- ओडिशा में हाल ही में किए गए एक अध्ययन में रिमोट सेंसिंग और सैंपल लेने के जमीनी तरीकों का इस्तेमाल करके यह पता लगाया गया कि कोयले की धूल कार्बन को सोखने की क्षमता सहित पेड़-पौधों के जीवन पर असर डालती है।
- खुली खदानों में खनन से बहुत ज्यादा धूल निकलने से अक्सर वायु प्रदूषण की स्थिति गंभीर हो जाती है।
- मुफ्त में उपलब्ध उपग्रह डेटा का इस्तेमाल करके ऐसे रिसर्च को आगे बढ़ाया जा सकता है।
ओडिशा में किए गए एक नए अध्ययन से पता चलता है कि किस प्रकार उपग्रह से प्राप्त चित्र कोयला खनन की धूल से वनस्पतियों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को तय करने में मदद कर सकते हैं। इससे यह भी पता चलता है कि धूल प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया पर ज्यादा असर डाल सकती है। यह पहले लगाए गए अनुमान से कहीं ज्यादा है।
यूनाइटेड किंगडम में साउथेम्प्टन विश्वविद्यालय और ओडिशा के राउरकेला में राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान के शोधकर्ताओं ने झारसुगुड़ा जिले में वनस्पतियों के पत्तों पर पड़ने वाली धूल का अनुमान लगाने के लिए रिमोट सेंसिंग से जुड़ी तकनीकों का इस्तेमाल किया। यहां महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड खनन का काम करती है। झारखंड के बाद ओडिशा भारत का दूसरा सबसे बड़ा कोयला खनन राज्य है। भारत के सालाना कोयला उत्पादन में ओडिशा का योगदान लगभग एक-चौथाई है।
साउथेम्प्टन विश्वविद्यालय में रिमोट सेंसिंग के प्रोफेसर और अध्ययन के सह-लेखक जदुनंदन दाश ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “जब हम कोयला खनन के बारे में सोचते हैं, तो हम अक्सर प्रदूषण और स्वास्थ्य पर सीधे, दिखने वाले दुष्प्रभाव के बारे में सोचते हैं। लेकिन, इस अध्ययन का उद्देश्य खनन से निकलने वाली धूल के छिपे हुए दुष्प्रभावों को देखना था जो कम स्पष्ट हैं, लेकिन पर्यावरण के नजरिए से इनका व्यापक असर होता है।”
धूल का पता लगाने के लिए रिमोट सेंसिंग का इस्तेमाल
ओपनकास्ट माइनिंग में सतह के नीचे पाया जाने वाला कोयला निकालने के लिए मिट्टी के ऊपर से अतिरिक्त भार और चट्टानों को हटाया जाता है। यह प्रक्रिया खनन और बफर जोन के आसपास की हवा को गंभीर रूप से प्रदूषित कर सकती है। पेपर में कहा गया है कि वनस्पति पर कोयले की धूल के दुष्प्रभावों को समझने से पौधों के जीवन पर संभावित पारिस्थितिकी दुष्प्रभावों को ठीक करने और कम करने में मदद मिल सकती है।
शोधपत्र में कहा गया है कि उपग्रह इमेजरी “बहुत बारीक पैमाने पर भिन्नताओं को पकड़ सकती है, व्यापक क्षेत्र कवरेज, नियमित निगरानी, माहौल से छेड़छाड़ किए बिना डेटा संग्रह, मल्टी-स्पेक्ट्रल क्षमताएं, डेटा एकीकरण और वैश्विक पहुंच प्रदान करती है।” शोधकर्ताओं ने पत्तियों पर धूल के स्तर का ज्यादा सटीक आकलन करने के लिए जमीन पर नमूने भी एकत्र किए।

स्टडी के लिए चार ऑप्टिकल मल्टी-स्पेक्ट्रल सैटेलाइट डेटा स्रोतों (लैंडसैट-8, लैंडसैट-9, सेंटिनल-2 और प्लैनेटस्कोप) का इस्तेमाल किया गया और उनकी एक-दूसरे से तुलना की गई। हालांकि, हर उपग्रह धूल से प्रभावित क्षेत्रों को कैप्चर करने के लिए तैयार है, लेकिन हर उपग्रह की तस्वीर की सटीकता की तुलना कई उद्देश्यों को पूरा करती है. दास ने कहा, “हम लैंडसैट जैसे स्वतंत्र रूप से उपलब्ध स्रोतों के डेटा की तुलना प्लैनेटस्कोप से करना चाहते थे, जो कारोबारी उपग्रह है और जिसका डेटा स्वतंत्र रूप से ऐक्सेस नहीं किया जा सकता है। हमने पाया कि डेटा में कोई बड़ा अंतर नहीं है, जिसका मतलब है कि हमारे शोध को आगे बढ़ाया जा सकता है।”
झारसुगुड़ा के कोयला खनन क्षेत्रों में 30 जगहों से कुल तीन सौ धूल भरे पत्ते भी एकत्र किए गए। हर धूल भरे पत्ते को बहुत ज्यादा सटीक इलेक्ट्रॉनिक तौल मशीन का इस्तेमाल करके तौला गया। इन पत्तियों को साफ करने के बाद फिर से तौला गया। पेपर में कहा गया है कि यह नमूना क्षेत्रों में पत्तों पर जमी धूल की मात्रा तय करने के लिए किया गया था।
धूल का पौधों के जीवन पर दुष्प्रभाव
शोध में पाया गया कि ज्यादा धूल जमने से सभी सैटेलाइट सेंसर में दिखाई देने वाला परावर्तन कम हो गया। धूल सकल प्राथमिक उत्पादकता (GPP) के कम स्तरों से भी जुड़ी थी। यह दर वह है जिस पर पौधे प्रकाश संश्लेषण के दौरान कार्बन डाइऑक्साइड को काम में लेते हैं। औसतन, धूल के जमाव के कारण GPP में लगभग दो से तीन ग्राम कार्बन की कमी हुई। शोधपत्र में कहा गया है, “इन नतीजों से पता चलता है कि पत्तियों पर बहुत ज्यादा धूल जमने से संभावित रूप से वनस्पतियों की इष्टतम प्रकाश संश्लेषण करने की क्षमता सीमित हो जाती है। साथ ही, पारिस्थितिकी तंत्र से कुल कार्बन सोखने पर असर होता है।” दाश ने बताया कि GPP में औसतन दो से तीन ग्राम की कमी पौधे की कार्बन अवशोषण क्षमता का लगभग 10 से 20% नुकसान है।
धूल ने पानी इस्तेमाल करने की पौधों की कुशलता और वाष्प उत्सर्जन के साथ नकारात्मक संबंध भी बनाए। इससे पत्तियों का तापमान बढ़ गया, जिससे तापीय असंतुलन पैदा हुआ। शोधपत्र में कहा गया है कि प्रकाश संश्लेषण प्रक्रियाओं को प्रभावित करने के अलावा, पत्तियों की धूल “स्टोमेटल चालन को प्रभावित कर सकती है, जिससे वाष्प उत्सर्जन से पानी की नुकसान कम हो सकता है।”
खनन से निकलने वाली धूल को कम करना
बेंगलुरु स्थित पर्यावरण प्रबंधन और नीति अनुसंधान संस्थान के शोध वैज्ञानिक नारायण कायेत ने भी उपग्रह चित्रों का इस्तेमाल करके वनस्पतियों पर कोयला खनन की धूल के दुष्प्रभावों का अध्ययन किया है। झारखंड के झरिया कोयला क्षेत्र पर आधारित उनके शोध में पाया गया कि सबसे ज्यादा कोयला धूल का भार खनन परिवहन मार्गों, रेल लाइनों और डंप क्षेत्रों, टेलिंग तालाबों, बैकफिलिंग और कोयला स्टॉकयार्ड के किनारों पर पाया जाता है। उन्होंने कहा, “धूल के कारण इन रास्तों पर वनस्पतियों को बहुत ज्यादा नुकसान हुआ। साथ ही, पेड़-पौधों का आच्छादन कम हो गया। हमने हाइपरस्पेक्ट्रल डेटा का इस्तमाल किया जिसका रिजॉल्यूशन अच्छा है।”
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कायेत के अनुसार, इस तरह के शोध से नीति में कमियों का पता चलता है, जिन्हें वनस्पतियों पर धूल के जमाव को कम करने के उपायों को लागू करके दूर किया जा सकता है। कायेत ने कहा, “पानी के छिड़काव जैसे उपाय धूल को कम करने में मदद कर सकते हैं।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 12 फरवरी, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: ओडिशा के झारसुगुड़ा जिले में कोयला खदान में जारी काम। फ्लिकर (CC BY-NC-SA 2.0) के जरिए इंडिया वाटर पोर्टल की तस्वीर।