- जंगली खाद्य पदार्थों की खोज की पारंपरिक प्रथा ने ऐतिहासिक रूप से सोलिगा जैसे जंगल पर आश्रित समुदायों के लिए भोजन और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित की है।
- कई अध्ययनों में इस प्रथा के आर्थिक लाभों पर प्रकाश डाला गया है, साथ ही खाद्य और औषधीय उद्देश्यों के लिए कई अनजाने लेकिन पोषण से भरपूर पौधों की भी बात की है।
- आदिवासी समुदायों में जंगली खाद्य पौधों पर निर्भरता में कमी चिंता का विषय है, जिसके लिए आधुनिक आहार तक बढ़ती पहुँच, कम होते जंगल और बदलती कृषि पद्धतियों जैसे कारक जिम्मेदार हैं।
शंखमादम्मा और डुंडम्मा कर्नाटक की आदिवासी बस्ती कीरनहोला पोडु में अपने घर के बरामदे में बैठकर दोपहर का खाना खा रही हैं। चटक नीले रंग के इस घर की दीवारों का रंग कई जगह से उतरा हुआ है। इस पोडु (छोटी बस्ती) का सबसे छोटा सदस्य, मन्वित, ब्रेड के एक टुकड़े को खाता हुआ आसपास घूम रहा है।
शंखमादम्मा की थाली में सफ़ेद चावल और ‘बेले सांभर’ (दाल का सांभर) है। वह इसी पोडु में पली-बढ़ी डुनडम्मा, जिनकी शादी एक दुसरे पोडु में हुई है, से बात करने में मशगूल हैं। कीरनहोला पोडु, कर्नाटक के मले महादेश्वरा हिल्स (एम.एम. हिल्स) में सोलिगा जनजाति की एक बस्ती है। डुंडम्मा दोपहर का खाना अधिकतर इसी पोडु में खाती हैं जहां से लेंटाना क्राफ्ट सेंटर ज़्यादा दूर नहीं है। अपने 60 के दशक में चल रही ये दोनों महिलाएं इस लेंटाना क्राफ्ट सेंटर, जो बेंगलुरु की शोध संस्था अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड दी एनवायरनमेंट (एट्री) द्वारा संचालित किया जाता है, में कारीगर का काम करती हैं। इस सेंटर में आक्रामक पौधे लेंटाना कमारा को जंगल से लाकर उसका फर्नीचर और सजावट का सामान बनाया जाता है।

सोलिगा, कर्नाटक और तमिलनाडु के कुछ भागों में रहने वाली सदियों पुरानी एक मूल जनजाति, जनजाति के लोग इस शिल्प का काम करते हैं। कर्नाटक में वन विभाग के ऐसे प्रोजेक्ट जो आक्रामक पौधों की प्रजातियों के प्रबंधन पर काम करते हैं, उनमें अधिकतर सोलिगा और कुरुबा जैसी जनजाति के लोगों को काम पर लिया जाता है। ऐसा इन जनजाति के लोगों की जंगल की समझ और लैंटाना कमारा जैसी कटीली झाड़ियों के प्रबंधन की क्षमता के चलते किया जाता है।
मौसमी सब्जियां
जुलाई महीने का आखरी हिस्सा, यानी सोलीगा लोगों के लिए बहुप्रतीक्षित ‘मुंगारु’ या मानसून सीजन जब मौसमी मशरूम, बांस और जंगली पौधे उगते हैं और इकट्ठे किये जाते हैं। इन मशरुम और जंगली पौधों ने पारम्परिक रूप से जंगल में रहने वाले सोलीगा लोगों, जिनका पहले बाहरी दुनिया से मिलना-जुलना कम था, को पोषण प्रदान किया है।
जब शंखमादम्मा से पूछा गया कि उन्होंने ‘सोप्पू सारु’, सोलीगा लोगों की रोज़मर्रा की एक हरी पत्तेदार सब्जी, क्यों नहीं बनाई, इस पर उन्होंने कहा कि उनके पास ‘सोप्पू’ ढूंढने का प्रयाप्त समय नहीं था। हालांकि, बेले (दाल) हमेशा उपलब्ध होती है। सोलिगा लोगों को उनके समुदाय में कुपोषण से निपटने के लिए सरकार की तरफ से पोषण किट उपलब्ध कराए जाते हैं। यह किट राशन केंद्रों से मिलने वाले मुफ्त अनाज और दूसरी चीजों के अलावा दिए जाते हैं।
शंखमादम्मा अपनी थाली धोती हैं और अपने घर के बगल की जमीन से मुट्ठी भर भाजी और बेर – आने सोप्पू (फ्लेमिंगो फीदर), कोलाके सोप्पू (इंडियन बोराज) और सूंडेकाई (टर्की बेरी) – लेकर आती हैं। “हम अक्सर इसकी सब्जी बनाते हैं। अभी इसका मौसम है,” शंखमादम्मा बताती हैं। वह एक और मौसमी गोल फल (गुलकाई) वाले एक कंटीले पौधे की तरफ इशारा करती हैं।

सोलिगा दक्षिण भारत की एक महत्वपूर्ण जनजाति है। साल 2010 में 25 सोलिगा ग्राम सभाओं ने सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी और ऐतिहासिक जीत प्राप्त की। यह घटना जंगलों पर आश्रित इस जनजातीय समुदाय के लिए मील का पत्थर साबित हुई।
सामुदायिक वन संसाधन अधिकार या कम्युनिटी फॉरेस्ट रिसोर्सेस राइट्स (CFRR) भूमि का अधिकार, वन भूमि तक पहुँच, जैव विविधता, जल निकाय, चरागाह क्षेत्र, गैर-लकड़ी वन उत्पादों (एनटीएफपी) के लिए स्वामित्व और उपयोग का अधिकार, और बौद्धिक संपदा और पारंपरिक ज्ञान के अधिकार जैसे कई लाभ प्रदान करते हैं। इस कानूनी मान्यता से सोलिगा जनजाति के लोगों की जंगलों में उगने वाले जंगली खाद्य पौधों तक पहुँच सुनिश्चित हुई है।
सोलिगा जनजाति के लोगों की पोषण के लिए जंगली खाद्य पौधों पर निर्भरता शोधों में लगातार सामने आती है। उदाहरण के लिए, 2022 के एक अध्ययन में जंगली बेरी, कंद, मशरूम, और जंगल के अंदर बाजरा, फलियों और सब्जियों की खेती, साथ ही छोटे शिकार की भूमिका पर जोर दिया गया है। यह सभी खाद्य पदार्थ सोलिगा जनजाति के भोजन और जीवनयापन की जरूरतों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

समय के साथ होते परिवर्तनों ने सोलिगा समुदाय को काफी प्रभावित किया है, खासकर वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के लागू होने के बाद। इस अधिनियम ने एक किलेबंदी वाले संरक्षण मॉडल, जिसमें माना जाता है कि संरक्षित क्षेत्रों को मानवीय हस्तक्षेप के बिना बेहतर तरीके से संरक्षित किया जा सकता है, को अधिक लोकप्रिय बनाया। इसके चलते वनवासी आदिवासियों को उनकी पारंपरिक जगहों से अलग कर दिया गया।
विशेषज्ञों का कहना है कि खेती को बढ़ावा मिलने, जंगलों के कम होने, आक्रामक प्रजातियों की तेजी से वृद्धि, वन्यजीवों द्वारा फसलों के नुकसान, और युवाओं में पारंपरिक जीवनशैली को बनाए रखने में रुचि की कमी जैसे कारक जंगली खाद्य पौधों पर निर्भरता में कमी के लिए जिम्मेदार हैं।

इन परिवर्तनों का आदिवासी समुदाय के स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पड़ा है। साल 2017 के एक अध्ययन में 6-10 वर्ष की आयु के विस्थापित सोलिगा बच्चों के पोषण और स्वास्थ्य की स्थिति की जांच में चिंताजनक परिणाम सामने आए। यह बच्चे सरकार द्वारा चलाई जा रही मध्याह्न भोजन योजना या मिड-डे मील स्कीम के लाभार्थी थे। इस अध्ययन में पाया गया कि 91.4% बच्चे एनीमिया (खून की कमी) से पीड़ित थे, जिनमें से 9.9% गंभीर एनीमिया और 74.3% मध्यम एनीमिया दिखा रहे थे। इसके अतिरिक्त, लड़कों की तुलना में लड़कियां अधिक गंभीर रूप से एनीमिया से पीड़ित थीं। “उल्लेखनीय रूप से, सामान्य बीएमआई वाले लगभग 94.3% बच्चे एनीमिया से पीड़ित थे,” शोधपत्र में कहा गया है।
अध्ययन के मुख्य अन्वेषक और कर्नाटक के धारवाड़ में सेंटर फॉर मल्टी-डिसिप्लिनरी डेवलपमेंट रिसर्च (CMDR) में मानव विज्ञान के सहायक प्रोफेसर जय प्रभाकर बताते हैं कि पारंपरिक रूप से सोलिगा लोगों के लिए जंगली खाद्य पदार्थों की तलाश करना एक महत्वपूर्ण गतिविधि रही है। उनका अनुमान है कि विस्थापित बच्चों में एनीमिया का एक कारण उनके विस्थापन के बाद खाद्य पदार्थों की तलाश बंद हो जाना हो सकता है। वे कहते हैं, “हमने पाया कि (सरकार द्वारा दिया जाने वाला) मध्याह्न भोजन पूर्ण पोषण के लिए अपर्याप्त था। जंगल से स्थानांतरित होने के बाद, भोजन की तलाश बंद हो गई, जिसका बच्चों के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।”
पोषण ढूंढने की परंपरा
भारत में जंगली खाद्य पौधों के उपयोग के विश्लेषण से खाद्य सुरक्षा और पोषण के लिए जंगली खाद्य पदार्थों पर निर्भरता का एक लंबा इतिहास सामने आता है, जिसमें देश भर में वनस्पतियों के 184 परिवारों की लगभग 1400 किस्मों का उपभोग किया जाता है।
पश्चिम बंगाल के मालदा के सेंटर फॉर स्टडीज इन एथनोबायोलॉजी, बायोडायवर्सिटी और सस्टेनेबिलिटी (CEiBa) के शोधकर्ताओं द्वारा 2020 में प्रकाशित हुए पेपर में खाद्य और कृषि संगठन (2010) का हवाला दिया देते हुए बताया गया है कि लगभग 30 घरेलु प्रजातियाँ आहार की विविधता को बनाये रखती हैं। जबकि सिर्फ़ तीन अनाज – चावल, गेहूं और मक्का – दुनिया के कुल कैलोरी सेवन में आधे से ज़्यादा हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं। यह इस तथ्य को रेखांकित करता है कि हज़ारों खाद्य प्रजातियाँ जंगली या अर्ध-जंगली बनी हुई हैं, जिन्हें सामान्य उपयोग या घरेलू उपयोग की प्रक्रिया के दौरान अनदेखा कर दिया गया है। हालांकि, इन कम उपयोग किए जाने वाले खाद्य पौधों में हमारी खाद्य प्रणालियों को बेहतर बनाने की क्षमता है, जिससे वे अधिक पौष्टिक, टिकाऊ और जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीली बन सकती हैं।

एट्री के संरक्षण जीवविज्ञानी हरीशा आर.पी., जिन्होंने सोलिगा द्वारा इकट्ठे किए जाने वाले जंगली खाद्य पौधों पर व्यापक शोध किया है, ने अपने पीएचडी थीसिस में 130 ऐसी प्रजातियों की पहचान की है। उन्होंने बताया कि एमएम हिल्स के जंगल में स्थानीय समुदाय 123 पौधों का उपयोग भोजन के लिए, 68 प्रजातियों का उपयोग दवा के लिए, 32 प्रजातियों का उपयोग कृषि और निर्माण उद्देश्यों के लिए, 14 प्रजातियों का उपयोग नकद आय के लिए और 26 प्रजातियों का उपयोग आध्यात्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए करते हैं।
हरीशा के अनुसार, एनागोणे सोप्पु (सेसिल जॉयवीड) जैसी जंगली सब्जियाँ गर्भवती सोलिगा महिलाओं के आहार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इसके पोषण संबंधी लाभों के अलावा, सोलिगा इस पौधे की पत्तियों का उपयोग एनीमिया, पीलिया, रतौंधी, बवासीर और बांझपन से लड़ने के लिए करते हैं। उन्होंने एक कॉलम में लिखा है कि यह पौधा, मानव तंत्रिका तंत्र को मजबूत करने, बालों के विकास को बढ़ावा देने और स्तनपान कराने वाली माताओं में दूध उत्पादन की क्षमता को बढ़ाने में भी सहायक है।
बी.आर. हिल्स में रहने वाले और एट्री में सोलिगा शोधकर्ता मदेगौड़ा सी. बताते हैं कि सिकल सेल एनीमिया जैसी कुछ स्थितियाँ ऐतिहासिक रूप से सोलिगा लोगों में प्रचलित रही हैं। “हम इस स्थिति से निपटने के लिए नेराले (जामुन) जैसे फलों पर बहुत अधिक निर्भर थे। दुर्भाग्य से, अब हम इस फल को उतनी बार नहीं खा पाते हैं जितना पहले खाते थे,” वे कहते हैं।

सोलिगा लोगों के पास जंगल और उसके जंगली खाद्य पदार्थों तक पहुँच होने के बावजूद उन्हें कानूनी तौर पर इन संसाधनों को केवल अपनी व्यक्तिगत जरूरतों के लिए ही लेने की अनुमति है। फिर भी, एक अध्ययन के अनुसार, जंगली भोजन की तलाश इस समुदाय को महत्वपूर्ण आर्थिक लाभ प्रदान करती है। एक अध्ययन से पता चलता है कि जंगली खाद्य पौधों का नकद मूल्य सोलिगा परिवार की वार्षिक आय में 15% से 20% के बीच योगदान देता है। यह अध्ययन एम.एम. हिल्स में सोलिगा और बेडा गम्पाना समुदायों द्वारा बसाए गए आठ गाँवों में किये गए साक्षात्कारों और फ़ोकस समूह चर्चाओं से प्राप्त डेटा के विश्लेषण पर आधारित था। अध्ययन का निष्कर्ष है कि ये पौधे कई घरों के लिए एक विश्वसनीय सुरक्षा तंत्र प्रदान करते हैं और स्थानीय लोगों की आजीविका में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
पाककला का संरक्षण
डुंडम्मा बेंगलुरु और हैदराबाद जैसे शहरों में अपनी कुकिंग क्लास माध्यम से लोगों के बीच इस जंगली खाने को पकाने की कला का प्रदर्शन कर चुकी हैं। आमतौर पर, आदिवासी महिलाएँ और बच्चे अपने घरों के पास के खेतों और जमीनों से इस खाने को इकट्ठा करते हैं, जबकि पुरुष मशरूम, बांस के अंकुर और अन्य सामान इकट्ठा करने के लिए जंगल में जाते हैं। हालांकि, डुंडम्मा ने पाया कि उनके पोडु में कई बच्चे इन पौधों की पहचान करने में पारंगत नहीं हैं।
बीस वर्षीय शशि, जो 10वीं कक्षा तक पढ़ी हैं, हमें पोडू के पास के खेतों और खाली प्लॉटों में ले जाती हैं। वह कई तरह के खाने योग्य पौधों की ओर इशारा करती हैं, जिनमें से कुछ औषधीय गुणों वाले होते हैं, साथ ही जंगली बेरी और मौसमी फल भी। वह पेड़ से कुछ केवली हन्नू (कारंडस प्लम) तोड़ती हैं जिस पर अभी-अभी फल लगने शुरू हुए हैं; पहले निवाले में, इसका खट्टापन बहुत ज़्यादा होता है, फिर इसका स्वाद बेहतर हो जाता है जो आंवले की याद दिलाता है। हालाँकि, शशि कुछ रोज़मर्रा की सब्जियों और बेरिओं से परिचित हैं, लेकिन वह स्वीकार करती हैं कि उनका ज्ञान उसकी माँ या दादी जितना व्यापक नहीं है।

साल 2023 में, हरिशा ने अपनी किताब ‘फॉरगॉटन ट्रेल्स: फोराजिंग वाइल्ड एडिबल्स’ प्रकाशित की जिसमें लोकप्रिय जंगली खाद्य पौधे और सोलिगा और येरावा, दक्षिण भारत की एक और जनजाति, की जंगली खाद्य पौधों को पकाने की विधियों को संग्रहित किया गया है। इस किताब का उद्देश्य जंगली खाद्य पौधों से सम्बंधित पारम्परिक ज्ञान को सहेजना, और इन पारंपरिक प्रथाओं के वन संरक्षण में योगदान पर प्रकाश डालना है।
हरिशा अपनी किताब में बेसिगे (गर्मी का मौसम) को कड्डी सोप्पू (Jasminum sp), आने सोप्पू (Celosia argentea / flamingo feather), और मुष्टे सोप्पू (Holostemma annulare) की कम उपलब्धता के चलते सोलिगा लोगों के लिए एक खाली या कम काम वाले सीजन की तरह उल्लेखित करते हैं। इस दौरान पिछली फसल के अनाज और दालों को सुखाकर उपयोग के लिए संरक्षित किया जाता है। इसके विपरीत, मुंगारु यानी मानसून और हिंगारु यानि जाते हुए मानसून के सीजन में जंगली खाद्य पौधों की मैदानों, खेतों और जंगलों में बहुतायत होती है।
इस किताब को मौसमों के अनुसार वर्गीकृत किया गया है। हर मौसम में उपलब्ध जंगली खाद्यानों और उनको बनाने की पारंपरिक विधि भी प्रकाशित की गयी है। हरिशा मानते हैं कि भोजन की पारंपरिक विधियों का दस्तावेजीकरण सिर्फ व्यंजनों को संरक्षित करने के लिए ही नहीं, उनके औषधीय गुणों और भूख से निपटने में उनके योगदान को याद रखने के लिए भी जरूरी है।
मदेगौड़ा कहते हैं कि सोलिगा लोगों के लिए कुछ जंगली खाद्य पदार्थ सांस्कृतिक महत्व रखते हैं। उदाहरण के लिए, संक्रांति जैसे महत्वपूर्ण त्योहारों के दौरान, वे देवी-देवताओं को कुछ ख़ास कंद चढ़ाते हैं। वे कहते हैं, “थोट्टाम्बू के नाम से जानी जाने वाली डायोस्कोरिया प्रजाति का कंद अक्सर प्रसाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।”
वनों पर कम होती निर्भरता
मदेगौड़ा कई जंगली खाद्य पौधों की उपलब्धता में कमी के लिए जलवायु परिवर्तन और आक्रामक पौधों की प्रजातियों के प्रसार को मुख्य कारक मानते हैं। वे बताते हैं, “लैंटाना की झाड़ियों के नीचे कुछ बेरियों के अलावा कुछ भी नहीं उगता। यहाँ तक कि वो बेरियां भी अब उतनी प्रचुर नहीं हैं जितनी पहले हुआ करती थीं।” वे ‘तरागु बेन्की’ नामक एक पारंपरिक प्रथा को याद करते हैं जिसमें खरपतवारों को नियंत्रित करने और आक्रामक प्रजातियों को नियंत्रित करने के लिए जंगल में कूड़े में आग लगाई जाती थी। वन विभाग द्वारा इस प्रथा पर प्रतिबंध लगाने के कारण, आक्रामक प्रजातियां बढ़ गई हैं, और जलवायु परिवर्तन ने पौधों की वृद्धि को और अधिक प्रभावित किया है। वे कहते हैं, “बदलते वर्षा पैटर्न पौधों की वृद्धि को प्रभावित करते हैं।”

भोजन के विकल्पों में बदलाव, चावल जैसे अनाज की प्रमुखता और आहार संबंधी प्राथमिकताओं में बदलाव ने भी सोलिगा लोगों की जंगली खाद्य पौधों पर निर्भरता कम करने में योगदान दिया है। हरीशा बताते हैं, “अब हर किसी के पास बाहर का खाना उपलब्ध है।” इसके अलावा, बाज़ार में सब्जियां नियमित रूप से और आसानी से उपलब्ध हैं।
खेती के बढ़ते प्रभाव ने इस समस्या को और भी बढ़ा देती है। कीटनाशकों और ट्रैक्टर जैसी मशीनरी के बढ़ते इस्तेमाल ने मिट्टी की संरचना और स्वास्थ्य में बदलाव आया है। फलस्वरूप जंगली खाद्य पौधों की उपलब्धता में कमी आई है। हरीशा बताते हैं कि जंगली खाद्य पौधे कभी सोलिगा आहार का 45% से अधिक हिस्सा थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है। उन्होंने कहा कि कई समुदाय के सदस्यों द्वारा नौकरी करने के साथ-साथ बदलते व्यवसायों ने भी उनके आहार पैटर्न को प्रभावित किया है।
इन चुनौतियों के बावजूद, मदेगौड़ा का दावा है कि सोलिगा लोगों में जंगली खाद्य पौधों के प्रति लगाव अभी भी बरकरार है। उन्हें कुछ साल पहले की एक घटना याद है जब बी.आर. हिल्स के पास एक दुर्लभ जंगली पौधे की खबर फैली थी, जिसके बाद सोलिगा लोगों ने इसे इकट्ठा करने के लिए आठ किलोमीटर की पैदल यात्रा की थी। वह कहते हैं, “अगर विकल्प दिया जाए, तो सोलिगा लोग अपने पसंदीदा जंगली खाद्य पदार्थों के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 27 अगस्त, 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: युवा सोलिगा, शशि अपने घर के पास जंगली साग-सब्जियां खोजती हुई। आदिवासी बुजुर्गों का कहना है कि युवा पीढ़ी में जंगली खाद्य पौधों के बारे में पारंपरिक ज्ञान कम होता जा रहा है। तस्वीर – अभिषेक एन. चिन्नाप्पा द्वारा मोंगाबे के लिए।