- सिंधु नदी डॉल्फिन सिर्फ पाकिस्तान और भारत के सिंधु नदी के निचले हिस्से में पाई जाती हैं।1870 के बाद से, इसका आवास 80% तक कम हो गया है और आज लगभग 2,000 डॉल्फिन ही बची हैं।
- 2007 में, भारत में ब्यास नदी में एक अलग आबादी की खोज की गई थी, जो उनके ज्ञात निवास स्थान से 600 किलोमीटर दूर है। 2011 और 2022 के बीच किए गए सर्वेक्षणों के अनुसार, वे नदी के निचले तीसरे हिस्से में ही पाईं गई थीं, जिनकी संख्या एक से आठ डॉल्फिन तक थी।
- इन डॉल्फिन की छोटी आबादी कई खतरों का सामना कर रही है, जैसे कि मछली पकड़ने के उपकरणों में फंसना, पानी का प्रदूषण और नदी के प्रवाह में बदलाव। शोधकर्ता डॉल्फिन के अस्तित्व और पुनर्वास के लिए सख्त संरक्षण उपायों की आवश्यकता पर जोर दे रहे हैं।
उत्तरी भारत में ब्यास नदी का पानी सिंधु नदी डॉल्फिन की एक छोटी, लुप्तप्राय आबादी का घर है। लेकिन अब उनकी संख्या कम हो रही है और उनके आवास खतरे में हैं। एक नए रिसर्च पेपर में इसका खुलासा किया गया है। पेपर उनके दीर्घकालिक अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक संरक्षण प्रयासों पर जोर देता है।
सिंधु नदी डॉल्फिन (प्लैटनिस्टा माइनर) मीठे पानी की डॉल्फिन की एक प्रजाति है, जो आईयूसीएन रेड लिस्ट में लुप्तप्राय के रूप में सूचीबद्ध है। ये डॉल्फिन सिर्फ पाकिस्तान और भारत की सिंधु नदी के निचले हिस्सों में पाई जाती रही हैं। लेकिन 1870 के दशक से, सिंचाई बैराजों के निर्माण के कारण इनके आवास में कथित तौर पर 80% की कमी देखी गई है। आज सिर्फ लगभग 2,000 डॉल्फिन ही बची हैं। 2007 में, पहले ज्ञात आवास से लगभग 600 किलोमीटर दूर, भारत की ब्यास नदी में एक अलग आबादी का पता चलने के बाद से इस इलाके में नए सिरे से इनके संरक्षण के लिए प्रयास शुरू हुए थे। यह आबादी अपनी आनुवंशिक विविधता के लिए काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है।
भारत सरकार के जल शक्ति मंत्रालय के राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के सलाहकार और अध्ययन के शोधकर्ताओं में से एक संदीप बेहरा भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं। वह कहते हैं, “ब्यास नदी में सिंधु नदी डॉल्फिन की अनुमानित संख्या बहुत कम है, दस से भी कम।” उन्होंने आगे बताया, “बड़े शिकारियों के तौर पर, सिंधु नदी डॉल्फिन मछलियों और अन्य जलीय प्रजातियों की आबादी को प्रभावित करती है। वे नदी प्रणाली के समग्र स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण हैं।”

सिंधु नदी डॉल्फिन सिंधु नदी बेसिन की स्थानिक हैं, जहां गंदा, गाद से भरा आवास उनकी दृष्टि को सीमित कर देता है। वे नेविगेट करने और भोजन खोजने के लिए इकोलोकेशन पर निर्भर करती हैं। उन्हें जीवित जीवाश्म भी माना जाता है, जो अभी भी जीवित सबसे प्राचीन डॉल्फिन प्रजातियों में से एक है। 2021 तक, उन्हें दक्षिण एशियाई नदी डॉल्फिन की उप-प्रजातियों के रूप में वर्गीकृत किया गया था, लेकिन अब उन्हें दो अलग-अलग प्रजातियों के रूप में मान्यता दी गई है।
डॉल्फिन की संख्या घटी
2010 और 2011 में, संरक्षण संगठन डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया और पंजाब वन एवं वन्यजीव संरक्षण विभाग (डीएफडब्ल्यूपी) ने सिंधु नदी डॉल्फिन के देखे जाने के बारे में सर्वेक्षण किया था। उन्होंने तीन नदियों, ब्यास, रावी और सतलुज के किनारों पर 470 किलोमीटर के साथ स्थित तटवर्ती समुदायों के 104 सदस्यों से बातचीत की, जिसमें संदर्भ के लिए डॉल्फिन की रंगीन तस्वीरों और खुली-प्रश्नावली का इस्तेमाल किया गया था। सर्वेक्षण से पता चला कि डॉल्फिन केवल हरिके वन्यजीव अभयारण्य और ब्यास नदी पर ब्यास डेरा के बहाव क्षेत्र में मौजूद थीं। रावी और सतलुज नदियों से वो नदारद थीं।

2011 से 2022 के बीच, ब्यास नदी में डॉल्फिन की छोटी और सीमित आबादी के बारे में और जानकारी जुटाने के लिए, 3 पर्यवेक्षकों वाली नाव से 40 बार डायरेक्ट काउंटिंग सर्वे किए गए। इन सर्वे से पता चला कि डॉल्फिन सिर्फ नदी के निचले तीसरे हिस्से में हैं और उनकी संख्या 1 से 8 तक थी। हर साल, मादा डॉल्फिन के साथ उसके छोटे बच्चे को देखा जाना, यह दर्शाता है कि प्रजनन जारी है। इस बात की पुष्टि स्थानीय लोगों ने भी की है।
ब्यास नदी पर नाव चलाने वाले अमरजीत सिंह कहते हैं, “हम हर साल छोटे बच्चों को उनकी मां के साथ देखते हैं, लेकिन युवा डॉल्फिन को शायद ही कभी देखा हो। साथ ही, देखे जाने वाले छोटे बच्चों की संख्या लगभग स्थिर बनी हुई है।” डेटा भी उनकी इस बात की पुष्टि करता है। 2011 और 2012 में कई सर्वे में पांच डॉल्फिन पाई गईं। 2013 से 2018 तक, सबसे ज्यादा चार डॉल्फिन देखी गईं और 2018 के बाद से, संख्या तीन से ज्यादा कभी नहीं हुई।
2015 के बाद से, डॉल्फिन मुख्य रूप से ब्यास शहर के नीचे के इलाके में पाई गई हैं। ऊपरी इलाकों में उनकी उपस्थिति न के बराबर है। डॉल्फिन के दो प्रमुख इलाके (लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर) भी पहचाने गए: एक वेरोवाल और गगरेवाल के पास और दूसरा, कर्मोवाला और मुंडापिंड के पास। इनमें, कर्मोवाला और मुंडापिंड में अधिक बार डॉल्फिन देखी गई, जबकि 2018 से वेरोवाल और गगरेवाल में डॉल्फिन की संख्या कम हो गई। इससे पता चलता है कि डॉल्फिन के लिए अब यह जगह उतनी उपयोग में नहीं है और शायद उनके आवास में कमी या बदलाव आया है।
बेहरा कहते हैं, “इस आबादी को बेहतर तरीके से समझने के लिए और रिसर्च की जरूरत है। हाल के सभी सर्वे में डॉल्फिन के छोटे बच्चों को देखे जाने की बात कही गई है, लेकिन किसी के भी मरने की सूचना नहीं मिली, जिससे यह रहस्य बना हुआ है कि ये डॉल्फिन (भौगोलिक रूप से) कहां जा रही हैं।”
कई चुनौतियां
ब्यास नदी में छोटी डॉल्फिन आबादी की सिंधु नदी की आबादी से जुड़ने की संभावना बहुत कम है। कई बांध और सूखी नदियां उन्हें पूरी तरह अलग करती हैं। उनके वर्तमान आवास में कई चुनौतियां हैं, जैसे मछली पकड़ने के जाल में फंसना, औद्योगिक अपशिष्टों से पानी का प्रदूषण और हरिके बांध से नीचे की ओर भागना।
इसके अलावा, अभी तक यह पता नहीं चला है कि ब्यास नदी में डॉल्फिन के लिए कौन से आवास महत्वपूर्ण हैं और वे नदी के केवल कुछ हिस्सों में क्यों रहती हैं। मान्यता यह है कि, अपने अन्य आवासों की तरह, डॉल्फिन उच्च जल मात्रा वाले स्थानों को चुनती हैं, खासकर कम पानी के मौसम में। हालांकि, ऊपरी क्षेत्रों में होने वाले जल-वैज्ञानिक बदलाव से उपलब्ध आवास कम हो सकता है और उनका दायरा सीमित हो सकता है। नदी के जल विज्ञान और आकृति विज्ञान को समझने से यह पता चल सकता है कि क्यों कुछ आवासों का उपयोग नहीं किया जा रहा है और डॉल्फिन के जीवित रहने के लिए कौन सी विशेषताएं महत्वपूर्ण हैं।
और पढ़ेंः [वीडियो] गंगा डॉल्फिन को बचाने की डगर में कई मुश्किलें, प्रदूषण और बांध बड़ी समस्या
बेहेरा कहते हैं, “आज, ब्यास नदी में सिंधु नदी डॉल्फिन के लिए सबसे बड़े खतरा, पानी की उपलब्धता और प्रदूषण है। ऊपर की ओर बने जलविद्युत परियोजनाएं अक्सर पानी का स्तर बदल देती हैं, जिससे इन डॉल्फिनों के लिए यह एक अस्थिर आवास बन जाता है। हरिके में सतलुज और ब्यास नदियों का संगम उस जगह को दर्शाता है जहां मैंने पहली बार सिंधु डॉल्फिन देखी थीं। बांध की वजह से स्थिर गहरे जल के कारण उन्हें यह जगह पसंद है। हालांकि, अब प्रदूषण के उच्च स्तर के कारण वे इस हिस्से से भी दूर रहने लगी हैं।”
कार्रवाई का समय
भारतीय और पंजाब राज्य सरकारें सिंधु नदी डॉल्फिन को प्राथमिकता वाली प्रजाति मानती हैं, जो उनके संरक्षण के प्रति मजबूत प्रतिबद्धता दर्शाती है। लेकिन, ब्यास नदी में उनकी आबादी इतनी कम है कि एक डॉल्फिन का मर जाना पूरी आबादी को खतरे में डाल सकता है। शोधकर्ता मानते हैं कि मानव गतिविधियों से होने वाली मौतों को पूरी तरह से रोकना, डॉल्फिन के जीवित रहने और फिर से बढ़ने के लिए बहुत जरूरी है।
वे इसके लिए कई उपाय सुझाते हैं, जैसे डॉल्फिन के आवास से मछली पकड़ने के जालों को पूरी तरह से दूर करना, ताकि वे गलती से उनमें न फंसें, नदी के प्रदूषण को कम करना, एक स्वस्थ जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए पर्याप्त नदी पानी का प्रवाह सुनिश्चित करना और हरिके बांध और आसपास की नहरों में डॉल्फिन की गतिविधियों पर नजर रखना। उन्होंने डॉल्फिनों की सुरक्षा के लिए नदी किनारे के समुदायों को भी संरक्षण प्रयासों में शामिल करने का सुझाव दिया है।

दस साल से सिंधु और गंगा नदी डॉल्फिन का अध्ययन कर रहे स्वतंत्र जीवविज्ञानी करुणेश सिंह कहते हैं, “ब्यास नदी डॉल्फिन की आबादी बढ़ाने के लिए सिंधु नदी प्रणाली के दूसरे, स्वस्थ और बड़े समूहों से डॉल्फिनों को स्थानांतरित करने की भी संभावना तलाशनी होगी। इससे उनकी आनुवंशिक विविधता और संख्या में खासी वृद्धि हो सकती है।”
ब्यास नदी में सिंधु नदी डॉल्फिनों का जीवित रहना संरक्षणवादियों, स्थानीय समुदायों और सरकारों के तत्काल और समन्वित प्रयासों पर निर्भर है। इन चुनौतियों का समाधान करके और विशेष रूप से उनके संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाकर, इस लुप्तप्राय प्रजाति के अपने प्राकृतिक आवास में वापस लौटने की उम्मीद की जा सकती है।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 15 अगस्त 2024 प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: सर्वे से पता चला है कि सिंधु नदी डॉल्फिन केवल ब्यास नदी के निचले तीसरे हिस्से में पाई जाती हैं, जिनकी संख्या एक से आठ तक है। तस्वीर-डॉ. संदीप बेहेरा