले में कहीं ज़्यादा लचीली और सटीक है और बड़े स्तर के कस्टमाइजेशन की सुविधा देती है। इससे कोई धुआं नहीं निकलता और धुलाई से कोई अम्लीय गंदगी नहीं निकलती, जिससे रंग निकल जाएं। यह सेहत के लिहाज से ज़्यादा सुरक्षित है और पूरी प्रक्रिया वातानुकूलित कमरे में होती है। स्क्रीन प्रिंटर पर पांच से दस लोगों की जगह सिर्फ़ दो लोगों की ज़रूरत होती है। हालांकि, चुनौती यह है कि इसे चलाने के लिए हमें सिर्फ कुशल कर्मचारियों की जरूरत है। सूरत में अभी हमें बहुत ज़्यादा कुशल कर्मचारी नहीं मिल रहे हैं।”
कुछ निर्माताओं का कहना है कि उद्योगों की ओर से डिजिटल प्रिंटिंग को जल्दी नहीं अपनाने का एक और कारण है शुरुआती निवेश लागत और हमेशा की तरह व्यापार में आसानी। हालांकि, उन्हें लगता है कि उन्हें जल्द ही बदलाव करना होगा। हालांकि डिजिटल तरीके से कपड़ा उत्पादन इस समय पारंपरिक प्रिंटिंग की तुलना में ज्यादा महंगा है, लेकिन नई तकनीकों के आने के साथ, जल्द ही कीमत बराबर होने की उम्मीद है।

हालांकि, कपड़ों के कुछ कारीगरों को चिंता है कि डिजिटल होने से मानव श्रम की जरूरत कम हो सकती है, लेकिन एमएसएमई को भरोसा है कि सूरत में कपड़ों की ज्यादा मांग के साथ, सभी के लिए हमेशा नौकरियां होंगी। मार्केट रिसर्च संगठन फ्यूचर मार्केट इनसाइट्स के अनुसार, 2024 में डिजिटल टेक्सटाइल प्रिंटिंग मार्केट 2,989.6 मिलियन अमेरिकी डॉलर होने का अनुमान है। पूर्वानुमान अवधि 2024 से 2034 के दौरान बाजार में 12.1% की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (CAGR) से उछाल आने की उम्मीद है।
इस बीच, शेख के 22 साल के बेटे मोहम्मद फैजान ने डिजिटल प्रिंटिंग ऑपरेशन की पढ़ाई पूरी कर ली है। वे अब एक एमएसएमई के साथ इंटर्नशिप कर रहे हैं। वे कहते हैं, “वे गर्मी में काम नहीं करना चाहते। सौभाग्य से, मैं उसे पढ़ा पाई करने में सक्षम थी और वह उसी उद्योग में बेहतर काम कर रहा है।”
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
बैनर तस्वीर: भारत सिंथेटिक कपड़ों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक है। तस्वीर: रवलीन कौर/मोंगाबे।