- कभी झारखंड का सबसे बड़ा कोयला खदान रह चुका पिपरवार का खदान 30 साल बाद बंद हो चुका है। खदान की वजह से 1100 हेक्टेयर की जमीन तहस-नहस हो चुकी थी।
- सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड (सीसीएल) ने वर्ष 2015 से खदान से बर्बाद हुई जमीन को संवारने का काम शुरू किया है। कंपनी ने अब तक 272 हेक्टेयर जमीन पर पौधरोपण, इको पार्क निर्माण और जलाशय बनाए हैं, ताकि बेकार जमीन का दोबारा उपयोग हो सके।
- खनन के बाद बेकार हुई जमीन को वापस सुधारकर देना एक जरूरी प्रक्रिया है। खनन कंपनियां कानूनी बाध्यताओं की वजह से जमीन को ठीक कर वापस करती हैं।
बीते कुछ वर्षों में झारखंड के चतरा जिले की बेंती गांव निवासी कठपुतली देवी का जीवन बदला है। कुछ महीनों पहले तक गांव के समीप पिपरवार कोयला खदान की वजह से इलाका धूल से भरा होता था। कोयले की कालिख हर जगह देखी जा सकती थी। दीवार हो, मिट्टी हो या कुछ और।
अब स्थिति बदली है। जहां पहले खनन होता था वहां अब हरे-भरे पौधे और निर्मल जल से भरे जलाशय बन गए हैं। हरियाली के साथ-साथ 35 वर्षीय कठपुतली देवी के लिए यह उद्यान रोजगार लेकर भी आया है। यह सब संभव हुआ है केवल कोयला खदान बंद होने के बाद।
झारखंड की राजधानी रांची से 70 किलोमीटर दूर स्थित चतरा जिला का पिपरवार कोयला खदान एक वक्त में राज्य का सबसे बड़ा खदान माना जाता था। तीस साल लगातार कोयला उगलने के बाद पिपरवार का खदान अब बंद हो चुका है। खदान बंद होने के बाद यहां खदान की 1100 हेक्टेयर की जमीन तहस-नहस हो गई थी।
अब खदान को संचालित करने वाली कंपनी सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड (सीसीएल) ने खनन की वजह से तबाह हुई जमीन को संवारने का काम शुरू किया है।
“मैं खदान की जमीन पर बने इको पार्क में अपने पति के साथ काम करती हूं। पार्क से हर महीने 7,500 रुपए की आमदनी होती है जिससे हमारे चारों बच्चों की पढ़ाई का खर्च निकल आता है,” कठपुतली देवी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
पार्क बनने से पहले कठपुतली के पति अकेले कमाते थे। कमाई का एक बड़ा हिस्सा शराब पीने में खर्च हो जाता था, जिससे घर की माली हालत खराब ही रहती थी।
खनन के बाद जमीन को आम लोगों के लिए वापस उपयोगी बनाने के लिए कई तरह के प्रयास हो रहे हैं।
पिपरवार में कोयला खदान 1990 में शुरू हुआ था। यह एक ओपन कास्ट यानी खुली खदान थी जो लगभग 1,120.25 हेक्टेयर में फैली हुई थी। हर साल औसतन 120 लाख टन कोयला यहां से निकाला जाता था। जून 2020 आते-आते खदान का कोयला खत्म हो गया और खनन का काम बंद करना पड़ा।
खनन के बाद नियमों के मुताबिक खदान की जमीन को दोबारा उपयोग में लाने लायक बनाना होता है।
बीते कुछ वर्षों में झारखंड के चतरा जिले की बेंती गांव निवासी कठपुतली देवी का जीवन बदला है। कुछ महीनों पहले तक गांव के समीप पिपरवार कोयला खदान की वजह से इलाका धूल से भरा होता था। कोयले की कालिख हर जगह देखी जा सकती थी। दीवार हो, मिट्टी हो या कुछ और।
अब स्थिति बदली है। जहां पहले खनन होता था वहां अब हरे-भरे पौधे और निर्मल जल से भरे जलाशय बन गए हैं। हरियाली के साथ-साथ 35 वर्षीय कठपुतली देवी के लिए यह उद्यान रोजगार लेकर भी आया है। यह सब संभव हुआ है केवल कोयला खदान बंद होने के बाद।
झारखंड की राजधानी रांची से 70 किलोमीटर दूर स्थित चतरा जिला का पिपरवार कोयला खदान एक वक्त में राज्य का सबसे बड़ा खदान माना जाता था। तीस साल लगातार कोयला उगलने के बाद पिपरवार का खदान अब बंद हो चुका है। खदान बंद होने के बाद यहां खदान की 1100 हेक्टेयर की जमीन तहस-नहस हो गई थी।
अब खदान को संचालित करने वाली कंपनी सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड (सीसीएल) ने खनन की वजह से तबाह हुई जमीन को संवारने का काम शुरू किया है।
“मैं खदान की जमीन पर बने इको पार्क में अपने पति के साथ काम करती हूं। पार्क से हर महीने 7,500 रुपए की आमदनी होती है जिससे हमारे चारों बच्चों की पढ़ाई का खर्च निकल आता है,” कठपुतली देवी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
पार्क बनने से पहले कठपुतली के पति अकेले कमाते थे। कमाई का एक बड़ा हिस्सा शराब पीने में खर्च हो जाता था, जिससे घर की माली हालत खराब ही रहती थी।
खनन के बाद जमीन को आम लोगों के लिए वापस उपयोगी बनाने के लिए कई तरह के प्रयास हो रहे हैं।
पिपरवार में कोयला खदान 1990 में शुरू हुआ था। यह एक ओपन कास्ट यानी खुली खदान थी जो लगभग 1,120.25 हेक्टेयर में फैली हुई थी। हर साल औसतन 120 लाख टन कोयला यहां से निकाला जाता था। जून 2020 आते-आते खदान का कोयला खत्म हो गया और खनन का काम बंद करना पड़ा।
खनन के बाद नियमों के मुताबिक खदान की जमीन को दोबारा उपयोग में लाने लायक बनाना होता है।
खदान बंद होने के बाद आया बदलाव
खनन के बाद यहां की जमीन किसी काम की नहीं रह गई थी। अब पार्क बनने के बाद कठपुतली देवी की तरह कई और लोगों को रोजगार मिला है। इलाके की आबोहवा भी काफी बदली है।
इको पार्क में कठपुतली देवी के अलावा चार और लोग काम करते हैं। 28 वर्षीय मोहम्मद अब्बास पास के बहेरा गांव में रहते हैं। उन्होंने कहा, “हम इस इलाके में कई वर्षों से रहते हैं। यहां ट्रक, कोयले की धूल और प्रदूषण के अलावा कुछ भी नहीं था। अब इलाका काफी साफ-सुथरा है। जहां से लोग गुजरना तक नहीं चाहते थे वहां अब पार्क की वजह से लोग बेंच पर बैठकर समय गुजारते हैं,” अब्बास कहते हैं।
क्या इको पार्क बनाने से बनती है बात
विशेषज्ञ मानते हैं कि खदान को दोबारा उपयोग में लाना तब बेहतर होता जब इसे केवल जैव-विविधता की दृष्टि से विकसित किया जाता।
“इको पार्क में इंसानों का प्रवेश भी होगा। प्रकृति को इससे पूरा लाभ नहीं मिलेगा। अगर खदान के बाद बेकार हुई जमीन को जैव-विविधता का केंद्र बनाया जाता और इसे इंसानी गतिविधियों से दूर रखा जाता तो वहां पक्षी और जानवरों की गतिविधियां बढ़ती,” भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) खड़गपुर के पर्यावरण विज्ञान और इंजीनियरिंग, संकाय से जुड़े जयंत भट्टाचार्य कहते हैं।
“व्यवसायिक गतिविधि को बढ़ावा न देकर सिर्फ जैव-विविधता को बढ़ावा देने की दृष्टि से अगर खनन वाले इलाके को विकसित किया जाए तो इसका पूरा लाभ मिलेगा। जानवरों को आने-जाने के लिए एक गलियारे का निर्माण भी किया जाना चाहिए। खदान की बेकार जमीन को संवारते वक्त वहां रहने वाले जानवरों का ख्याल भी रखा जाना चाहिए, और उसे उसी हिसाब से विकसित किया जाना चाहिए,” भट्टाचार्य कहते हैं।
इको पार्क के अलावा सीसीएल ने 30 हेक्टेयर की जमीन को खेती के लिए उपयोगी बनाया है। यहां स्थानीय लोग खेती करेंगे।
“किसान अर्जित भूमि के छोटे हिस्से में गेहूं और मक्का उगाने लगे हैं। इससे उन्हें उपार्जन का नया रास्ता मिल रहा है। यहां बने तीन जलाशयों से खेती और पार्क के लिए पानी मिलता है,” सीसीएल के जनसंपर्क विभाग के प्रमुख अनुपम कुमार राणा ने कहा।
सीसीएल के मुताबिक यह खदान जून 2020 में बंद हुआ। हालांकि, यहां मौजूद कोयले को अब भी ले जाया जा रहा है। बचे हुए इलाके को भी जल्दी संवारा जाएगा। सीसीएल के मुताबिक इस काम को भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने अपने 2019 के ऑडिट में सराहा।
पर्यावरणविद् की सलाह, योजनाबद्ध तरीके से हो काम
पर्यावरण के जानकार सलाह देते हैं कि जमीन को वापस उपयोगी बनाने का काम योजना के साथ किया जाता चाहिए। जैव-विविधता को दोबारा दुरुस्त करने के लिए पौधरोपण में स्थानीय प्रजातियों के पौधों को शामिल करना चाहिए।
“खदान वाले इलाके में इस तरह के प्रयास सराहनीय हैं। इससे आसपास के लोगों को प्रदूषण से मुक्ति मिल सकती है। यहां पानी के स्रोत बनाने का भी फायदा होगा। हालांकि, सीसीएल को ध्यान रखना चाहिए कि स्थानीय पौधों को पौधरोपण में प्राथमिकता दें। इससे पौधे अधिक मजबूती से टिके रहेंगे,” कहते हैं नितिश प्रियदर्शी, जो रांची विश्वविद्यालय के भूविज्ञान विभाग से बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर जुड़े हैं।
उन्होंने जोर देकर कहा कि बाहरी प्रजाति के पौधे किसी काम के नहीं और स्थानीय माहौल में न ढलने की वजह से मर भी सकते हैं।
वन विभाग के अधिकारियों के मुताबिक सीसीएल ने इस प्रक्रिया में इन बातों का ध्यान रखा है। यहां कटहल, बेल, महुआ, जामुन जैसे पौधे लगाए गए हैं।
“अगर सीसीएल ने हमारे साथ मिलकर पौधरोपण किया होता तो हम उन्हें स्थानीय आबोहवा को ध्यान में रखकर सलाह दे सकते थे,” वन विभाग के रेज अधिकारी छोटे लाल साह कहते हैं।
वह कहते हैं कि मेरे ख्याल से कायाकल्प वाटिका बनाना काफी नहीं है। इलाके के आसपास भी एक ग्रीन बेल्ट विकसित करना होगा ताकि प्रदूषण के प्रभाव को कम किया जा सके।
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सीसीएल पिपरवार के आसपास 10 खदान चलाता है। यह इलाका करनपुरा कोलफील्ड के अंतर्गत आता है जिसमें रांची, हजारीबाग, चतरा और लातेहार जिला आता है। इस इलाके में 1,230 वर्ग किलोमीटर में कोयला खदान है जहां 12,110.84 मिलियन टन कोयले का अनुमानित भंडार है। इलाके में पिपरवार को छोड़कर बचे सभी खदान चल रहे हैं।
“खनन के बाद बेकार हुई जमीन को संवारने के बाद हमने कई संस्थानों के विशेषज्ञों को भी आमंत्रित किया। उनके सुझावों को भी हम अमल में ला रहे हैं,” कुमार बताते हैं।
सीसीएल का कहना है कि उन्होंने इलाके की जरूरत को समझते हुए खदान की जमीन को संवारा है।
बैनर तस्वीरः पिपरवार में कोयला खदान 1990 में शुरू हुआ था। यह एक ओपन कास्ट यानी खुली खदान थी दो कि 1,120.25 हेक्टेयर में फैली हुई थी। तस्वीर- राकेश रंजन