- कोविड, किसान आंदोलन की वजह से 2021 रहा खास। हालांकि उदारीकरण के 30 साल होने और पेसा कानून के 25 साल पूरा होने की वजह से भी 2021 का महत्व बढ़ जाता है।
- जलवायु परिवर्तन की गति तेज होती दिखी तो भारत सरकार ने कॉप में नेट ज़ीरो की घोषणा कर वैश्विक समुदाय को चौंका दिया।
- स्वच्छ ऊर्जा की तरफ बदलाव होता दिखा पर हिन्दी पट्टी के राज्य इसमें भी पीछे होते दिखे। जस्ट ट्रांजिशन के लिए भी आवाज प्रबल हुई।
- वन्यजीव, प्राकृतिक संसाधन पर दबाव बढ़ रहा है। हालांकि इन मुश्किलों के बीच समाधान को लेकर हो रही छोटी-छोटी कोशिशों की भी हो रही है चर्चा।
अभी 2022 दहलीज पर खड़ा है और इसके साथ ओमीक्रॉन भी। पूरी मानव सभ्यता इस उम्मीद में है कि कोविड के डेल्टा ने 2021 में जो तबाही मचाई वैसे आगे कुछ न हो। बीते साल की सबसे बड़ी याद तो यही है पर अन्य कई मुद्दों के लिए भी इसे याद रखा जाएगा जैसे किसान आंदोलन। इसके अतिरिक्त 2021 को कई अन्य संदर्भ में भी परखने की जरूरत है। इसी साल में पेसा कानून के 25 साल पूरे हुए। यह कानून आदिवासी समाज को मजबूती देने के लिए लाया गया था। दूसरी तरफ उदारीकरण के भी 30 साल पूरे हुए।
उदारीकरण ने जीवन जीने के तरीके को खासा प्रभावित किया। आज महामारी के साये में पीछे मुड़कर देखने पर एक नई समझ पैदा होती है। 30 साल पहले 1991 में शुरू किए गए आर्थिक सुधारों ने देश में एक नए मध्य वर्ग को मजबूत किया जिसने भारत के पर्यावरण, स्वास्थ्य और शासकीय मुद्दों से निपटने के पारंपरिक तरीके को बदल दिया। अब सवाल उठता है कि क्या इस महामारी से भविष्य की दिशा तय होगी!
इसी तरह 2021 ने आदिवासी और वनवासी समुदाय के लिहाज से भी महत्वपूर्ण साल रहा। इस साल पेसा यानी पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) क़ानून को आए पच्चीस साल पूरे हुए। यह कानून 1996 में आया था। इस कानून को आदिवासी-बहुल क्षेत्र में स्व-शासन (ग्राम सभा) को मजबूती प्रदान करने के उद्देश्य से लाया गया था। हालांकि यह लक्ष्य अभी कोसों दूर है।
यह सरकार की बेरुखी कहें या कुछ और पर आज भी आदिवासी अपने मूल अधिकारों के लिए, अपनी जमीन के संरक्षण के लिए संघर्ष करने को मजबूर हैं। इनके सामने अपनी ही सरकार खड़ी है। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ को ही लीजिए। कोयला खनन के वास्ते केंद्र सरकार ने बीते दिसंबर महीने में 1957 में बने कानून का उपयोग करते हुए कोरबा जिले के मदनपुर इलाके में भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरु कर दी। ग्रामीणों के अनुसार उनका क्षेत्र पांचवी अनुसूची के दायरे में आता है जहां ग्राम-पंचायतों को पेसा कानून के तहत विशेषाधिकार प्राप्त है।
कोविड महामारी ने आदिवासियों का संकट काफी बढ़ाया। जब कोविड की वजह से लोगों को अपनी गतिविधियां कम और नियंत्रित करने की सलाह दी जा रही थी, उन्हीं दिनों कई राज्यों में आदिवासियों को उनकी ज़मीनों से बेदखल करने की कोशिश भी की जा रही थी। वह भी सरकारी विभागों के द्वारा। यह सारा विवाद वनाधिकार को लेकर है। इसके प्रति सरकार की गंभीरता जगजाहिर है। इसे समझाने के लिए बिहार का एक उदाहरण काफी है। राज्य में कुल 6,473 वर्ग किलोमीटर का वन क्षेत्र है जिसमें एक लाख से अधिक परिवार रहते हैं। पर जब वनाधिकार की बात आई तो महज 8,022 दावे ही बिहार सरकार के समक्ष पेश हुए। सरकार की बेरुखी और इन नीतियों के वजह से कई जगह आदिवासी समाज में विरोध के स्वर भी तेज हुए।
वैसे तो सरकार आदिवासी समाज के भले के नाम पर कई योजना चलाती है पर वहां भी यह समस्या जस की तस बनी रहती है। जैसे द ट्राइबल कोऑपरेटिव मार्केटिंग डेवलपमेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (ट्राईफेड)’ द्वारा कर दावा करती है कि इससे आदिवासियों की आर्थिक स्थिति सुधार कर रही है। हालांकि, इसी छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को केंद्र में रख कर लघु वनोपज और आदिवासियों को लेकर किये जाने वाले इन्हीं दावों की पड़ताल करने पर कहानी कुछ और ही नजर आती है।
इसी तरह झारखंड में यह देखने में आया कि प्रधानमंत्री सम्मान निधि कृषि योजना में लाभार्थी आदिवासी किसानों का प्रतिशत मात्र 12-13 प्रतिशत ही रहा है जो कि आबादी के लिहाज से काफी कम है।
कृषि का मुद्दा गरमाया रहा
यह साल कृषि के लिहाज से महत्वपूर्ण रहा। तीन कृषि कानूनों को लेकर हजारों किसानों ने साल भर तक आंदोलन किया। ये कृषि कानून किसानों को बाजार सुलभ कराने और उनकी उपज का सही दाम दिलाने के नाम पर लाया गया था। उधर आंदोलन करते किसान सरकार पर उनके हितों के अनदेखी का आरोप लगाते रहे। देश में किसानों की स्थिति और सरकारी योजनाओं को देखा जाए तो यह आरोप सही ही लगते हैं। केंद्र सरकार ग्राम नाम की एक योजना की घोषणा की थी। इस योजना का उद्देश्य भी छोटे और मझोले किसानों को अपनी फसल सही दाम में बेचने की सहूलियत दिलाना था। पर तीन साल बीत जाने के बावजूद भी यह कागज तक ही सीमित रहा।
किसानों और कृषि पर प्राकृतिक आपदा की मार सबसे अधिक पड़ती है। इस साल भी यह देखने को मिला। जैसे उत्तराखंड में जनवरी के महीने में लगभग नहीं के बराबर बर्फबारी हुई है और किसानों को डर सताता रहा कि इस साल सेब तथा अन्य फलों का उत्पादन प्रभावित होगा। प्राकृतिक आपदा बढ़ ही रही है। इस साल हिमाचल प्रदेश में प्राकृतिक आपदाओं में कम से कम 246 लोगों ने जान गंवाई। वहीं मॉनसून जाने के बाद उत्तराखंड में ऐसी बारिश हुई कि सैकड़ों साल के रिकार्ड टूट गए। कई गांव तबाह हुए तो कम से कम 72 लोगों की जान चली गयी।
जलवायु परिवर्तन और बदलते मौसम से निपटने के लिए किसान नए तरीके अपनाते दिखे। जैसे कोसी सीमांचल के इलाके में अक्सर उठने वाले स्थानीय चक्रवात, हर साल आने वाली बाढ़ या किसी भी अन्य आपदा के खतरे से मुक्त रहने के लिए कई किसान पारंपरिक खेती छोड़ मखाने की खेती की तरफ बढ़ते दिखे। भंडारण की समस्या से जूझ रहे झारखंड के किसानों ने बांस की मदद से दो या तीन तल की संरचना बनाकर आलू का भंडारण करना शुरू किया। ऐसे छोटे छोटे कई उदाहरण हैं।
कॉप-26, जलवायु परिवर्तन और नेट जीरो की बहस
जलवायु परिवर्तन की लड़ाई में यह साल नेट जीरो के नाम रहा। संयुक्त राज्य अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन के आह्वान पर, अप्रैल में लगभग 40 देशों ने नेट-जीरो हासिल करने के लिए समय-सीमा की घोषणा की।
कॉप की रिपोर्टिंग पर बात करने के पहले इस साल आए इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज यानी आईपीसीसी की रिपोर्ट का जिक्र जरूरी है। आईपीसीसी के रिपोर्ट में कहा गया कि अगर बड़े निर्णय नहीं लिए गए तो पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी को 1.5 या 2 डिग्री सेल्सियस के भीतर नहीं रोका जा सकता।
इस आपात स्थिति को ध्यान में रखते हुए इस साल कॉप का आयोजन हुआ। ग्लासगो में आयोजित इस जलवायु परिवर्तन की बैठक में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2070 तक नेट जीरो हासिल करने की घोषणा करके अंतरराष्ट्रीय बातचीत की दिशा बदल दी।
मोंगाबे-हिन्दी ने वहां से विस्तृत रिपोर्टिंग की। जलवायु परिवर्तन के बिगड़ते रूप को देखते हुए इस कॉप से सभी को बहुत उम्मीदें थीं। कहा जा रहा था कि तमाम देशों के शीर्ष नेता, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए अतिरिक्त प्रयास नहीं करते हैं, तो दुनिया कम से कम 2.7 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो जाएगी।
इस सालाना आयोजन में लॉस एंड डैमेज का मुद्दा उठा। नेट जीरो की घोषणा के बाद भारत, दुनिया के अमीर देशों से समता के सिद्धांत पर कदम उठाने का दबाव बनाने की स्थिति में आया। इस कॉप में सौर ऊर्जा ग्रिड की बात हुई। भारत और ब्रिटेन दोनों देश सौर ऊर्जा ग्रिड को जोड़ने की योजना के साथ सामने आए।
जलवायु परिवर्तन से जुड़ी बहस और बैठक, इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत इससे प्रभावित होने वाले सबसे प्रभावित देशों में शुमार है। बिहार जैसे राज्य को इससे अधिक प्रभावित होने का अनुमान लगाया जाता है। जलवायु परिवर्तन की चपेट से सबसे अधिक प्रभावित भारत के 50 जिले में बिहार के 14 जिले शामिल हैं। इन खतरों के बावजूद बिहार के पास इससे निपटने के लिए कोई ठोस एक्शन प्लान नहीं है। अब जब बिहार सरकार नये सिरे से क्लाइमेट एक्शन प्लान तैयार कर रही है तो इसके पास जरूरी आंकड़े ही नहीं हैं।
स्वच्छ ऊर्जा के इर्द गिर्द रही भविष्य की तैयारी
जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सबसे अधिक जोर स्वच्छ ऊर्जा पर है। हालांकि सरकार कहती कुछ और है और करती कुछ और। ऊर्जा का क्षेत्र इसका बेहतर उदाहरण है। एक तरफ तो सरकार स्वच्छ ऊर्जा को प्रोत्साहन देने की बात करती है तो दूसरी तरफ पेट्रोल-डीजल और अन्य फॉसील फ्यूल से मोटी कमाई करती है। यही नहीं स्वच्छ ऊर्जा के नाम पर वसूले गए पैसों का भी अन्य मद में इस्तेमाल कर लिया जाता है। 2021 में यह मुद्दा इसलिए चर्चा में रहा क्योंकि इस साल पेट्रोल और डीजल के दाम आसमान छूते रहे।
इसके बावजूद भी यह कहना होगा कि यह साल स्वच्छ ऊर्जा के लिहाज से महत्वपूर्ण रहा। भारत ने 2022 तक 175 गीगावाट नवीन ऊर्जा की क्षमता हासिल करने का लक्ष्य तय किया है। अपने तमाम स्टोरी के मध्यम से मोंगाबे-हिन्दी ने पड़ताल की कि हिन्दी-पट्टी के राज्य इस यात्रा में कहां खड़े हैं। और वही बात सामने आई जिसका अनुमान था। बिहार को ही लीजिए। राज्य सरकार ने 2022 तक 3,433 मेगावाट अक्षय ऊर्जा की क्षमता विकसित करने का लक्ष्य रखा था। इस समय-सीमा के पूरा होने में महज एक साल रह गया है और बिहार में महज 194 मेगावाट की क्षमता ही विकसित हो पायी है।
इसी तरह उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री कुसुम योजना की स्थिति का जायजा लिया गया। इस योजना को शुरू हुए करीब दो साल बीतने को हैं पर उत्तर प्रदेश में इसके दो बड़े हिस्से का काम अभी शुरू ही नहीं हो पाया है।
उत्तराखंड में सितंबर 2020 में मुख्यमंत्री सौर स्वरोज़गार योजना की शुरुआत हुई। इस योजना के तहत मार्च-2022 तक 10 हज़ार लोगों को 25 किलोवाट तक के छोटे सोलर प्लांट आवंटित करने का लक्ष्य तय किया गया। पर दूर दूर तक यह लक्ष्य हासिल होता नहीं दिख रहा।
इसी तरह कोयले से बिजली बनाने में अग्रणी रहा मध्य प्रदेश अक्षय ऊर्जा के मामले में सुस्त दिख रहा है। अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में देखें तो 2022 तक का एक लक्ष्य तय किया गया था। राज्य में अब तक उसका 44 प्रतिशत ही हासिल किया जा सका है।
इलेक्ट्रिक वाहन को लेकर भी देश में कमोबेश यही स्थिति रही। नीति आयोग ने 2018 मे सभी राज्यों को खुद की इलेक्ट्रिक वाहन नीति बनाने के लिए कहा था। अब तक छत्तीसगढ़ और पूर्वोत्तर के राज्यों ने इस दिशा में एक कदम तक नहीं बढ़ाया है।
सरकारें अपनी सफलता गिनाती रहीं तो यह भी सामने आया कि नित बदलते नियमों से इस क्षेत्र के निवेशक हलकान हो रहे हैं। इन्हीं तरीकों से अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में भारत में 2030 तक 450 गीगावॉट क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया है।
जस्ट ट्रांजिशन: क्या स्वच्छ ऊर्जा की राह न्यायोचित है?
देश और दुनिया में स्वच्छ ऊर्जा को अपनाने और फॉसील फ्यूल को त्यागने की पुरजोर सिफारिश हो रही है। इसका तात्पर्य यह कि खनन की गतिविधियां बंद या कम होंगी। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि जो लोग इन गतिविधियों में लिप्त हैं, उनका क्या?
मोंगाबे-हिन्दी ने इस विषय पर विस्तृत काम किया। जैसे हमने खदान के आसपास रहने वाली महिलाओं के जीवन की पड़ताल की। राजस्थान में कई प्रकार के पत्थरों का खनन बड़े पैमाने पर किया जाता है। इन पत्थर खदानों से निकली बारीक धूल मजदूरों के फेफड़ों में जमा होता रहती है। इससे कई तरह की बीमारियां होती हैं। इनमें एक जानलेवा बीमारी का नाम है सिलिकोसिस। इस बीमारी से हजारों लोगों की जान जा चुकी है। सिलिकोसिस से मरने वाले लोग अपने पीछे अपना परिवार छोड़ जाते हैं, जिन्हें विकल्प के अभाव में दोबारा उसी मौत के खदानों में पुनः काम के लिए जाना पड़ता है।
इसी तरह मध्यप्रदेश का पन्ना जिला हीरे के लिए विख्यात है। इस हीरे की चमक में खदानों में काम करने वाले मजदूरों की कहानी कहीं खो जाती है।
कॉओलिन मिट्टी या चीनी मिट्टी के नाम से जाना जाने वाला क्ले पश्चिम बंगाल में अच्छी मात्रा में उपलब्ध है। इसके खनन से स्थानीय लोगों को रोजगार तो मिल रहा है पर स्वास्थ्य, मजदूरों के अधिकार हनन और पर्यावरण की क्या चिंताएं हैं।
दिल्ली के आसपास गुरुग्राम और फरीदाबाद तक घनी इंसानी आबादी के बावजूद इस क्षेत्र में कई तरह के वन्यजीवों का बसेरा है। इस बचाने की जरूरत है।
ऐसे मुद्दों के साथ मोंगाबे-हिन्दी ने अलग अलग राज्यों के कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए। जैसे झारखंड स्थित राजमहल की पहाड़ियों पर उत्खनन के कारण आदिम जनजाति पहाड़िया से जुड़ा संकट गहरा हो रहा है। उनकी पहाड़ आधारित आजीविका छिन रही है और उन्हें विस्थापित होना पड़ रहा है। छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य की गिनती प्राचीन जंगलों में होती है। एनजीटी के आदेश के बाद हुए अध्ययन में खनन से होने वाले नुकसान के जिक्र के बावजूद भी राज्य सरकार ने खनन की मंजूरी दे दी।
इन सारे मुद्दों के लिहाज से देखा जाए तो सरकार के रुख का भी अंदाजा होता है। इस साल एक बार ऐसा माहौल बनाया गया कि कोयले की कमी की वजह से देश में अंधकार हो सकता है। मोंगाबे हिन्दी ने पड़ताल की तो पाया कि ऐसी स्थिति नहीं है।
वन्यजीव और उनकी कहानियां
यह साल जंगली जीवों के लिहाज से भी महत्वपूर्ण रहा। मोंगाबे-हिन्दी की कोशिश रही कि इन मुद्दों को भरसक आवाज दी जाए। जैसे छत्तीसगढ़ सरकार लेमरु हाथी अभयारण्य बनाने में आनाकानी कर रही है। यह खबर तब और मौजूं हो जाती है जब हम यह देखते हैं कि पिछले 20 सालों में राज्य में 162 हाथियों की मौत हो चुकी है और अधिकांश मौत हाथी-मानव संघर्ष का परिणाम हैं। छत्तीसगढ़ से ऐसी कई खबरें आईं। जैसे सरकार ने 2500 रुपये के समर्थन मूल्य पर ख़रीदे गये धान को हाथियों को खिलाने का फ़ैसला किया। छत्तीसगढ़ के दो टाइगर रिजर्व पहले से माओवादी क्षेत्र में थे इस साल तीसरे यानी अचानकमार टाइगर रिजर्व को भी माओवाद प्रभावित जिलों में शामिल कर लिया गया। छत्तीसगढ़ का राजकीय पशु वनभैंस की नस्ल ख़तरे में है, इसकी भी पड़ताल की गयी।
वन्यजीवों के लिहाज से राजस्थान भी चर्चा में रहा। इस साल एक बहस चली कि गोडावण जिसे अंग्रेजी में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड भी कहते हैं, की वजह से राज्य में स्वच्छ ऊर्जा का विकास नहीं हो पा रहा है। मोंगाबे-हिन्दी ने इसकी पड़ताल की और पाया कि जमीनी तस्वीर इसके एकदम विपरीत है। निजी कंपनियों के बिछाए हाइटेंशन पावर लाइनों की वजह से गोडावण को खतरा है।
राजस्थान के लिए ऊंटों की घटती संख्या भी एक चिंता का कारण रहा। सरकार के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2013 से 2019 के दौरान ऊंटों की संख्या में 35 फीसदी तक कमी आई है। ऊंट संरक्षण के लिए सरकार ने 2015 में एक कानून बनाया था जिसका उद्देश्य ऊंटों की कटाई और उनके पलायन को रोकना था। ऊंट पालक किसान इस कानून को ही ऊंटों की घटती संख्या की एक बड़ी वजह मान रहे हैं।
इसी तरह मोंगाबे-हिन्दी ने मदारियों की मौजूदा स्थिति की पड़ताल की। कभी गांव-गांव घूमकर लोगों को भालू और बंदर का खेल दिखाने वाले ये लोग आज किस स्थिति में है।
छत्तीसगढ़ और राजस्थान दोनों से सटे मध्य प्रदेश से भी कई महत्वपूर्ण खबरें आईं। जैसे, कैसे राज्य में हाथियों की कमी की वजह से बाघ संरक्षण प्रभावित हो रहा है।
हिन्दी पट्टी की नदियां, तालाब और झील
कृषि से लेकर पर्यटन तक, हिन्दी क्षेत्र के लिए नदियों, तालाबों और पोखर इत्यादि का काफी महत्व रहा है। हालांकि आज के समय में इन सबकी स्थिति खराब है। जैसे गंगा की सहायक नदी गोमती प्रदूषण का दंश झेल रही है। गोमती में करीब 68 नालों का गंदा पानी घुल रहा है। मध्य प्रदेश के अमरकंटक से निकलने वाली नर्मदा नदी के उद्गम स्थल से ही नदी के अस्तित्व पर हमला शुरू हो गया है। दक्षिण बिहार के मगध प्रमंडल की दो प्रमुख नदियां – फल्गु और दरधा बारहमासी नदियां थी लगभग लुप्तप्राय हैं। झारखंड और पश्चिम बंगाल में बहने वाली दामोदर नदी का भी यही हाल है।
पिछले कुछेक सालों से नदी में जहाज चलाने की वकालत बड़े जोर शोर से होती रही है। केंद्र सरकार ने इसकी योजना भी तैयार की है। मोंगाबे ने समय समय पर इन योजनाओं की पड़ताल की। जैसे गंडक को लेकर जो प्लान बना था उसका क्या हुआ!
वर्ष 2016 में दिल्ली की यमुना नदी पर केंद्र सरकार ने वाटर-टैक्सी परियोजना शुरू की और पांच साल बाद बताया कि यह संभव नहीं है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या बिना उचित अध्ययन के ही सरकार ने ऐसी घोषणा कर दी।
इन नदियों के साथ मोंगाबे-हिन्दी ने आस-पास रहने वाले लोगों की जीवन पर भी नजर बनाये रखी। मध्य-प्रदेश के नर्मदा नदी पर बने बरगी बांध के जलाशय में वर्ष 1995-96 में 530 टन तक मछली उत्पादन हुआ था, जबकि बीते कुछ वर्षों में यह उत्पादन घटते हुए सौ टन से भी नीचे आ गया है। मछली उत्पादन कम होने से इस पूरे क्षेत्र के मछुआरों की आजीविका संकट में है। उधर बिहार में बाढ़ जैसी आपदा से बचने के लिए सरकार बागमती नदी पर बांध बना रही है तो किसान इसका विरोध कर रहे हैं।
इसके अतिरिक्त मोंगाबे-हिन्दी ने झीलों के शहर भोपाल और उदयपुर का भी रुख किया। उदयपुर के झील और भोपाल का बड़ा तालाब दोनों मुश्किल में हैं।
जलवायु परिवर्तन की मुश्किलों के बीच समाधान की कोशिशों पर हुई बात
करीब तीन दशक से जलवायु परिवर्तन से होने वाली मुश्किलों पर बात हो रही है। अब नीति-निर्माताओं को जोर उन कोशिशों को सामने लाने पर है जिससे रोजमर्रा की चुनौतियों का समाधान निकल सके।
इस संदर्भ में मोंगाबे-हिन्दी ने कई महत्वपूर्ण खबरें की। जैसे जब देश के कई जंगलों में आग लगी हुई थी तब देहरादून के पास के शुक्लापुर के एक मॉडल की चर्चा हुई। वर्ष 2011 में समुदाय की भागीदारी से इस जंगल में पानी रोकने के प्रयोग किए गए। करीब 42 हेक्टेयर क्षेत्र में जगह-जगह चेकडैम बनाए गए। एक जलछिद्र को 1-10 हज़ार लीटर तक पानी भरने की क्षमता के साथ तैयार किया गया। इन प्रयासों से कोशिश की गयी कि जंगल हरा-भरा बना रहे।
ऐसी ही एक चुनती है राजस्थान के सांभर झील के नजदीक के क्षेत्र का पानी। यहां के भूजल में खारापन इतना अधिक है कि हैंडपंप भी गल जाते हैं। स्थानीय लोगों ने वर्षा जल का संचयन कर इस मुश्किल का समाधान निकाल लिया।
रोजमर्रा के मुश्किलों के बीच ऐसे प्रयासों ने ऊर्जा का संचार किया। कैसे दिल्ली के सुंदर नर्सरी का पुनरुद्धार हो गया! इसी तरह सोलर पंप की मदद से कैसे झारखंड में किसानों की आमदनी बढ़ रही है! कैसे मुगलों के बनाई संरचना की मदद से आज बुरहानपुर की प्यास बुझाई जा रही है।
बैनर तस्वीरः बैनर तस्वीर: मुंबई लोकल के लिए रेलवे स्टेशन पर लगी भीड़ की एक आम तस्वीर। 1990 में शहरी आबादी 25.5% से बढ़कर 2018 में 34% हो गई। 1990 में चार में से एक भारतीय शहर में रहता था, तीन दशक बाद अब तीन में से एक लोग शहर में रहने लगे। तस्वीर– स्मिथ मेहता/अन्सप्लैश